देवभूमि में आज फूल संक्रांति, फूलदेई बाल लोक पर्व
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देवभूमि में आज फूल संक्रांति, फूलदेई बाल लोक पर्व

फूल सगरांद यानी फूल संक्रांति के दिन भोर होते ही पहाड़ के हर गांव में छोटे-छोटे बच्चे हाथों में रिंगाल की टोकरी ( जिसमें पीले फ्योंली के फूल, लाल बुरांस के फूल मौजूद होते हैं ) में रखे फूलों को हर घर की देहरी पर डालते हुये ये गीत गाएंगे।

by दिनेश मानसेरा
Mar 14, 2024, 02:30 pm IST
in उत्तराखंड
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देहरादून: आज 14 मार्च को उत्तराखण्ड में बाल लोकपर्व फूलदेई (फुलफुलमाई) मनाया जा रहा है। आज चैत महीने की संक्रांति है। चैत संक्राति के दिन फूलदेई त्यौहार मनाने की परंपरा है। फूल सगरांद यानी फूल संक्रांति के दिन भोर होते ही पहाड़ के हर गांव में छोटे-छोटे बच्चे हाथों में रिंगाल की टोकरी ( जिसमें पीले फ्योंली के फूल, लाल बुरांस के फूल मौजूद होते हैं ) में रखे फूलों को हर घर की देहरी पर डालते हुये ये गीत गाएंगे।

फुलफुल माई दाल दे चौंल दे!
फूल देई-छम्मा देई, दैंणि द्वार- भर भकार,
यौ देळी कैं बार-बार नमस्कार।
फूलदेई -फूलदेई -फूल संग्रान्द
सुफल करी नयो साल तुमको श्रीभगवान
रंगीला सजीला फूल फूल ऐगी, डाल़ा बोटाल़ा हर्या ह्व़ेगीं
पौन पन्छ , दौड़ी गेन, डाल्युं फूल हंसदा ऐन ,
तुमारा भण्डार भर्यान, अन्न धन बरकत ह्वेन
औंद राउ ऋतू मॉस , होंद राउ सबकू संगरांद
बच्यां रौला तुम हम त फिर होली फूल संगरांद
फूलदेई -फूलदेई -फूल संग्रान्द
फुलफुल माई दाल दे चौंल दे!

बसंत का आगमन पहाड़ों में खुशियों की सौगात लेकर आता है। सर्दियों के मौसम की विदाई के उपरांत पहाड़ की ऊंची ऊंची चोटियों पर पड़ी बर्फ धीरे धीरे पिघलने लग जाती है। चारों ओर पहाड़ के जंगल लाल बुरांस के फूलों, खेतों की मुंडेर पीले फ्योंली के फूलों, गांवों में आडू, सेब, खुमानी, पोलम, मेलू के पेड़ों के रंग बिरंगे सफेद फूलों से बसंत के इस मौसम को बासंती बना देते है। ठीक इसी समय चैत महीने की संक्रांति को पूरे पहाड़ की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। फूलदेई त्यौहार पहाड़ के लोक में इस कदर रचा बसा है कि इसके बिनापहाड़ की कल्पना ही संभव नहीं है।

फूलदेई बच्चों को बचपन से ही प्रकृति के प्रति प्रेम और सामाजिक सोच सिखाने वाला एक आध्यात्मिक त्योहार है। फूलों का यह त्यौहार कुछ जगहों पर पूरे चैत्र महीने तक और कुछ जगहों पर आठ दिनों तक चलता है। बच्चे फ्योंली, बुरांस और दूसरे स्थानीय रंग बिरंगे फूलों को चुनकर लाते हैं और उनसे सजी फूलकंडी लेकर घोघा माता की डोली के साथ घर-घर जाकर फूल डालते हैं। भेंटस्वरूप लोग इन बच्चों की थाली में पैसे, चावल, गुड़ इत्यादि चढ़ाते हैं। घोघा माता को फूलों की देवी माना जाता है। फूलों के इस देव को बच्चे ही पूजते हैं। अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की बड़ी पूजा करते हैं और इस अवधि के दौरान इकठ्ठे हुए चावल, दाल और भेंट राशि से सामूहिक भोज पकाया जाता है।

