‘अश्वमेध’ राष्ट्र उपासना की सर्वाधिक प्रचलित प्रक्रिया थी, जिसका अनुष्ठान शासक श्रोत्रिय (मनीषी) एवं जन समूह सभी मिल-जुलकर करते थे। इसी के द्वारा न केवल राजनीतिक क्षितिज पर, बल्कि आर्थिक, बौद्धिक और सामाजिक दायरों में विकास के मापदंड स्थापित किए गए।
प्रख्यात इतिहासकार ए.एल. बाशम ने अपनी पुस्तक ‘द वंडर देट वाज इंडिया’ (भारत जो आश्चर्य था) में लिखा है, ‘‘यदि कहीं के निवासियों ने अपने राष्ट्र को जीवंत, जाग्रत और उपास्य माना है तो वह भारत है।’’ उनके अनुसार ‘अश्वमेध’ राष्ट्र उपासना की सर्वाधिक प्रचलित प्रक्रिया थी, जिसका अनुष्ठान शासक श्रोत्रिय (मनीषी) एवं जन समूह सभी मिल-जुलकर करते थे। इसी के द्वारा न केवल राजनीतिक क्षितिज पर, बल्कि आर्थिक, बौद्धिक और सामाजिक दायरों में विकास के मापदंड स्थापित किए गए।
शतपथ ब्राह्मण (12/1/2/9/) में अश्वमेध के इसी स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है, ‘श्री वै राष्ट्रं। राष्ट्रं वै अश्वमेध: तस्मात् राष्ट्री अश्वमेधेन् यजेत्। सर्षा: वै देवता:। अश्वमेधे अवयता:। तस्मात् अश्वमेधे थाजी सर्व दिशो अभिजयन्ति।’अर्थात् वर्चस्व ही राष्ट्र है। राष्ट्र ही अश्वमेध है। राष्ट्र-परायण अश्वमेध का संयोजक सर्व-विजयी होता है। यजुर्वेद संहिता के 18 वें अध्याय के 22वें मण्डल के मंत्र ‘अग्निश्चमे … अश्वमेधश्चमे … यज्ञेन कल्पन्ताम्’ में राष्ट्र को अखंडित होकर रहने की बात कही गई है। इसके अनुसार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान राष्ट्र की अखंडता के लिए किया जाता था।
अश्वमेध का अर्थ है अमृतवर्षा-अनुग्रहवर्षा। शास्त्रकारों ने अश्वमेध को परम पुरुषार्थ कहा है। सामान्य पुरुषार्थ का दायरा भौतिक स्तर तक सीमित है। इसे नियंत्रित करने वाली दैवी शक्तियां प्रारब्ध विधान यदि अनुकूल न हों तो सारे प्रयास मिट्टी में मिल जाते हैं। यही कारण है कि सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने पुरुषार्थ जैसी अमोघ दैवी शक्तियों को अनुकूल बनाने में सक्षम तप-साधनाओं, नए भाग्य विधान गढ़ने में समर्थ आध्यात्मिक प्रक्रियाओं की रचना की और उन्हें उच्चतर पुरुषार्थ कहा।
अश्वमेध की प्रक्रिया कुछ ऐसी ही अलौकिक और अनुपम है। इसमें अगणित पुण्यकाल भरे हैं। अत्रि स्मृति में इसी कारण अश्वमेध को ‘सर्व कामधुक्’ अर्थात् सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला कहा गया है। स्मृतिकार का कहना है-
अश्वमेधेन हविषा तृप्ति मायान्ति देवता:।
तस्तृप्ता र्स्पथत्येन नरस्तृप्त: समृद्धिभि:॥
अर्थात् अश्वमेध में हवि का हवन करने से देवताओं की तृप्ति होती है। तृप्त होकर देवता मनुष्य को इच्छित समृद्धि प्रदान कर संतुष्ट करते हैं। ‘विष्णु धर्मोत्तर पुराण’ के अनुसार अश्वमेध यज्ञ में अग्नि को संस्कारित कर उसमें श्रद्धा, भावना के साथ जो भी आहुति दी जाती है, उसे देवता ग्रहण करते हैं। देवताओं का मुख अग्नि है, इसीलिए देवता यज्ञ से प्रसन्न होकर यज्ञकर्ता की कामनाओं की पूर्ति करते हैं। ‘विष्णु धर्मोत्तर पुराण’ में हंस जी हवन विधि का वर्णन करते हुए ऋषियों से कहते हैं-
