सत्य, शुचिता, धर्म और कर्म भारत के ‘स्व’ के निर्माण का आधार हैं। देश अपने प्रतीक चिन्हों को ‘स्व’ के आधार पर चुनते हैं। चीन ने ड्रैगन को चुना, क्योंकि वह आक्रमण का समर्थक है, जबकि भारत का चिन्ह गाय है, जो शांति की प्रतीक है।
गत फरवरी माह धार (म.प्र.) में ‘नर्मदा साहित्य मंथन’ की तीसरी कड़ी का आयोजन हुआ। इसका उद्घाटन प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक श्री जे नंदकुमार, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलगुरु डॉ. के. जी. सुरेशऔर पद्मश्री भगवतीलाल राजपुरोहित ने दीप प्रज्ज्वलित कर किया। इसके बाद मंथन के संयोजक डॉ. मुकेश मोढ़ ने कार्यक्रम की रूपरेखा एवं परिकल्पना की जानकारी दी।
डॉ. के. जी. सुरेश ने कहा कि राजा भोज द्वारा रचित शास्त्र पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए जीवन के प्रत्येक आयाम को समझने हेतु आदर्श है। पद्मश्री भगवतीलाल राजपुरोहित ने राजा भोज के साहित्य, शासन एवं वास्तुशिल्प पर प्रकाश डाला। मुख्य वक्ता श्री जे. नंदकुमार ने कहा कि राष्ट्र स्वयं को प्रकाश के मार्ग पर चलाने का एक उपकरण है। सत्य, शुचिता, धर्म और कर्म भारत के ‘स्व’ के निर्माण का आधार हैं। देश अपने प्रतीक चिन्हों को ‘स्व’ के आधार पर चुनते हैं। चीन ने ड्रैगन को चुना, क्योंकि वह आक्रमण का समर्थक है, जबकि भारत का चिन्ह गाय है, जो शांति की प्रतीक है।
प्रथम सत्र ‘स्व’ आधारित शिक्षा पद्धति विषय पर केन्द्रित था। भारतीय शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय सचिव श्री मुकुल कानिटकर ने कहा कि अंग्रेजों ने भारत को निरक्षर बनाने का काम किया। ‘स्व’ आधारित शिक्षा के आधार पर ही हम भारत को आर्थिक रूप से संपन्न कर पाएंगे।
द्वितीय सत्र में ‘वैश्विक परिदृश्य पर वर्तमान भारत’ विषय पर स्वामी विज्ञानानंद ने कहा कि देश के ‘स्व’ को मजबूत करने के लिए अर्थव्यवस्था, तकनीक, शिक्षा और रक्षा को मजबूत करने की आवश्यकता है।
तृतीय सत्र का विषय था-‘भारत के आत्मबोध का स्वरूप और आधार।’ सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं समाज वैज्ञानिक श्री रामेश्वर मिश्र पंकज ने कहा कि अंग्रेज भारत को लूटने के उद्देश्य से आए थे। अंग्रेजों के आने के पूर्व भारत के इतिहास में कहीं भी गुलामी का वर्णन नहीं मिलता। हमें आत्मबोध के लिए शास्त्रों की शरण में जाना होगा। चतुर्थ सत्र में ‘जनजातीय समाज भ्रम और वास्तविकता’ विषय पर शिवगंगा अभियान, झाबुआ के पद्मश्री महेश शर्मा ने कहा कि जनजातीय समाज में परोपकार की परंपरा रही है। हलमा परंपरा इसका जीवंत प्रमाण है, जिसके माध्यम से जल संरक्षण का एक बड़ा प्रकल्प झाबुआ में चल रहा है।
हमारे राष्ट्र के जीवन का आधार अध्यात्म है। राष्ट्रीय शब्द का अर्थ राष्ट्र को समझना और राष्ट्र का चिंतन करना है। हमारा ‘हम’ का दायरा इतना बड़ा है कि हम किसी को अन्य मानते ही नहीं। सत्य एक है, और इसे पाने के मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं। यह भारत का विचार है, यही भारत की विशेषता है। उन्होंने कहा कि धर्म को अंग्रेजी में भी धर्म ही कहना चाहिए। धर्म को ‘रिलीजन’ कहना उचित नहीं है। ‘रिलीजन’ का अर्थ उपासना पद्धति होना चाहिए। मुख्य अतिथि देवी अहिल्या विश्वविद्यालय की कुलगुरु डॉ. रेणु जैन ने कहा कि ऐसे आयोजनों से युवाओं की रचनात्मकता को एक बड़ा मंच मिलता है।
– डॉ. मनमोहन वैद्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह
