इन दिनों दारुल उलूम, देवबंद के एक फतवे को लेकर बहस चल रही है। इस फतवे में दारुल उलूम, देवबंद ने गजवा-ए-हिंद को उचित ठहराया है। इसके बाद देश-दुनिया में एक बार फिर से यह जानने का प्रयास किया जा रहा है कि आखिर गजवा-ए-हिंद है क्या? अगर हम इसका शाब्दिक अर्थ समझने की कोशिश करते हैं तो हमें समझ आता है कि यह हिंद यानी भारत के विरुद्ध युद्ध है। ‘गजवा’ का मतलब है ‘जंग’ और ‘गाजी’ का मतलब होता है ‘अल्लाह की राह में जंग करने वाला।’ लेकिन कुछ इस्लामी जानकारों का कहना है कि गजवा-ए-हिंद में हिंद शब्द हिंदुस्थान के लिए नहीं है, क्योंकि अरबी में हिंद का अर्थ होता है बहादुर। उन लोगों के अनुसार गजवा-ए-हिंद का अर्थ है एक ऐसा बहादुर, जो अल्लाह की राह में जंग करे। ये लोग अपनी बात साबित करने के लिए उदहारण देते हैं कि अबू सूफियान की बीवी का नाम बीवी हिंद था और हिंद एक अरबी शब्द भी है। अगर तर्क के आधार पर यह बात मान भी ली जाए तो भी अल्लाह के लिए युद्ध करना कहां तक जायज है?
गजवा चाहे हिंदुस्थान के खिलाफ हो या किसी भी देश, समाज या व्यक्ति के, आखिर एक इंसान को अल्लाह की तरफ से गाजी बन कर लड़ने की इजाजत किसने दी है? कुरान में गजवा-ए-हिंद का कोई जिक्र नहीं मिलता। जो लोग गजवा-ए-हिंद को अल्लाह या पैगंबर का फरमान मानते हैं, उनका कहना है कि इसका जिक्र कुछ हदीसों में है। जब हम हदीसों की गहराई में उतरते हैं तो हमें पता चलता है कि पैगंबर मुहम्मद की वफात (मृत्यु) के बाद सैकड़ों की संख्या में फर्जी हदीसें लिखी गई हैं और मुस्लिम समाज आज भी उन हदीसों को आंख बंद करके मान रहा है। इनमें से कुछ हदीसें तो पैगंबर के बारे में ही झूठी, फर्जी और अश्लील बातें करती हैं। इसके बावजूद मुसलमानों का एक बहुत बड़ा तबका है, जो ऐसी हदीसों को सच्चा मानता है। यही कारण है कि आज लोग इस्लाम पर उंगली उठाने लगे हैं। हमारी कौम ने कभी भी अपने मजहबी ग्रंथों को समझने और उसमें सुधार करने की कोई कोशिश नहीं की।
इस समस्या की जड़ को समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि आखिर ये झूठी हदीसें किसने और क्यों लिखी हैं? पैगंबर मुहम्मद के जाने के बाद उनकी विरासत को लेकर विवाद शुरू हो गया था, क्योंकि उनका कोई पुत्र जीवित नहीं बचा था, केवल एक बेटी थी। विरासत की लड़ाई लड़ने वालों में उनके नजदीकी साथियों में वे लोग थे, जिन्होंने पैगंबर साहब की मृत देह को 18 घंटे धूप में रखा था। क्योंकि ये लोग चाहते थे कि पहले यह तय हो जाए कि खलीफा कौन बनेगा। इन्हीं लोगों ने पैगंबर की बेटी बीबी फातिमा, उनके शौहर मौला अली और उनके बच्चे इमाम हसन और इमाम हुसैन को उनका हक नहीं दिया। पैगंबर साहब अपने जीवनकाल में कोई भी किताब या हदीस छोड़ कर नहीं गए थे।