अग्निर्मुख देवतानां सर्वभूत परायणम्।
तस्यशुश्रुणादेव सवार्कामान्समश्नुते॥
अर्थात् सर्वभूत परायण देवताओं का मुख अग्नि है। देवताओं की सेवा-शुश्रूषा करने से ही सब कामनाओं की प्राप्ति होती है। आपस्तम्ब स्मृति के अनुसार जिस स्थान पर अश्वमेध यज्ञ संपन्न होता है, वहां समस्त देवता, सारे तीर्थों की चेतना पूंजीभूत होती है। इसलिए वहां जाने मात्र से गंगा, यमुना, कावेरी, कृष्णा,गोदावरी आदि नदियों में स्नान का पुण्य और गया, काशी, द्वारका आदि तीर्थों में जाने का प्रतिफल प्राप्त होता है। महाभारत में व्यास जी युधिष्ठिर को इसका माहात्म्य समझाते हुए कहते हैं-
अश्वमेधों हि राजेन्द्र पावन: सर्व पाप्यनाम्।
तेनेष्ट्य त्वं विपाणा वै भविता मात्र संशय॥
हे राजन्, अश्वमेध यज्ञ समस्त पापों का नाश करके यजमानों को पवित्र बनाने वाला है, उसका अनुष्ठान करके तुम पाप मुक्त हो जाओगे। आश्वलायन (16/61) के अनुसार सभी पदार्थों के इच्छुकों, सभी विजयों के अभिलाषियों तथा अतुल समृद्धि के आकांक्षियों को अश्वमेध यज्ञ अवश्य करना चाहिए। ऋषि गोभिल कहते हैं कि अश्वमेध यज्ञ में हवन की जाने वाली दिव्य औषधियों, दिव्य मंत्रों के सम्मिलित प्रभाव से याजकों में मेधा-प्रतिभा का जागरण होता है। रोगों का नाश होकर आयु बढ़ती है।
जिस क्षेत्र में अश्वमेध यज्ञ संपन्न होता रहा है, वहां के निवासियों को यही समझना चाहिए कि उनके जन्म-जन्मांतर का पुण्य इस रूप में प्राप्त हो रहा है। इस यज्ञ में भाग लेना, यज्ञ स्थान की परिक्रमा करना किसी भी तरह यज्ञायोजन में अपने समय और श्रम को नियोजित करना उपरोक्त शास्त्र वर्णित इन महान पुण्य फलों का प्रदाता सिद्ध होगा, ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। इसी विश्वास और लोक कल्याण की भावना के साथ सभी जाल-जंजालों को एक किनारे करके अपने क्षेत्र में होने वाले अश्वमेध आयोजन में पूरे उत्साह और उमंग के साथ बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए।
यज्ञों का राजा-अश्वमेध यह है। जिस यज्ञ को ‘भुवनस्य नाभि:’ ब्रह्मांड की नाभि कहा गया है, वह श्रेष्ठतम कर्म-दिव्य पुरुषार्थ के रूप में प्रत्येक क्षेत्र में संव्याप्त है। प्रथम यज्ञीय पुरुषार्थ सृष्टि की रचना के समय ही हुआ था। कथा सर्वविदित है-विष्णु की नाभि से कमलनाल निकली। उसके विकास से कमल खिला। उस कमल में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा प्रकट हुए और सृष्टिक्रम चल पड़ा। यह एक आलंकारिक वर्णन है, जिसमें प्रथम यज्ञीय पुरुषार्थ का आभास कराया गया है।
यज्ञ को ‘भुवनस्य नाभि’ कहने से स्पष्ट हो जाता है कि जिसमें से कमल एवं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई, वह दिव्य नाभि यज्ञ ही है। यज्ञीय पुरुषार्थ की कर्मवल्लरी आगे बढ़ी, उसके अंगोपांग कमल की पंखुड़ियों के रूप में विकसित हुए। उस विकास प्रक्रिया से जो कल्याणकारी-यज्ञीय सृजन शक्ति उभरी उसे सृष्टा-ब्रह्मा की संज्ञा दी गई। इस प्रकार प्रकट हुई युगीय सृष्टि के संतुलन और विकास के लिए यज्ञीय अनुशासन एवं पुरुषार्थ की जाग्रत-विकसित बनाए रखने की बात कही गई। इस निर्देश का पालन हुआ। सूर्य, चंद्र, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी सभी युगीय क्रम अपना कर सृष्टि का पोषण रक्षण एवं विकास करने लगे।
