22 जनवरी को श्रीरामलला मंदिर से लौटे। सरयू जी को प्रणाम कर, आचमन कर, सरयू जी की परमपावन माटी प्रसाद रूप में एकत्र कर मैं उसके तट पर खड़ा ही रह गया, शब्दहीन था मैं, मन शब्दातीत। दृश्य अनिर्वचनीय। कालजयी सरयू के समक्ष मैं क्या कहूं? इसने सिया राम-लखन लाल का वनवास देखा, रावण विजय के बाद राम आगमन भी देखा।
दु:ख, पीड़ा और असह्य वेदना से अश्रु विगलित सरयू से हर्षित, मुदित, सुमंगला आनंदाश्रुओं से भीगी सरयू, शोक के अंधकार में डूबी सन्नाटा ओढ़े सरयू से लक्षावधि दीपों से जगमगाती, उत्फुल्ल, प्रसन्नमना सरयू। इन तैंतीस वर्ष में इन आंखों ने दोनों दृश्य देखे। ‘अयोध्या के हत्यारों को समेटे हुए’, यही था पाञ्चजन्य का शीर्षक, जब हमने कारसेवकों के नरसंहार पर वृत्त छापा था और अब देखा अयोध्या के रक्षकों को, जिनकी चरण-धूलि अयोध्या जी से समेट कर हम 22 जनवरी को श्रीरामलला मंदिर से लौटे। सरयू जी को प्रणाम कर, आचमन कर, सरयू जी की परमपावन माटी प्रसाद रूप में एकत्र कर मैं उसके तट पर खड़ा ही रह गया, शब्दहीन था मैं, मन शब्दातीत। दृश्य अनिर्वचनीय। कालजयी सरयू के समक्ष मैं क्या कहूं? इसने सिया राम-लखन लाल का वनवास देखा, रावण विजय के बाद राम आगमन भी देखा। इसने बाबर के मीर बाकी का क्रूर कृत्य भी देखा, लाखों हिंदुओं का बहा रक्त भी सहा। मुलायम सिंह के क्रूर शासन में कारसेवकों का बहा रक्त अपनी लहरों से पोंछा, अयोध्या जी की गलियों में गूंजी गोलियों की आवाज भी सुनी, और अब चतुर्दिक दीपों की असीम पंक्तियां, रामभक्तों की अटूट जयश्री राम ध्वनि, हनुमानगढ़ी में हनुमान चालीसा, देश ही नहीं, विश्व के कोने-कोने से आए रामभक्तों के चरणों की मंगल पदचाप, अपने तट पर भजन, कीर्तन, देश के हर चैनल द्वारा किए जा रहे चर्चा सत्र, शिखरस्थ कलाधर्मियों के श्रीराम चरणानुरागी कार्यक्रम, हर कोई अपनी सर्वश्रेष्ठ नृत्य प्रस्तुति, गायन श्री राम चरणों में अर्पित करने को लालायित।
राम मंदिर विरोधी मांगें क्षमा
हर्ष और आनंद के साथ आंसू पोंछते हुए, रुंधे गले से रामभक्तों को दुलारते हुए हलके से स्नेह के साथ कहे गए सरयू मैया के ये शब्द मैंने सुने- इतनी देर क्यों कर दी? जो अपना था उसको ही प्राप्त करने में 500 वर्ष? यही प्रश्न मैंने पुण्यश्लोक स्वामी गोविंद देव गिरि जी के समक्ष रख दिया। वे अयोध्यापति रघुवर के अनन्य सेवक, सरस्वती के साक्षात् पुत्र और वेदाध्ययन से सम्पोषित प्रज्ञा के स्वामी हैं। एक क्षण विराम के बाद बोले, 500 वर्ष पूर्व बाबर ने मंदिर तोड़ा, उसे पुन: प्राप्त करने में इतनी देरी क्यों हुई, इसकी टीस मेरे अंत:करण में भी है। जैसे इस मंदिर को तोड़ा गया वैसे ही अनेक मंदिरों का ध्वंस हुआ। हमारा राष्ट्राभिमान और आसेतु हिमाचल भारत एक है, इस राष्ट्रीय दृष्टि का अभाव इसका कारण है।