प्रेम और त्याग की प्रतीक फ्योंली का फूल

पीले फ्योंली के फूलों के बिना फूलदेई त्यौहार की परिकल्पना नहीं की जा सकती। बंसत आगमन के साथ पहाड़ के कोनो-कोनो में फ्योंली का पीला फूल खिलने लगता है। फ्योंली पहाड़ में प्रेम और त्याग की सबसे सुन्दर प्रतीक मानी जाती है। पौराणिक लोककथाओं के अनुसार फ्योंली एक गरीब परिवार की बहुत सुंदर कन्या थी। एक बार गढ़ नरेश राजकुमार को जंगल में शिकार खेलते खेलते देर हो गई । रात को राजकुमार ने एक गांव में शरण ली। उस गांव में राजकुमार ने बहुत ही खूबसूरत अफसरा रुपी फ्योंली को देखा तो वह उसके रूप में मंत्रमुग्ध हो गया ।

पीले फ्योंली के फूलों के बिना फूलदेई त्यौहार की परिकल्पना नहीं की जा सकती। वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही पहाड़ के कोने-कोने में पीले फ्योंली के फूल खिलने लगते हैं। फ्योंली को पहाड़ में प्रेम और त्याग का सबसे खूबसूरत प्रतीक माना जाता है। पौराणिक लोककथाओं के अनुसार फ्योंली एक गरीब परिवार की बहुत सुंदर कन्या थी। एक बार गढ़ नरेश राजकुमार को जंगल में शिकार खेलते खेलते देर हो गई । रात को राजकुमार ने एक गांव में शरण ली। उस गांव में राजकुमार ने बहुत ही खूबसूरत अफसरा रुपी फ्योंली को देखा तो वह उसके रूप में मंत्रमुग्ध हो गया।

फ्योंली गांव पहुंच गई लेकिन इस दौरान फ्योंली दुख के कारण धीरे-धीरे कमजोर हो गई और मरने के करीब पहुंच गई। गांव में फ्योंली पहुँच तो गई लेकिन इस दौरान फ्योंली किसी गम में धीरे धीरे कमजोर हो गयी थी और मरणासन्न की ओर जा पहुंची। बाद में राजकुमार ने गांव आकर फ्योंली से उसकी अन्तिम इच्छा पूछी तो उसने कहा कि उसके मरने के बाद उसे गांव की किसी मुंडेर की मिट्टी में समाहित किया जाए। फ्योंली को उसके मायके के पास दफना दिया जाता है, जिस स्थान पर कुछ दिनों बाद पीले रंग का एक सुंदर फूल खिलता है। इस फूल को फ्योंली नाम दे दिया जाता है और उसकी याद में पहाड़ में फूलों का त्यौहार मनाया जाता है।

बेहतर भविष्य के लिए पहाडो से होते बदस्तूर पलायन नें पहाड के घर गांवो में सदियों से मनाये जाने वाले खुशियों और लोकसंस्कृति की फुलारी का फूलदेई त्यौहार (फुलफुल माई) को भी अपनी चपेट में ले लिया है। पहाड के कई गांवो में अब इस त्यौहार को मनाने के लिए बच्चे ही नहीं हैं क्योंकि इन गांवो में केवल कुछ बुजुर्ग ही गाँव की रखवाली कर रहे है। यदि ऐसा ही रहा तो आने वाले दिनों मे हम अपनी इस पौराणिक लोकसंस्कृति को हमेशा हमेशा के लिए खो देंगे।इसलिए उम्मीद और उम्मीद है कि लोग साल में एक बार फूल देने के बहाने अपने घर और गांव की दहलीज को फूलों से सजाने आते हैं और लोगों का हालचाल जानने अपने पहाड़ पर आते हैं।

 

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