समुद्र, मेघ, पर्वत, नदियां, वनस्पतियां, वृक्षादि सभी यज्ञीय अनुशासन के अनुगामी हुए। पशु, पक्षी, कृमि-कीटक भी अपनी-अपनी क्षमतानुसार प्रकृति के सहयोग (संगतिकरण) रूप यज्ञीय क्रम में लग गए। सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य ने भी दिव्य अनुशासन का अनुगमन (देव पूजन रूप में) किया। परस्पर प्रेम-सहयोगपूर्वक रहकर संगतिकरण को सिद्ध किया। अपने करुणामूलक प्रयासों से जीव दया-दानादि का क्रम चलाया। इस प्रकार यज्ञीय जीवन-क्रम की फलश्रुति के रूप में सतयुगी वातावरण का दिव्य अनुदान उसे लंबे समय तक मिलता रहा।
काल प्रवाह में मनुष्य युगीय अनुशासन से विचलित होने लगा, तो यज्ञीय अनुशासन के प्रशिक्षण एवं अभ्यास को बनाए रखने के लिए अनेक यज्ञीय कर्मकांडों का विकास हुआ। विचलित जनमानस एवं विशृंखलित समाज को पुन: यज्ञीय अनुशासन में लाने के अनेक सफल प्रयोग समयानुरूप होते रहे। जैसे- देव-वृत्तियों के विकास के लिए देवयज्ञ, मनुष्यों, अतिथियों को स्नेह-सम्मान देने के लिए ‘नृयज्ञ’, अगणित जीव-जंतुओं के पोषण के लिए यज्ञ-बलिवैश्व यज्ञादि का क्रम चला। पोषक प्रवृत्तियों के विकास के लिए विष्णु यज्ञ, मनुष्य जागरण के लिए रुद्रयज्ञ, अनाचार दमन के लिए चंडी यज्ञ आदि किए जाते रहे हैं। उपयोगी पशुधन के संवर्धन के लिए गो मेध, अजमेध आदि प्रयोग होते थे। बाद में मेध शब्द का कुटिलतापूर्ण दुरुपयोग किया जाने लगा। वैसे मेध यज्ञ का ही पर्याय है।
व्यापक रूप से यज्ञीय प्रयोगों में समाज में सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन के लिए वाजपेय, राजनीतिक अनुशासन स्थापित करने के लिए राजसूय यज्ञ तथा समग्र राष्ट्र को संगठित सशक्त एवं प्रगतिशील बनाने के लिए अश्वमेध आदि यज्ञों का वर्णन मिलता है। अश्वमेध को इन यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ-यज्ञों का राजा कहा गया है। उक्त विवरण से स्पष्ट है कि यह अश्वमेध यज्ञानुष्ठान कोई सामान्य कर्मकांड नहीं है। यह किसी राजा की राज्य-लिप्सा की पूर्ति करने के लिए किया गया अहंकारी कृत्य भी नहीं हो सकता। इस महान यज्ञीय अनुष्ठान का स्वरूप तो ऋषियों की दृष्टि का अनुगमन करके ही समझा जा सकता है। यहां उस संदर्भ में एक-एक बिंदु पर विचार किया जा रहा है।
अश्व का प्रचलित अर्थ ‘घोड़ा’ ले लिया जाता है। सांसारिक अर्थों में यह ठीक भी है, किंतु यज्ञीय विशिष्ट संदर्भ में तो उसकी मौलिक व्याख्या तक जाना ही पड़ेगा। अश्व की शब्द व्युत्पत्ति पर ध्यान दें-अश्+ववन् अश्नुते, अध्वानम्, अश्नुते व्याप्नोति, अर्थात्-तीव्रगति वाला, मार्ग पर व्याप्त हो जाने वाला। महाशनो भवति वा अश्व: बहु अश्नातीति इति अश्व:। इसके अनुसार अधिक मात्रा में आहार करने वाला अश्व है। उक्त गुणों के कारण घोड़े को अश्व संज्ञा दी गई है। घोड़े के लिए प्रयुक्त अन्य संज्ञाओं में भी ऐसे ही अर्थ सन्निहित हैं, जैसे-अत्य-अतति गह्यदति गतिशल। हय: -हयति-गह्यछति, अर्वा-गमनशील चंचल आदि।
