राम जन्मस्थान के बारे में एक नहीं, सैकड़ों प्रमाण मौजूद हैं। इनमें अकबर के शासन काल से लेकर विदेशी यात्रियों के विवरण, अंग्रेजों के दस्तावेज तक शामिल हैं। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उत्खनन के बाद विवादित ढांचे के नीचे मिले साक्ष्य इसी दावे को पुष्ट करते हैं कि यह स्थान हिंदुओं का पवित्र तीर्थ स्थल है
सर्वोच्च न्यायालय में मंदिर पक्ष की शानदार जीत के बाद भी कई लोगों को अदालत में प्रस्तुत किए गए सभी साक्ष्यों की सही जानकारी नहीं है, जो स्पष्ट तौर पर यह प्रमाणित करते हैं कि राम जन्मस्थान पर एक मंदिर था, जिसे बाबर ने ध्वस्त करा दिया था।
बाबर की बनाई मस्जिदें
बाबर ने भारत में तीन मस्जिदें बनाई। इसके लिए स्थानों का चुनाव बहुत सोच-समझ कर किया गया। इसका उल्लेख इन मस्जिदों के शिलालेखों में मिलता है। उसने पहली मस्जिद पानीपत में बनाई थी, जहां उसने लोदी राजवंश पर जीत हासिल की थी। इस जीत के बाद उत्तर भारत के कुछ हिस्से उसके कब्जे में आ गए थे। पानीपत की मस्जिद के शिलालेख इसकी पुष्टि करते हैं। उसने दूसरी मस्जिद संभल (उत्तर प्रदेश) में बनाई, जिसके लिए एक मंदिर को ध्वस्त किया गया। उस मंदिर के अवशेष मस्जिद परिसर में आज भी मौजूद हैं। संभल शहर का एक खास सांस्कृतिक महत्व है। पौराणिक मान्यता के अनुसार विष्णु का कल्कि अवतार यहीं होगा। संभल मस्जिद के शिलालेख में स्पष्ट लिखा है कि इसे मीर बेग ने दिसंबर, 1526 में बाबर के फरमान पर बनाया था। बाबर के शासनकाल में अंतिम मस्जिद अयोध्या में बनाई गई थी। संभल की तरह अयोध्या भी भगवान श्रीराम के पवित्र जन्म स्थान के रूप में हिंदुओं की श्रद्धा का केंद्र रही है। मस्जिद में प्रमुख रूप से हिंदू वास्तु शिल्प के प्रतीकों को प्रदर्शित किया गया है, जो संभवत: मीर बाकी ने मुस्लिम प्रभुता दर्शाने के लिए किया होगा।
फारसी दस्तावेजों में अयोध्या
हैरानी की बात है कि जहां कई वामपंथी इतिहासकार अयोध्या पर हिंदुओं के दावों को चुनौती देते हैं, वहीं फारसी साहित्य में मध्यकाल से ही अयोध्या का परिचय एक पवित्र शहर और श्रीराम की जन्मभूमि के रूप में दर्ज है। अबुल फजल ने लिखा है कि अयोध्या को ‘पवित्र भूमि’ माना जाता है और ‘‘चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को यहां एक भव्य धार्मिक उत्सव का आयोजन होता है। राम का जन्म अयोध्या नगरी में हुआ था, जो प्राचीनतम स्थलों में से एक है।’’ राम जन्मभूमि संबंधी एक और रोचक संदर्भ जुलाई, 1723 में मुगल अधिकारियों द्वारा जारी एक सनद में मिलता है।
अकबर ने 28 मार्च, 1600 को अयोध्या में हनुमान टीला को छह बीघा जमीन दी थी। बाद के मुगल शासक ने 8 जुलाई, 1723 को संत अभयराम दास को इसका स्वामित्व सौंपा। सनद में फारसी में लिखा है कि वे उस पवित्र स्थान के मूल निवासी हैं जो राम का ‘मौलूद’ (जन्मभूमि) है। इसी तरह, 1822 में अदालत के एक अधिकारी हाफिजुल्लाह ने फैजाबाद अदालत में एक नोट प्रस्तुत किया, जिसमें लिखा है कि ‘‘बाबर निर्मित मस्जिद राजा दशरथ के पुत्र राम के जन्मस्थान पर स्थित थी और उसकी बगल में राम की पत्नी सीता की रसोई थी।’’ 30 नवंबर, 1858 को बाबरी मस्जिद के मुतवल्ली ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष पेश अपनी पहली याचिका में विवादित ढांचे को मस्जिद जन्मस्थान बताया था, लेकिन बाद में 21 जनवरी, 1870 को की गई अपील में उसने इसे मस्जिद बाबरी वाकिया जन्मस्थान के रूप दर्शाया।
19वीं सदी में लिखित अरबी, फारसी और उर्दू की कई किताबों में स्पष्ट रूप से मंदिर के विध्वंस और उसकी जगह मस्जिद के निर्माण का जिक्र है। ऐसी ही एक किताब है- तवारीख-ए अवध, जिसे शेख अजमत अली काकोरवी नामी (1811-1893) ने लिखा है। वह अवध के आखिरी नवाब के शासनकाल की कई घटनाओं का चश्मदीद था। उसकी किताब 1869 में पूरी हो चुकी थी, लेकिन प्रकाशित हुई 1986 में । इसमें स्पष्ट कहा गया है कि मस्जिद जन्मस्थान मंदिर की जगह बनाई गई। नवाब के शासन के दौरान इस मस्जिद में हिंदू पूजा करते थे और सरकारी अधिकारी रिश्वत लेते और चुपचाप सब वैसे ही चलने देते थे।
