प्रभु श्रीराम और उनकी महाभक्त माता शबरी के संवाद के माध्यम से भक्तियोग का जो प्रतिपादन श्रीरामकथा में वर्णित है; वह अपने आप में बेमिसाल है। काबिलेगौर हो कि लोकमंगल के अमर गायक गोस्वामी तुलसीदास ने इस अनूठी नवधा भक्ति की व्याख्या के लिए कोल-शबर जाति की वनवासी शबरी को पात्र बनाकर यह तथ्य प्रतिपादित किया है कि यदि मन में प्रभु को पाने की सच्ची आकुलता हो तो लिंगभेद, जातिभेद, ऊँच-नीच का भेद कुछ भी आड़े नहीं आता। प्रभु राम ने शबरी को नवधा भक्ति का अनमोल उपदेश देकर जन सामान्य को यह बताया है कि प्रभु सिर्फ भाव के भूखे हैं और वे केवल अन्तस की प्रीति पर रीझते हैं।
नवधा भक्ति के अंतर्गत प्रथम भक्ति है -संत सत्संग
श्रेष्ठजनों के जिस सत्संग से जड़ता, मूढ़ मान्यताएं टूटती हैं वह सत्संग सर्वोच्च कोटि का होता है। संत वे होते हैं जिनके पास बैठने पर हमारे अंतःकरण में ईश्वर के प्रति ललक-जिज्ञासा पैदा होती है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि जिस तरह गंगाजी की तरफ जाते ही शीतलता महसूस होने लगती है, वैसे ही वीतरागी महापुरुषों की ओर उन्मुख होते ही मन को शांति मिलने लगती है। “प्रथम भक्ति संतन कर संगा” की व्याख्या करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं कि संतों का संग पाकर जड़-मूर्ख व कुटिल-क्रूर बुद्धि के मनुष्य भी सुधर जाते हैं; ठीक उसी तरह जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। सच्चे संत मनुष्य को परमात्मा का प्रकाश दिखाते हैं, सद्गुरु से परिचय कराते हैं, उनका हृदय नवनीत के समान होता है, उनके मन में जीवमात्र के प्रति असीम दया व अगाध प्रेम होता है।
दूसरी भक्ति है- “मम कथा प्रसंगा”
भक्ति साधना का सबसे सुलभ मार्ग है-भगवान के लीला-प्रसंगों का चिंतन व गुणगान। आर्ष साहित्य के पौराणिक कथा-प्रसंगों ने लोकमानस को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। मन को भगवान के स्वरूप में लीन करने की इसमें जबर्दस्त शक्ति है। इसीलिए श्रीरामचरित मानस व श्रीमद्भागवत जन सामान्य में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। भगवद्भक्ति की ओर उन्मुख करने वाले कथा-प्रसंग लोकमानस को छूते हैं, भाव संवेदना जगाते हैं एवं मानव कल्याण का पथ प्रशस्त करते हैं। इस भक्ति का एक श्रेष्ठतम उदाहरण है राजा परीक्षित द्वारा अपने जीवन के अंतिम क्षणों में श्रीमद्भागवत कथा को सुनकर मोक्ष को प्राप्त होना।
तीसरी भक्ति है-अभिमान रहित हो गुरु के चरणकमलों की सेवा
भारतीय अध्यात्म में गुरु को ईश्वर का दर्जा दिया गया है। गुरु के प्रति सर्वस्व समर्पण जब तक नहीं होगा, भक्ति नहीं सधेगी। श्री अरविंद कहते थे-गुरु की चेतना का शिष्य में अवतरण तभी हो पाता है जब शिष्य की चेतना भी शिखर पर हो। श्री अरविंद के शिष्य चंपकलाल का गुरु की सेवा से सारी सिद्धियां पा जाने का प्रसंग तमाम लोग जानते हैं। वे श्री अरविंद की दैनन्दिन सेवा में रहते थे। उनको योगीराज का एक ही निर्देश था- चुप रहना, बहुत जरूरी होने पर बोलना। चंपकलाल ने इसे गिरह बांध लिया। समाधि से पूर्व श्री अरविंद ने चंपकलाल को छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया और उनके कृपास्पर्श ने चंपकलाल को महायोगी-सिद्धसाधक बना दिया।
चौथी भक्ति है-छल कपट छोड़ भगवद् संकीर्तन