हमारे यहां न तो कभी प्राकृतिक संसाधनों की कमी रही और न ही बौद्धिक संपदा की। हमारे लोगों की वीरता भी अद्वितीय रही है। बस एक बात की कमी थी और वह थी राष्ट्रीय दृष्टि। मुगल सेना हमारे विरुद्ध लड़ती थी तो उसमें भारतीय सैनिक ही होते थे। छत्रपति शिवाजी की माता जीजाबाई ने बालक शिवाजी को यही बात बार-बार बताई थी, ये मुगल हमारे ही लोगों को हमारे विरुद्ध लड़ाते हैं। आज मराठा, मराठा को क्यों मार रहा है? हिंदू ही हिंदू को क्यों मार रहा है? क्योंकि उनमें राष्ट्रीय दृष्टि का अभाव है। केवल संकीर्णता है, जिसमें मेरा व्यक्तितगत लाभ होगा वही करना है। राष्ट्र का कोई भाव ही नहीं रहा। मिर्जा राजा जयसिंह जैसा एकलिंग का पुजारी स्वयं औरंगजेब की ओर से शिवजी के एक दूसरे उपासक शिवाजी महाराज से युद्ध करने आ जाता है। शिवजी का उपासक दूसरे शिवभक्त पर हमला क्यों बोल रहा था? क्योंकि दिल्ली के तख्त पर बैठा हुआ एक यवन उनको अपने स्वार्थ के लिए लड़वा रहा था। उस समय शिवाजी महाराज ने मिर्जा राजा जयसिंह को पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘‘मेरी आकांक्षा यह नहीं है कि मैं दिल्ली के सिंहासन पर बैठूं, लेकिन दिल्ली के सिंहासन पर वही बैठना चाहिए जो यहां के धर्म का पालन करने वाला हो। यहां भेड़िए सिंहों को आपस में लड़ा रहे हैं। आप दिल्ली के सिंहासन पर बैठिए, मैं आपका सेनापति बनने के लिए तैयार हूं।’’
राष्ट्रीय दृष्टि का पुनर्जागरण छत्रपति शिवाजी महाराज ने उस युग में किया। उनके सामने मराठा राज्य नहीं था, बल्कि संपूर्ण देश था। यह स्मरण रखना होगा कि मराठा योद्धाओं के हृदय में सदैव यह आकांक्षा रही कि हम दिल्ली के तख्त को जीतेंगे। यदि यह दृष्टि सबमें आ जाती तो ऐसा विध्वंस (राम जन्मभूमि का) ही नहीं दिखता और इतने वर्ष भी उसको पुन: प्राप्त करने के लिए लिए प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।
अयोध्या मंदिर निर्माण की पावन बेला में यह स्मरण रखना होगा कि हम कितनी विषम परिस्थिति से गुजरे हैं, छत्रपति शिवाजी ने ऊर्जस्विता और ध्येय के साथ 14 वर्ष की आयु से कार्य प्रारंभ किया, लेकिन उनके विरुद्ध लड़ने वाले उनके अपने अठारह रक्त संबंधी थे, जो औरंगजेब के लिए अपने ही परिवार के शिवाजी के विरुद्ध खड़े हो गए। एक तो उनका अपना सौतेला भाई था। उनको इस बात की अनुभूति ही नहीं थी कि शिवाजी किस ध्येय के लिए लड़ रहे हैं। इसी कारण देश गर्त में गिरता गया। इस गर्त से देश को बाहर निकालने का काम यदि किसी ने किया तो वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। इसने डॉ. हेडगेवार के नेतृत्व में जो काम खड़ा किया उसने देश को संपूर्ण भारतीयता की राष्ट्रीय दृष्टि दी। भाषा, जाति, पंथ, संप्रदाय से ऊपर उठकर ‘पूरा भारत मेरा है, भारत माता हमारी सर्वोच्च आराध्य