मंथन के दूसरे दिन का प्रारंभ ‘हेरिटेज वाक’ से हुआ। इसमें मुख्य रूप से विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष श्री आलोक कुमार, पाञ्चजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर एवं सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री अश्विनी उपाध्याय सम्मिलित हुए। इनके साथ भोजपर्व में शामिल हुए प्रतिभागियों ने विजय मंदिर के इतिहास को जाना एवं प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त की। इसके बाद सत्र प्रारंभ हुए। प्रथम सत्र में श्री आलोक कुमार ने कहा कि राम जी के राज्य में धर्म आधारित जीवन था। पुलिस और कानून समाज के संबंधों का निर्धारण नहीं कर सकते।
द्वितीय सत्र में ‘संविधान से राम राज्य का मार्ग’ विषय पर पद्मश्री रमेश पतंगे ने संविधान की मूल भावना पर प्रकाश डालते हुए कहा कि सामाजिक समरसता के साथ ही रामराज्य की कल्पना की जा सकती है।
तृतीय सत्र में श्री अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि भारत में अभी गुलामी की मानसिकता वाली शिक्षण व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, पुलिस व्यवस्था एवं कार्यपालिका चल रही है, इसे बदलने की आवश्यकता है।
चतुर्थ सत्र में विवेकानंद केंद्र की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद्मश्री निवेदिता रघुनाथ भिड़े ने दैनिक जीवन में अध्यात्म विषय पर अपने विचार रखे। पांचवें सत्र में श्री हितेश शंकर ने कहा कि आपदा के समय मंदिर न सिर्फ संबल प्रदान करते हैं, बल्कि संसाधन भी प्रदान करते हैं। मंदिर आर्थिक तंत्र के साथ-साथ पर्यावरण को भी मजबूत करते हैं। अंतिम सत्र में श्रीमती कुमुद शर्मा ने साहित्य और शिक्षा में भारतीयता विषय पर अपना वक्तव्य दिया।
मंथन के तीसरे दिवस के प्रथम सत्र का विषय था-लोक संस्कृति की परंपरा। इस पर साहित्यकार डॉ. श्रीराम परिहार ने कहा कि लोक संस्कृति मानव जीवन जितनी ही पुरानी है। जब तक गांव जीवित रहेंगे, तब तक हमारी लोक संस्कृति जीवित रहेगी। ‘शिवाजी महाराज के सपनों का भारत’ विषय पर धर्म संस्कृति संगम केंद्र, काशी के समन्वयक श्री संदीपराव महिंद ने कहा कि शिवाजी महाराज ने अपने शासनकाल में देश से गुलामी के सभी चिन्हों को मिटाने का कार्य किया। आज देश में स्थित समस्त ऐसे कलंकों को ध्वस्त करने की आवश्यकता है। तृतीय सत्र में ‘हिंदू नरसंहार’ विषय पर श्रीमती शैफाली वैद्य ने अपने विचार रखे। चौथे सत्र में वरिष्ठ लेखक और पत्रकार श्री अनंत विजय ने ‘समाज की भावनाओं से खिलवाड़ करता सिनेमा’ विषय पर अपने विचार रखे।
समापन सत्र के मुख्य वक्ता थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. मनमोहन वैद्य। उन्होंने कहा कि हमारे राष्ट्र के जीवन का आधार अध्यात्म है। राष्ट्रीय शब्द का अर्थ राष्ट्र को समझना और राष्ट्र का चिंतन करना है। हमारा ‘हम’ का दायरा इतना बड़ा है कि हम किसी को अन्य मानते ही नहीं। सत्य एक है, और इसे पाने के मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं। यह भारत का विचार है, यही भारत की विशेषता है। उन्होंने कहा कि धर्म को अंग्रेजी में भी धर्म ही कहना चाहिए। धर्म को ‘रिलीजन’ कहना उचित नहीं है। ‘रिलीजन’ का अर्थ उपासना पद्धति होना चाहिए। मुख्य अतिथि देवी अहिल्या विश्वविद्यालय की कुलगुरु डॉ. रेणु जैन ने कहा कि ऐसे आयोजनों से युवाओं की रचनात्मकता को एक बड़ा मंच मिलता है।
इस अवसर पर विश्व संवाद केंद्र, मालवा के अध्यक्ष श्री दिनेश गुप्ता, नर्मदा साहित्य मंथन के सह संयोजक श्री शंभु मनहर आदि उपस्थित थे।
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