छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक को 350 वर्ष पूरे हुए हैं। रायगढ़ किला में 6 जून, 1674 को राज्याभिषेक के साथ भारत की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और स्वतंत्रता आंदोलन के संचालन को नई शक्ति मिली। 1645 में जब उनकी आयु 15 वर्ष थी, तब बालक शिवाजी द्वारा हिंदवी स्वराज्य की नींव डाली गई थी। राज्याभिषेक के बाद जब वह भूपति (छत्रपति) बने और हिन्दू समाज खुद को सुरक्षित और गौरवान्वित महसूस कर रहा था। वही हिंदवी स्वराज्य आज विश्व पटल पर भारत की छवि को निखार रहा है।
शिवनेरी किले में 19 फरवरी 1630 को जन्मे छत्रपति शिवाजी महाराज बाकी राजाओं से अलग थे। छत्रपति बुद्धिमान, पराक्रमी, दूरदृष्टा और दार्शनिक राजा थे। मुगल शासकों का हिंदू समाज पर किया जा रहा अत्याचार शिवाजी के बाल मन को आहत कर रहा था। वहीं हिंदवी स्वराज्य अंकुरित हुआ, जो आगे चलकर वट वृक्ष की तरह फैला। हिंदवी स्वराज्य का आशय था हिन्दुओं का अपना राज। देश में पहली बार जाति, धर्म से अलग मानव समाज अन्याय के खिलाफ एकजुट हुआ। हिंदवी स्वराज सही मायने में जनता का बनाया गया राज्य था।
प्रतिकूल परिस्थिति में भी छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिस तरह से अपना लक्ष्य पूरा किया। वह हमें एकजुटता के साथ संकल्पित होकर कार्य करने की प्रेरणा देता है। छत्रपति शिवाजी महाराज का गौरवपूर्ण जीवन हमें और भी कई बातें सिखाता है। उनसे हमें यह सीख भी मिलती है कि हमेशा बड़ी सोच लेकर चलना चाहिए। बड़ी सोच हर बाधा को पार करने की समझ पैदा करती है। तभी तो 16 वर्ष की उम्र में तोरणा का किला जीतकर वह हिन्दू समाज के मन में हिंदवी स्वराज्य का विश्वास पैदा कर पाए। छत्रपति शिवाजी महाराज ने जब मुगलों से यह किला छीना तब ना उनके पास पर्याप्त अनुभव था ना पर्याप्त सैन्य शक्ति थी। ना ही वित्तीय संसाधन था। लेकिन उनके पास समाज की एसी शक्ति थी, जिसने सह्याद्रि की दुर्गम पगडंडियों में भी नया रास्ता बनाने का काम किया। उन्होंने हर परिस्थिति में हिंदवी स्वराज्य के संकल्प को पूरा करने का लक्ष्य इसलिए हासिल किया क्योंकि उनकी इच्छाशक्ति बहुत दृढ़ थी। छत्रपति शिवाजी महाराज से हमें सीख मिलती है कि आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छाशक्ति से असंभव काम को भी संभव बनाया जा सकता है।
राज्य विस्तार के स्थान पर स्वराज्य का जज्बा
छत्रपति शिवाजी महाराज कुशल संगठक थे। अपनी सूझबूझ और बुद्धिमत्ता से उन्होंने मुगलों के खिलाफ ईमानदार लोगों की ऐसी फौज तैयार की, जिनके मन में राज्य विस्तार के स्थान पर स्वराज्य का जज्बा था। उनकी सेना का हर सैनिक किसी ना किसी क्षेत्र में सिद्धहस्त था। शिवाजी महाराजा गुण और योग्यता के अनुसार कार्य देते थे। उनके साथ हम्बीर राव मोहित्य जैसा सेनापति, बहिरजी नाइक, कान्होजी जैसा गुप्तचर, सरदार आंग्रे जैसे कवच प्रमुख के अलावा भीम जैसा लुहार था, जिसके द्वारा गढ़े गए घातक हथियार की मार से कोई बचता नहीं था। छत्रपति शिवाजी महाराजा की संगठन शैली आज भी प्रासंगिक है। आज के हिसाब से कहें तो सही कार्य के लिए सही व्यक्ति और सही व्यक्ति के लिए सही काम काफी महत्वपूर्ण होता है।