है’, का भाव जगाया। यह भाव बंकिम चंद्र ने ‘आनंद मठ’ में दिया था और स्वामी विवेकानंद ने उसे मुखरित किया। उसी को संघ ने ग्रहण करके सारे भारत में व्याप्त कर दिया। यह भाव अकेले संघ ने जगाया, यह मैं नहीं कहता। सावरकर ने भी यही किया और भी अनेकानेक महापुरुषों ने यह कार्य किया। परंतु इस एकात्म राष्ट्रीय दृष्टि को स्थायी भाव तो संघ ने ही दिया। आज जो यह मंदिर खड़ा दिखता है उसके पीछे इन्हीं 100 वर्ष की राष्ट्रीयता की भावना के प्रसार का कार्य है।
पाञ्चजन्य की सत्य साधना
विश्व पत्रकारिता में जन आंदोलन एवं राष्ट्र के समय परिवर्तन का साक्षी बन वैचारिक योगदान देते हुए सफलता के नए प्रतिमान तय करने में पाञ्चजन्य की जो भूमिका रही उसका कोई सानी नहीं। पाञ्चजन्य की प्रतियां अयोध्या आंदोलन का सत्य, यथार्थ इतिहास और आंदोलन की वैचारिक प्राण रेखा बनीं। इसलिए श्रीराम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के मुहूर्त पर वर्तमान संपादक हितेश शंकर जी से मिलना आंखों को भिगो गया। पिछले 30 वर्ष का संघर्ष वृत्त चित्र की तरह क्षणांश में आंखों में उतर गया। अयोध्या आंदोलन में भाषायी भारतीय पत्रकारिता ने सत्य और जनसंघर्ष का साथ देने की भारी कीमत चुकाई। मैं संपूर्ण राम जन्मभूमि आंदोलन के समय पाञ्चजन्य का मुख्य संपादक था और आंदोलन को वैचारिक बल तथा संघर्ष का सत्य वृत्त देने का दायित्व हम पर था। मुलायम सिंह ने घोषित कर दिया था कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता। सुभाष जोशी नाम के खूंखार आई. पी. एस. को वहां एस.एस.पी. के रूप में तैनात किया था। विश्व हिंदू परिषद के संगठन सेनापति अशोक सिंहल जी को अयोध्या जाना था। वे पाञ्चजन्य का संवाददाता पहचान पत्र मुझसे बनवा करके गए। गन्ने के खेतों में वीर सत्याग्रही कारसेवकों ने रात बिताकर अयोध्या प्रवेश का जोखिम उठाया। अंग्रेजी के पत्रकार खुलेआम हिंदू विरोध पर उतर आए थे और पाञ्चजन्य जैसे हिंदी अखबारों की अयोध्या की सत्य रिपोर्टिंग के लिए आलोचना करते थे।
केवल हिंदी पत्रकारों ने रक्तरंजित अयोध्या की आंखों देखी रिपोर्टिंग करने का साहस दिखाया था। कोठारी बंधुओं सहित बड़ी संख्या में अयोध्या में निहत्थे कारसेवकों को मुलायम सिंह की पुलिस ने मारा और सब्जियों के ठेलों पर लाशें बांधकर सरयू में फेंका। मैं और आगे चलकर आर्गनाइजर के संपादक बने बालाशंकर हनुमानगढ़ी में सुबह 30 अक्तूबर को थे। हमारी आंखों के सामने एस. एस. पी. सुभाष जोशी कारसेवकों की बुरी तरह पिटाई करने लगे। हम दोनों ने जोशी का सामना किया, जो भी कठोर शब्द हो सकते थे, सुनाए। वह खिसिया कर वापस चला गया। पाञ्चजन्य में उसकी रिपोर्टिंग की। अयोध्या संघर्ष हमारे लिए सत्य रिपोर्टिंग का प्राण घातक संघर्ष बन गया था। पाञ्चजन्य की आफसेट पर पाइरेटेड प्रतियां छापी गईं। उधर वैचारिक अस्पृश्यता, हिंदू विचारधारा के विरुद्ध सेकुलर अंग्रेजी पत्रकारों का खुलेआम हमला, अयोध्या समर्थकों के लिए भीषण गलियों का उपयोग, रामजन्मभूमि पर शौचालय बनाने के सुझाव दिए जाते थे।
