गतांक से आगे
ऋषि विश्वामित्र के साथ राम की यात्रा का अगला पड़ाव सोन नद का किनारा था। यहां वे सूर्यास्त के समय पहुंचे। रामायण में इस नद को शोणभद्र के नाम से संबोधित किया गया है। यहां संध्या में एक उपवन में उनका रुकना हुआ। तब श्रीराम ने ऋषि विश्वामित्र से इस उद्यान के बारे में पूछा। इस स्थान के सौंदर्य का वर्णन कविवर कम्ब अपनी तमिल रामायण में करीब पच्चीस पदों में करते है। इस उपवन और सोन नद तक की यात्रा के दौरान ऋषि विश्वामित्र पूर्व के कई राजाओं व ऋषियों की कथाएं सुनाते हैं।
वे राजा कुशनाभ और अपने पिता गाधि की कथा कहते है। फिर ऋषि अपनी बहन सत्यवती, जो ऋषि ऋचीक की पत्नी, की कहानी सुनातेहै। सत्यवती के स्वर्गारोहण, फिर हिमालय से कौशिकी नदी के रूप में प्रवाहित होने की बात बताते हैं। आज इसी नदी को कोसी के नाम से जाना जाता है। यहां शोणभद्र के जिस किनारे पर उन्होंने पड़ाव डाला था उसका नाम कालांतर में परेव के रूप में प्रचलित हुआ। सोन के किनारे पर मोहनेश्वर महादेव शिवालय है। इन दिनों यह स्थान सोन के पूर्व किनारे पर कोइलवर पुल के निकट है।
आगे तीनों सोन के किनारे से जग पावनी गंगा के तट पर गए। यहां सोनभद्र परवर्ती प्रदेश मगध सुमागधा इत्यादि की चर्चा आई है। सुमागधा गया नगरी का पुरातन नाम है। इस क्रम में सोन तटवर्ती प्रदेश को ऋषि विश्वामित्र ने वसुओं की भूमि बताया है। यहां प्रश्न है कि सोन पार करने पर गंगा के किनारे तक की उनकी यात्रा का क्या मार्ग था? विचार करें तो यह क्षेत्र निश्चित ही बिहटा है। पटना के निकट इस स्थान के उत्तर और पश्चिम में सोन अब भी प्रवाहमान है। बहाव में परिवर्तन से इसकी बिहटा से दूरी बढ़ी है। यहां कई बार खुदाई में पुरातात्विक महत्व की वस्तुएं प्राप्त होती रही है। भूमि के नीचे स्वर्ण आभा वाले बालू कण मिलते हैं जो सोन की विशेषता है।
गंगा नदी में उतरते ही गाधि पुत्र ऋषि विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को देवी गंगा के अवतरण की कथा सुनाई। गंगा पार करते हुए उन्होंने एक विशाल सरकंडे का वन, शरवन देखा। मिथिला भूमि में पहुंचकर उन्होंने गंगा किनारे एक रम्य उपवन में अपना डेरा डाला। यहां गंगा घाट पर राम-लक्ष्मण का मुंडन संस्कार हुआ। तदोपरांत उन्होंने ऋषियों संग स्नान किया, परंपरा का निर्वहन करते हुए दान-पूजन कार्य संपन्न किया। गोस्वामी तुलसीदास इसका वर्णन यूं करते है।
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए, बिबिध दान महिदेवन्हि पाए।
गंगा का यह घाट रामचौरा के नाम से प्रसिद्ध है, ग्राम का नाम रामभद्र है। इन दिनों यह स्थान हाजीपुर की एक बस्ती है, जबकि यहां प्रभु श्रीराम की स्मृतियों की अनुभूति हेतु गोस्वामी तुलसीदास भी आये थे। यहां रहते हुए निश्चित ही उन्होंने मानस के कई पद रचे होंगे। रामचौरा से ठीक सटा हुआ तुलसीचौरा ही उनका ठिकाना था। किंतु ये स्मृति स्थल आज उपेक्षित और अनधिकृत कब्जे के शिकार है। तमिल कम्ब रामायण में मिथिला भूमि के प्राकृतिक सौंदर्य की विस्तार से चर्चा की गई है। गंगा के इस घाट से विदेह नगर, जनकपुर पहुंचने तक का मनोरम वर्णन है।
आगे मार्ग में इक्ष्वाकु वंशजोंं द्वारा शासित ऐश्वर्य से परिपूर्ण विशालापुरी में उनका ठहरना हुआ। इन दिनों इसे वैशाली के नाम से जानते हैं। वाल्मीकि रामायण में इसके पुरातन इतिहास की सविस्तार चर्चा आई है। इस नगर का निर्माण राजा विशाल ने करवाया था। यह नगर रात्रि में दीपक के प्रकाश में स्वर्णमय नजर आता था। इसी नगर में एक संध्या ठहरकर तीनों जनकपुरी के लिए प्रस्थान करते हैं। जहां उन्होंने विश्राम किया वह स्थान वैशाली गढ़ के दक्षिण-पश्चिम कोने पर अवस्थित था। उनकी स्मृति में यहां एक मठ है जहां खुदाई में कई पुरातन देव प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। इन दिनों इस जगह को हरि कटोरा मठ कहते हैं। वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त तेलुगु रंगनाथ रामायण में भी इस स्थान का विस्तार से वर्णन किया गया है। (क्रमश:)
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