ये सारी मजहबी किताबें व हदीसें उनकी मृत्यु के बाद लिखी गई हैं। खलीफाओं ने मौला अली द्वारा लिखी गई कुरान की हस्तलिपि को मानने से इनकार कर दिया था और उसको कुरान में नहीं लिया गया। तीसरे खलीफा ने कुरान की तकरीबन 500 प्रतियों को यह कहते हुए नष्ट कर दिया था कि जो हम संग्रहीत कराएंगे, उसे ही सही माना जाएगा। पैगंबर की मृत्यु के बाद इस्लाम के नाम पर इन लोगों ने जंग करके अलग-अलग मुल्कों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। जब ये लोग नए-नए देशों पर आक्रमण कर उन्हें जीतते थे, तो वहां की खूबसूरत लड़कियों से निकाह करने के लिए इन्होंने अपनी बीवियों को तीन बार तलाक बोल कर छोड़ना शुरू कर दिया। वहीं से तलाक-ए-बिद्दत की शुरुआत हुई। इसी प्रकार मुस्लिम समाज में सारी बुरी आदतें धीरे-धीरे अपनी पैठ बनाने लगीं।
इन लोगों ने पैगंबर साहब के पूरे परिवार को खत्म कर दिया, ताकि कोई आवाज उठाने वाला न रहे। अपनी हर मनमानी को पूरा करने के लिए इन्होंने पैगंबर और इस्लाम का नाम लिया और जो दिल चाहा, करते और लिखते गए। मुसलमान समाज का दुर्भाग्य है कि वह इस इतिहास को जानता ही नहीं है और जो लोग जानने की कोशिश करते हैं या सवाल पूछते हैं, उनको काफिर, मुनाफिक आदि कह कर डराया-धमकाया जाता है।
एक मजहब का राजनीतिक इस्तेमाल करने के लिए इन लोगों ने ‘इस्लामिक स्टेट’ का सिद्धांत गढ़ा। इस षड्यंत्र को पूरा करने के लिए इन्हें ऐसे मुसलमान बच्चे चाहिए, जो इनके कहने पर ‘गाजी’ बन कर इस्लाम के नाम पर युद्ध कर सकें। कोई स्वस्थ मानसिकता वाला बच्चा यह काम कभी नहीं करेगा। इसलिए मुस्लिम समाज के बच्चों को मानसिक तौर पर गुलाम बनाने के लिए ये लोग बचपन से उन्हें डरा कर रखते हैं। हराम, हलाल की लंबी सूची और फतवा ब्रिगेड केवल और केवल मुसलमान बच्चों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने की शुरुआत है। एक लंबे समय तक जब कोई बच्चा अपने फैसले खुद नहीं लेता और फतवा ब्रिगेड ही उसको यह बताती है कि क्या करना है और क्या नहीं करना है, तो एक समय आता है कि वह बच्चा अपनी सोचने-समझने की शक्ति खो देता है।
यह मानसिक गुलामी हमारी कौम के बच्चों के साथ आज भी चल रही है। एक स्वस्थ मन को आतंकवादी या गाजी बनाना संभव नहीं है। इसलिए एक सोची-समझी साजिश के तहत पहले मुसलमान बच्चों को अलगाववादी बनाया जाता है। उसे बताया जाता है कि उसका खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, शिक्षा, न्याय-प्रणाली सब कुछ अलग है। अगर उसने मंदिर जाकर या किसी और पूजा-पद्धति को अपनाकर अल्लाह तक पहुंचने की कोशिश की तो वह कुफ्र करेगा।
अगर उसने तिलक लगा लिया तो वह इस्लाम से खारिज हो जाएगा। इस तरह से डरा कर उसको अलगाववादी बनाया जाता है। इसके बाद उसे कट्टरवादी बनाया जाता है। इसमें उसको यह बताया जाता है कि जो तुम सोच रहे हो वही सही है, बाकी सब गलत है। आखिर में उसे आतंकवादी या गाजी बनाया जाता है। अगर हमें भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व से आतंकवाद और कट्टरवाद को खत्म करना है तो अलगाववाद को खत्म करना होगा। अगर हम भारत में पैदा हुए हैं, भारतीय मुसलमान हैं, तो हमारी भाषा-भूषा, भोजन, भवन, भेषज, भजन भारतीय होने चाहिए। ‘इस्लामिक स्टेट’ के षड्यंत्र को हम अपने कंधों पर क्यों ढोएं? हम किसी के मानसिक गुलाम बन कर क्यों रहें?