अयोध्या में सत्य की विजय ने उन सबको आज मंदिर का समर्थन करने पर विवश कर दिया है, जो भारतीय भाषाई पत्रकारिता की जीत है। उस अध्याय को लिखा जाना शेष है। अयोध्या में सत्य और सत्ता में संघर्ष हुआ, सत्ता भारतीय सत्याग्रही कारसेवकों पर जुल्म छिपाना चाहती थी। कलम का धर्म था सत्ता के अहंकार को तोड़ने हेतु सच को बताना। अयोध्या के मार्ग में बढ़ रहे कारसेवकों को इतनी बड़ी संख्या में गिरफ्तार किया गया कि सब्जी मंडी खाली कराकर बाड़ेबंदी की गई। वहां जब मैं रिपोर्टिंग के लिए गया तो गिरफ्तार किए गए आचार्य विष्णुकांत शास्त्री बोले, ‘देखो रामलला का खेल, सब्जी मंडी बन गयी जेल।’ हिंदी के पत्रकारों ने जान की बाजी लगाकर यह काम किया, वरना बाबरी के मनहूस झूठ को वोट बैंक राजनीति कभी उजागर न होने देती। उस समय मोबाइल फोन नहीं थे, लेकिन वीडियो कैमरों की पत्रकारिता में साधना, न्यूज ट्रैक जैसे इलेक्ट्रॉनिक चैनलों और हिंदी की लिखित रिपोर्टिंग ने हिंदू विरोधी घृणा फैलाने वालों के कपट को चलने नहीं दिया। 22 जनवरी के दिन न केवल एक ऐतिहासिक मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हुई, बल्कि यह सत्य पर टिकी हिंदी पत्रकारिता का भी विजय दिवस है।
अयोध्या प्राण प्रतिष्ठा के समय पाञ्चजन्य के वर्तमान संपादक श्री हितेश शंकर मिले तो हृदय भर आया। वह समय पाञ्चजन्य के उस सातत्य का साक्षी बना, जो राष्ट्रीयता के संघर्ष को जन-मन से जोड़ने के लिए 75 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था। अटल जी जब संपादक थे तो उसका शीर्षक था- ‘कश्मीर हमारा है, हमारा ही रहेगा!’ उनकी प्रसिद्ध कविता –‘हिंदू तन मन हिंदू जीवन रग रग हिंदू मेरा परिचय’ पाञ्चजन्य में ही छपी थी। उसके बाद अनेक मील के पत्थर पार किए। संसद पर संन्यासियों के गोरक्षा प्रदर्शन पर कांग्रेस सरकार द्वारा गोलीबारी, जिसमें सैकड़ों संन्यासी मारे गए। कच्छ आंदोलन, मीनाक्षीपुरम और विराट हिंदू सम्मेलन, गंगा एकात्मता यात्रा, राम जन्मभूमि आंदोलन, सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा और कारगिल विजय, कन्वर्जन व जिहादी खतरे, खालिस्तानी षड्यंत्र, 2014 में राजनीतिक कालचक्र का परिवर्तन, और फिर अयोध्या जी में रामलला विराजमान। भारत में सनातन धर्म के संघर्ष और राष्ट्रीयता के सूर्योदय की यात्रा पाञ्चजन्य की यात्रा है। हमने वैचारिक अस्पृश्यस्ता का कठिनतम दौर देखा, लेकिन संघ की पुण्याई का बल लेकर कलम का धर्म निभाया। अयोध्या प्रतिश्रुति उसमें साक्षी है। यही कुल जमा पूंजी है अग्निधर्मा पाञ्चजन्य की। यही यात्रा जारी रहेगी, यही हमारा अयोध्या संकल्प है।