श्रीमद्भागवत में बाल यति शुकदेव जी कहते हैं कलियुग में भगवान के संकीर्तन से व्यक्ति परम गति को प्राप्त हो सकता है। श्री भगवान ने भी गीता में कहा है कि यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मुझको भजता है तो भजन के प्रभाव से वह शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है और परम शान्ति को प्राप्त होता है। संकीर्तन भक्ति से लोग व वातावरण कैसे बदलता है, इसका संदर उदाहरण है चैतन्य महाप्रभु की बंगक्षेत्र में महाक्रान्ति। तब बंगाल को नास्तिकों का देश माना जाता था पर चैतन्य जी के भगवन्नाम संकीर्तन ने बंगभूमि को भगवद् भक्ति की उर्वर भूमि बना दिया था।
पांचवीं भक्ति है-दृढ़विश्वास के साथ भगवान का मंत्रजप
मंत्र का माहात्म्य समझकर भावपूर्वक परमात्म सत्ता में गहन विश्वास रख जब जप किया जाता है तो वह सिद्धि का मूल बन जाता है। ईश्वर को संबोधित निवेदन ही मंत्र है। चाहे “नमो भगवते वासुदेवाय” हो, “नमः शिवाय” हो अथवा गायत्री मंत्र के रूप में सद्बुद्धि की प्रार्थना। विश्वासपूर्वक किया गया जप निश्चित फल देता है। योगदर्शन के अनुसार जिस गुरु ने मंत्र दिया है, उसकी सत्ता एवं मंत्र के देवता पर विश्वास रख निरन्तर जप किया जाय तो मंत्र की सामर्थ्य असंख्य गुनी हो जाती है।
छठी भक्ति है- इंद्रिय निग्रह
“षट् दम शील-विरति बहुकर्मा-निरति निरन्तर सज्जन धर्मा।” संयम सधते ही शरीर स्वयमेव सध जाता है। इंद्रियों पर नियंत्रण की महत्ता बताते हुए ऋषि विचार संयम, इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम व अस्वाद व्रत पर जोर देते हैं। इस भक्ति में भगवान श्रीराम ने शील की चर्चा की है। अश्लील का उलटा है शील। शील अर्थात शालीनता। जब पति-पत्नी सद्गृहस्थ के रूप में परस्पर सहमति से संयम-पूर्वक जीवनयापन करते हैं तो इसे शीलव्रत कहते हैं। अमर्यादित काम को मर्यादित करते हुए जीवनयापन शीलव्रत का पहला चरण है।
सातवीं भक्ति है- विश्व के प्रत्येक जीव को परमात्म भाव से देखना
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जो मुझे सर्वत्र संव्याप्त देखता है और सबको मुझमें देखता है कि उसके लिए मैं अदृश्य नहीं, सर्वत्र हूं। इसे इस उदाहरण से और स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है -सोना एक धातु है। उससे बने विभिन्न आभूषणों में अंगूठी-कंगन-बाजूबंद को हम अलग-अलग रूप में देखते हैं किंतु सुनार को आभूषणों में सोना ही दिखाई देता है। उसी तरह सच्चा भक्त सभी को प्रभु में और प्रभु को सभी में देखता है।
आठवीं भक्ति है-यथा लाभ संतोषा। सपनेहुं नहिं देखहिं परदोषा
यानी जो कुछ मिल जाए उसी में संतोष, स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना। इसीलिए कबीरदास जी कहते हैं, “साईं इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाय। मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाय।” चाणक्य एक चक्रवर्ती शासक के प्रधानमंत्री और विश्वविद्यालय के सूत्र संचालक थे। फिर भी इस अमानत में से अपने निजी प्रयोजन के लिए मात्र सूखी रोटियां ही लेते थे।
नवीं भक्ति है- सरलता व सहजता
सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना व हृदय में परमात्मा का भरोसा रख किसी भी स्थिति में हर्ष व दैन्य का भाव न होना। भगवान इस अंतिम भक्ति प्रकरण में सर्वाधिक जोर सरल व निष्कपट होने पर देते हैं। ऐसा वही हो पाता है जिसकी भावनाएं ईश्वरोन्मुख हों, कामनाएं न के बराबर हों। ईश्वर की सहज भक्ति के माध्यम से ऐसा भक्त बुद्धि के सारे मानदण्डों, कुचक्रों से भरे षड्यंत्रों से उबरकर बुद्धि से प्रज्ञा के धरातल पर पहुंच जाता है।
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