एक बात जो हमें समझनी चाहिए और हमेशा याद रखनी चाहिए कि भारत में मुसलमान हमेशा भारतीय संस्कृति में रच-बस कर रहा है। रहीम, रसखान, दाराशुकोह, कबीर आदि सनातनी मुसलमानों का इतिहास आज भी हमारे देश में हमारी प्रकृति के साथ महक रहा है। पूरे विश्व में इस्लाम का सबसे खूबसूरत चेहरा केवल भारत में रहा है, क्योंकि सनातनी भारतीय संस्कृति नाम में नहीं, आचरण में है और यह आचरण प्रकृति केंद्रित है। यह आचरण कुछ जीवन-मूल्यों को आत्मसात करता है, जो हर इंसान, प्रकृति, जड़-चेतन सभी को अपना मानता है। इन जीवन मूल्यों के होने के कारण ही सैकड़ों वर्षों के आक्रमण और प्रयासों के बाद आज भी हमारी संस्कृति प्रफुल्लित हो रही है। यही कारण है कि अगर भारत में औरंगजेब आक्रांता बनता है तो सबसे पहले उसके सामने उसका भाई सनातनी मुसलमान दाराशुकोह अपनी गर्दन कटवाने के लिए खड़ा हो जाता है। इसी कारण ‘इस्लामिक स्टेट’ के षड्यंत्रकारियों को भारत के मुसलमानों को भारत से तोड़ने के लिए एक बड़ी योजना बनानी पड़ी। इसको समझने के लिए हमें कुछ तारीखों पर नजर डालनी पड़ेगी।
1857 की क्रांति में जब हर भाषा, जाति, क्षेत्र व संप्रदाय के लोग एक होकर भारत के लिए लड़े तो भारत विरोधी लोगों ने भारतीय मुसलमानों को मुख्यधारा से तोड़ने के लिए एक विमर्श चलाया कि मुसलमानों की सभी व्यवस्थाएं भारत से अलग हैं। इसी कड़ी में 1867 में दारुल उलूम, देवबंद और 1875 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। 1905 में बंगाल विभाजन कराया गया। 1906-1907 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। 1916 में संप्रदाय के आधार पर चुनाव की मांग उठाई गई। 1919 में खिलाफत आंदोलन चलाया गया। 1920 के बाद मुसलमानों के लिए अलग देश, पाकिस्तान की मांग उठनी शुरू हुई।
पाकिस्तान से शुरू होगा गजवा-ए-हिंद!
पाकिस्तान में लाल टोपी नाम से चर्चित जैद हामिद का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है। इस वीडियो में उसके निशाने पर मुस्लिम देश हैं। वीडियो में वह कह रहा है कि पूरी उम्मत में 100 से ज्यादा हदीस हैं। इनमें एक बहुत बड़ी दलील यह है कि इस्लाम में कौमियत की बुनियाद पर रियासतें हराम हैं। लिहाजा हम मस्लिम जगत को तबाह करना चाहते हैं, ताकि यहां खिलाफत कायम कर सकें। गजवा-ए-हिंद तो पाकिस्तान के साथ होगा, क्योंकि यह हिंद (भारत) का हिस्सा था। बिल्कुल इसी तरह बाकी मुस्लिम मुमालिक (देश) को भी तबाह करने की जरूरत है, ताकि हम खिलाफत कायम कर सकें।
कुरान में गजवा-ए-हिंद का जिक्र नहीं
गजवा उस जंग को कहते हैं, जिस जंग के सेनापति हजरत मुहम्मद साहब स्वयं थे। अब मुहम्मद साहब इस दुनिया में मौजूद नहीं हैं, तो गजवा-ए-हिंद के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। इसलिए अब जो लोग गजवा-ए-हिंद की बात करते हैं, वे निराधार हैं। जिस विद्वान के हवाले से हदीस बयान की गई है, वे मुहम्मद साहब के दुनिया से जाने के 350 साल बाद पैदा हुए थे। यानी मुहम्मद साहब से उनका सीधा संवाद नहीं हुआ था।