अयोध्या गाथा 22 जनवरी को न तो संपूर्ण हुई है, न ही उसकी पूर्णाहुति। यह तो मात्र रणसिद्ध होने का एक पावन तिलक आरती वाला क्षण है। कथा तो अब प्रारंभ होती है। कथा प्रारंभ होती है उन लाखों तीर्थयात्रियों, रामभक्तों के श्री चरणों से, जो हड्डियां कंपा देने वाली अयोध्या जी की ठंड में नंगे पांव या चप्पल पहने, एक झोले में कपड़े, कंबल ठूंसे चले आ रहे हैं। उनको किसका निमंत्रण मिला? बोलते हैं- रामलला ने बुलाया है। रात में रुकने की जगह हो या न हो, सुबह पांच-छह डिग्री कंपायमान तापमान में वे सरयू जी की धारा में डुबकी लगा कर मंदिर की पंक्ति में आ खड़े होते हैं। भीतर आकर बस रामलला को निहारते ही रहते हैं। अपलक, हाथ जोड़े, आंखों से भक्ति के समंदर-सा उमड़ा आ रहा आनंदाश्रु प्रवाह। यही भारत है, उनके ही कारण भारत परिभाषित है। यह युद्ध है भारत में भारत की प्राप्ति का, अभारतीय जिन्ना मानसिकता के समूल उच्छेदन का, हमारी सांस्कृतिक दासता के विषैले चिह्न मिटाने और अपने मंदिर पुन: वापस लेने का। हम कहते रहे-
‘कसम राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनाएंगे।’
अब कह रहे हैं-
‘हमने वचन निभाया है, मंदिर वहीं बनाया है’,
‘हम फिर वचन निभाएंगे, काशी मथुरा आएंगे।’
देश-विदेश के कोने से महनीय व्यक्ति आए, उनकी कैसे गिनती करें? राजा रमन्ना से लेकर जनरल वेद मलिक, एयर मार्शल नायर, मुकेश अंबानी परिवार, हेमा मालिनी, कंगना रनौत, अनुपम खेर, रजनीकांत, सचिन, सोनू निगम। आंखें और हाथ थक जाएंगे देखते और गिनाते। परंतु सबके सब एक राम भाव में तल्लीन, सबका बस एक ही परिचय-रामभक्त। सबकी बस एक ही पहचान रामभक्ति, सबका बस एक ही उद्देश्य रामलला के दर्शन। अयोध्या इस पृथ्वी से न्यारी है। पृथ्वी पर मनु महाराज इसको लेकर आए। आज भी अयोध्या संपूर्ण जगत से अलग, विलक्षण रूप ले रही है। शिवाजी ने उस युग में अपनों को ही स्वयं से लड़ते देखा परंतु देश जगा दिया। उसी शिवाजी का रूप हमें राम मंदिर प्रतिष्ठापना के साफल्य में दिखा-देव से देश, राष्ट्र। यह शिवाजी के हिंदवी स्वराज्य की कल्पना का अद्यतन रूप है।
रामलला ने देश में जागरण की जो विलक्षण ज्योति प्रज्ज्वलित की है वह गत अनेक शताब्दियों की मलिनता, कापुरुषता, अक्षमता, अकर्मण्यता को धो डालेगी। अयोध्या विश्व की सांस्कृतिक राजधानी बनने की ओर बढ़ रही है, तो भारत विश्व मंच पर देदीप्यमान सशक्त, समृद्ध, शौर्यवान राम-मय राष्ट्र के रूप में उभर रहा है, जिसे कोई दुरभिसंधि, बाबर के रोजनामचे में दर्ज दरबारी, अपने ही रक्तबंधुओं के विरुद्ध लड़ने वाले औरंगजेबी रोक नहीं पाएंगे। इस अयोध्या का अर्थ है नवीन भारत का नवीन सूर्योदय।
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