हिंदवी स्वराज्य का किया विस्तार
छत्रपति बनने के बाद भी शिवाजी महाराज ने मेहनत में कोई कोताही नहीं बरती। यह वह कालखंड था, जब केवल मुगल नहीं, बल्कि यूरोपीय उपनिवेशवादी, अंग्रेज, डच, फ्रांसीसी विस्तार की नीति लेकर भारत में कब्जा जमाने की फिराक में थे। मुगल शासकों में गोलकोंडा की कुतुब शाही, बीजापुर की आदिल शाही, औरंगजेब की सेना हिन्दुओं पर आक्रमण करते हुए राज्य विस्तार की लालसा लिए बढ़ रही थी। इस विपरीत परिस्थिति में भी उन्होंने कड़ी मेहनत और कूटनीति से संधि और संग्राम का रास्ता अपनाकर हिंदवी साम्राज्य को विस्तार दिया और मुगलों के कब्जे से 370 किले जीतने के अलावा कई किलों का निर्माण कराया।
कार्यप्रणाली में अनुशासन और संयम
छत्रपति शिवाजी महाराजा जानते थे कि हिंदवी स्वराज्य की स्थापना केवल युद्ध लड़कर नहीं की जा सकती। उनकी कार्यप्रणाली में अनुशासन और संयम की श्रेष्ठता थी। यही कार्य व्यवहार हिंदवी स्वराज्य को मजबूती प्रदान करने में सहायक साबित हुआ। शिवाजी महाराज का अनुशासन इतना कठोर था कि वह न्याय करते समय रिश्ता नहीं देखते थे। उन्होंने संभाजी मोहिते, सखोजी गायकवाड़ जैसे रिश्तेदारों को भी सजा सुनाने में भेदभाव नहीं किया। नेताजी पालकर का जनरल पद से निष्कासन के अलावा अपने पुत्र शंभू राजा को भी गलती की सजा देने से नहीं हिचके। वह कहते थे कि स्वराज्य तभी टिकेगा जब अपने-पराये की भावना के बिना शासन होगा। हिंदवी स्वराज्य के लिए उन्होंने प्रशासनिक प्रबंधन के साथ सामाजिक समरसता, न्यायायिक व्यवस्था, कृषि और व्यापार नीति, धार्मिक सौहार्द, कठोर कर प्रणाली का सरलीकरण, स्थानीय भाषा को महत्व दिया और दुश्मनों से मुकाबला के लिए अपनी सेना के आधुनिकीकरण का कार्य प्रमुखता से किया था। छत्रपति शिवाजी महाराज ने सिखाया कि बड़े लक्ष्य के लिए कड़ा अनुशासन जरूरी है।
स्वयं के लिए भी समझौता नहीं
उन्होंने स्वयं के लिए कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जो उनके हिंदवी स्वराज्य के लक्ष्य में भटकाव लाए। वह चाहते तो बीजापुर के सुल्तान से समझौता करके बड़ा ओहदा हासिल कर सकते थे। मुगल बादशाह औरंगजेब से समझौता करके ठाठ का जीवन गुजार सकते थे। लेकिन उनका ध्येय तो हिन्दुस्तान की जनता को हिन्दुस्तान देना था। इसलिए उन्हें क्या उनके किसी सैनिक को भी कोई किसी मूल्य पर नहीं खरीद पाया। क्योंकि शिवाजी महाराज का लक्ष्य सभी का लक्ष्य बन चुका था।
हर अभियान में शामिल हुए
छत्रपति शिवाजी महाराज कुशल राजनीतिज्ञ के साथ वीर योद्धा भी थे। इसलिए अपने साथियों के आग्रह के बावजूद आगे रहकर जोखिम उठाया। अपनी जान जोखिम में डाल कर हर अभियान में शामिल हुए। छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर नजर डालें तो पता चलता है कि वे हमेशा दूरगामी सोच लेकर चले। मुगल औरंगजेब से मिलने आगरा जाना। शाहिस्ता खान से लाल महल और प्रताप किला छीनना। अफजल खान की कुटिल चाल को विफल करना। शिवाजी महाराज की कार्यशैली से प्रेरणा मिलती है कि सूझबूझ के साथ उठाए गए जोखिम भरे कदम सफलता की तरफ ले जाते हैं।