आज लगभग समस्त विश्व में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। बहुत कम मुल्कों में राजशाही या लोकशाही है। समस्त विश्व से हमारे राजनयिक रिश्ते हैं, चाहे वे मुस्लिम देश हों या गैर-मुस्लिम। हमारा देश एक संविधान से चलता है। हर व्यक्ति को अपनी पूजा-पद्धति और रस्मो-रिवाज को मानने की स्वतंत्रता संविधान देता है। इसलिए किसी असंवैधानिक गतिविधि को या कोई भ्रम पैदा करके उसे मुहम्मद साहब से जोड़ देना आधुनिक दौर का गलत इस्तेमाल करना है। कुरान में गजवा-ए-हिंद का जिक्र नहीं है।
मानवता-विरोधी विचारधारा के लोगों, विशेषकर पाकिस्तानी मानसिकता द्वारा गजवा-ए-हिंद की जो व्याख्या की जाती है, वह निराधार है।
वर्तमान सरकार भेदभाव रहित एवं समानता के सिद्धांत पर कार्य कर रही है। भारत निरंतर प्रगति कर रहा है। भारत की यह स्थिति कुछ असामाजिक तत्वों को स्वीकार्य नहीं है। इसलिए वे अपने गुप्त उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए गजवा-ए-हिंद की झूठी कहानी पर भरोसा कर रहे हैं, अफवाहें और गलत जानकारी फैला रहे हैं। इसलिए गजवा-ए-हिंद पर मुसलमानों को भ्रमित नहीं होना चाहिए और वे विद्वान, जो अति महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं, उन्हें किसी विचार को समाज में लाने से पहले उसके अस्तित्व को जांचना व परखना चाहिए।
1925 में तब्लीगी जमात की स्थापना हुई। 1937 में ‘शरिया एप्लीकेशन एक्ट’ लागू हुआ। 1946 में ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ और 1947 में देश का विभाजन हुआ। ये तारीखें हमें हमेशा याद रखनी चाहिए, क्योंकि यह सब कुछ द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता को पोषण देने के लिए हमारे देश में पनपा। 1937 में ‘शरिया एप्लीकेशन एक्ट’ के आने से पहले भारत का मुसलमान भारत का कानून मानता था। यह कानून ब्रिटिश और मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों को मुख्यधारा से तोड़ने और पाकिस्तान के लिए तैयार करने के लिए बनाया गया था। इस कानून का इस्लाम या पैगंबर से कोई लेना-देना नहीं है।
भारत में आज भी ऐसे बहुत से संगठन काम कर रहे हैं, जो मुसलमान बच्चों को अलगाववाद में झोंक रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि भारत के मुसलमान दारुल उलूम जैसे संगठनों के खिलाफ खुल कर आवाज उठाएं। अगर हम आज हक की बात नहीं करेंगे और सच का साथ नहीं देंगे तो हमारी आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी। हमारी चुप्पी एक तरह का मौन समर्थन है और अगर हम गलत होते हुए देख कर चुप रह जाएं तो हमें मुसलमान कहलाने का कोई हक नहीं है। हम ऐसे देश में पैदा हुए हैं, जहां कश्मीर से कन्याकुमारी तक हजारों देवी- देवता पूजे जाते हैं। आज हमारे मजहब और हमारे पैगंबर पर उंगलियां इसलिए उठ रही हैं, क्योंकि हम जाने-अनजाने अलगाववाद और कट्टरवाद का साथ दे रहे हैं। जिस दिन हमने सच का साथ देना शुरू कर दिया उस दिन से दारुल उलूम जैसे संस्थान हमारी एकता और सचाई के सामने बौने नजर आएंगे।
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