शास्त्रों ने ‘अश्व’ को गुणवाचक संबोधन के रूप में ही लिया है। मात्र जाति वाचक संज्ञा तक उसे सीमित नहीं रखा है। नीचे दिए गए उद्धरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। ‘इन्द्रौ वै अश्व:’ (कौषीतकी ब्राह्मण, 15/4) के अनुसार इंद्र ही अश्व है। ‘सौर्य्यो वा अश्व:’ (गोपथ ब्राह्मण) के अनुसार सूर्य का सूर्यत्व (तेज) ही अश्व है। वेदों में अनेक स्थानों पर यज्ञाग्नि को अश्व कहा गया है। ऋग्वेद के मंत्र (1/16/2) में कहा गया है- ‘गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं बसवों निरतष्ट।’
अर्थात्-अश्व सूर्य का प्रतीक है। वसुओं ने यज्ञीय अश्व (अग्नि को) सूर्य से प्रकट किया है। शतपथ ब्राह्मण के एक मंत्र की व्याख्या करते हुए ऋषि दयानंद ने ईश्वर को अश्व माना है-‘अश्वतो यत ईश्वरी वा अश्व:, अश्नुते व्याप्नोति सर्वं जगत्सोऽश्व ईश्वर:।’ अर्थात् सारे संसार में संचारित होकर संव्याप्त होने वाला अश्व ईश्वर है। उक्त शास्त्रीय उद्धरणों पर ध्यान देने से पता चलता है कि अश्व शब्द का अर्थ केवल घोड़ा मान लेना अपने अज्ञान के कारण ही संभव होता है। इसी पूर्वाग्रहयुक्त मान्यता के कारण अनेक भ्रांतियां उत्पन्न होती हैं।
मेध को भी समझें। मेध शब्द यज्ञ का पर्यायवाची है। उसका एक अर्थ वध भी होता तो है, किंतु शास्त्रों ने उस अर्थ में उसका प्रयोग वर्जित किया है। तैत्तरीय ब्राह्मण में कहा गया है-राष्ट्रवा अश्वमेध:। परा वा एष सिह्ययते॥ अर्थात् अश्वमेध ही राष्ट्र है। जो सार्वभौम क्षमता संपन्न हो वही अश्वमेध संपन्न करें। मेध का अर्थ बुद्धि, शक्ति, बल, बुद्धिबल आदि कहे गए हैं। इसे यज्ञ, अर्पण, रस, सार, पवित्र आदि अर्थों में भी प्रयुक्त किया जाता है।
अश्व गतिशीलता का, शौर्य का, पराक्रम का और मेधाशक्ति, श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता का प्रतीक होने से अश्वमेध का सहज अर्थ होता है- शौर्य-पराक्रम तथा कल्याणकारी मेधाशक्ति का संयोग-संगम। अश्व को क्षात्र शक्ति एवं मेध को ब्रह्म वृत्ति का प्रतीक मानने से उनका संयोग एक पवित्र एवं महान यज्ञ कर्म बनता है। उत्कृष्ट विचार शक्ति एवं श्रेष्ठ प्रयोजनों के लिए समर्पित पुरुषार्थ के योग से ही आदर्श समाज एवं राष्ट्र की रचना हो सकती है। इसीलिए राष्ट्र निर्माण को अश्वमेध कहा गया है।
इतना सब ध्यान में रखने पर यह बात समझ में आ सकती है कि अश्वमेध यज्ञ को क्यों इतना महान एवं दुष्कर प्रयोग कहा गया है? इसे क्यों सब प्रकार के फल देने वाला, यज्ञों का राजा कहा गया है? इसका इतना अधिक महत्व होने पर भी इसे करने का साहस विरले ही जुटा पाते हैं। दिव्य मेधा एवं दिव्य पुरुषार्थ को जाग्रत करके, उन्हें संयुक्त करके राष्ट्रव्यापी स्तर पर यज्ञीय जीवनक्रम से जन-जन को जोड़ देना ऐसा भारी दायित्वपूर्ण कार्य है, जिसे कोई असामान्य रूप से प्रखर तंत्र ही उठा सकता है।
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