कुरीतियों का किया विरोध
छत्रपति शिवाजी महाराज की कार्य पद्धतियां सबसे अलग थीं। हिंदवी स्वराज्य के लिए जो सुधार, बदलाव जरूरी थे, उन्होंने समय के अनुसार उनमें बदलाव किए। वह कुरीतियों के विरोधी थे, तभी पिता शाहजी की मृत्यु के बाद शिवाजी महाराज ने माता जीजाबाई को सती होने से रोका था। शिवाजी महाराजा ने समय की जरूरत को समझा और मराठों की पहली नौसेना तैयार की थी। उन्होंने हर कार्य को समय की जरूरत के हिसाब से बदला या बनाया था।
महिलाओं का उचित सम्मान
छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में महिलाओं को उचित सम्मान दिया गया था। घरेलू कामकाज के अलावा महिलाओं को पहली बार युद्ध का प्रशिक्षण देने का काम किया गया था। तब की परम्परा में जीता हुआ धन और स्त्री राजा को सौपी जाती थी, लेकिन शिवाजी ने इस परम्परा को बदला और स्त्रियों को उनका सम्मान देते हुए अच्छे और चरित्रवान राजा होने का उदाहरण प्रस्तुत किया था।
जनता का राज
वह चाहते तो अन्य शासकों की तरह अपनी शासन की व्यवस्था कर सकते थे, लेकिन उनका उद्देश्य था जनता को इस बात का अहसास होना चाहिए कि यह उनका स्वराज्य है। इसके लिए उन्होंने प्रशासनिक व्यवस्था के लिए अष्टप्रधान मंडल की स्थापना की। घुड़सवार सेना, पैदल सेना के साथ-साथ तटीय सुरक्षा के महत्व को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सेना का शस्त्रागार बढ़ाया। राजाओं द्वारा अनुशासित प्रशासनिक व्यवस्था वाला एक सक्षम और प्रगतिशील नागरिक समाज बने इसकी नींव उन्होंने रखी। मुगलों द्वारा ध्वस्त किए गए मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। उन्होंने प्राचीन हिंदू राजनीतिक परंपराओं, न्यायिक प्रक्रियाओं को पुनर्जीवित किया। शिवाजी महाराज ने स्वराज्य को हिन्दवी स्वराज्य नाम दिया। आज के राजनीतिक परिदृश्य पर छत्रपति शिवाजी महाराज की शासन व्यवस्था को जानते हुए यह देखा जा सकता है कि धार्मिक प्रशासन से न्यायपूर्ण एवं समाजोन्मुख व्यवस्था स्थापित की जा सकती है।
‘रयत यानी जनता के राजा’ की उपाधि
छत्रपति शिवाजी ‘रयत यानी जनता के राजा’ की उपाधि धारण करने वाले पहले राजा थे। वे हमेशा कहते थे, यह राज्य लोगों ने लोगों के लिए बनाया है। उन्होंने जनता का धन जनता के कार्य पर खर्च हो इस व्यवस्था को लागू किया। इसलिए वह राजकोष के स्थान पर ट्रस्ट की शुरुआत की। उनका यह भाव शासन व्यवस्था में लगे हर व्यक्ति के मन में था। 3 अप्रैल 1680 को शिवाजी देवलोक गमन कर गए, लेकिन उनकी प्रेरणा से मराठा साम्राज्य का विस्तार महाराष्ट्र से निकल कर अटक से कटक तक फैला था। उनका हिंदवी स्वराज्य भारत का प्राणवायु बनकर आज भी हर नागरिक के मन में जीवित है।
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