यूरोपीय दस्तावेजों में पुष्टि
दो अन्य चश्मदीदों ने भी उस स्थान पर हिंदुओं की उपस्थिति की पुष्टि की है। अंग्रेजी यात्री विलियम फिंच बाबर के शासनकाल के करीब 80 साल बाद 1608 और 1611 के बीच भारत आया था। उसनें राम जन्मभूमि से जुड़ी हिंदुओं की आस्था का उल्लेख किया है। साथ ही, रामकोट के अंदर ब्राह्मणों की मौजूदगी का जिक्र किया है जो पास की सरयू नदी में स्नान के बाद पूजा-अर्चना करते थे। उसने इसका उल्लेख नहीं किया है कि मुसलमान उस स्थान पर नमाज पढ़ते थे। इसके अलावा, जोसेफ टाईफेंथेलर, जो एक जेसुइट मिशनरी था, भी 1766 और 1771 के बीच अवध आया और जन्मस्थल के प्रति हिंदुओं की आस्था को करीब से देखा। उसने गौर किया कि हिंदू परिसर स्थित एक वेदी (पालना, राम चबूतरा) की श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं। उसने जिक्र किया है कि रामनवमी के अवसर पर वहां बड़ी संख्या में हिंदू इकट्ठा होते हैं। टाईफेंथेलर ने भी उस स्थान पर मुसलमानों द्वारा नमाज पढ़ने का जिक्र नहीं किया है।
अंग्रेजों के दस्तावेज
अवध के अंग्रेजी हुकूमत के अधीन आने के बाद के सभी सरकारी दस्तावेज और जिला गजेटियर यही बताते हैं कि मंदिर की जगह पर मस्जिद बनी। अयोध्या पर अंग्रेजों की सभी रपटों में मस्जिद में काले पत्थर के खंभे और इसके निचले हिस्से में उकेरी गई विभिन्न आकृतियों को मिटाने की निशानी मिलती है और ‘हठधर्मी लोगों ने अपने मन की तुष्टि के लिए ऐसा किया था।’ फैजाबाद के पहले ब्रिटिश कमिश्नर और सेटलमेंट आफिसर पैट्रिक कार्नेगी ने भी कहा कि 1858 के संघर्ष के समय तक हिंदू और मुसलमान मंदिर-मस्जिद में समान रूप से पूजा-नमाज पढ़ते थे। दोनों पक्षों में विवाद न हो, इसलिए अंग्रेजों ने चारदीवारी बना दी थी। मुसलमानों को मस्जिद के अंदर और हिंदुओं को घेरे के बाहर पूजा-अर्चना की अनुमति दी गई। कार्नेगी ने लिखा है कि हिंदुओं ने घेरे के बाहर एक चबूतरा बनाया और उसी पर फल-फूल-प्रसाद चढ़ाने लगे। इसके बाद कई ब्रिटिश अधिकारियों ने इसी तरह की जानकारी दर्ज की।
वामपंथी इतिहासकारों की करतूत
कुछ वामपंथी इतिहासकारों ने इस सदियों पुरानी मान्यता को झुठलाने का प्रयास किया और बड़ी मुखरता से दावा किया कि मस्जिद खाली जमीन पर बनाई गई थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (उत्तर) के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक डॉ. के.के. मोहम्मद ने अपनी आत्मकथा ‘नजन एन्ना भारतीयम’ (मैं एक भारतीय) में लिखा है कि कुछ वामपंथी इतिहासकारों ने इस विवाद के शांतिपूर्ण समाधान की कोशिशों को सोची-समझी नीति के तहत निष्फल कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि अयोध्या एक बड़ा बौद्ध-जैन केंद्र थी। वास्तव में ब्रिटिश शासकों ने अपने स्वार्थ के लिए हिंदुओं और मुस्लिमों में दरार पैदा करने की साजिश के तहत यह प्रचारित किया कि वहां मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी। वामपंथियों ने ऐतिहासिक तथ्यों को इस तरह तोड़-मरोड़कर पेश किया कि मुसलमानों को लगा कि यह उनकी आस्था का स्थल है और उनके मन में भी हठ आ गया। नतीजा जो मुसलमान मस्जिद को हिंदुओं को सौंपकर मामले को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने पर विचार-विमर्श कर रहे थे, वे अब उसे अपनी नमाज की जगह मानकर अपना दावा पेश करने लगे और निर्णय लिया कि मस्जिद हिंदुओं को नहीं दी जाएगी।
1528 से 1858 तक दावा नहीं
तथ्य यह है कि मस्जिद की पक्षकार बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी (बीएमएसी) अदालत में इस बात का कोई सबूत नहीं दे पाई, जिससे पता चले कि 1528 से 1858 के बीच अयोध्या में उस स्थान पर मुसलमानों की उपस्थिति थी। इसका मतलब है कि बाबर ने मंदिर को तोड़कर उस स्थल पर कब्जा किया था। लेकिन जल्द ही उसने मस्जिद को छोड़ दिया और उस परिसर में हिंदुओं का आना-जाना पुन: शुरू हो गया। इस स्थल पर मुस्लिम उपस्थिति का पहला उपलब्ध दस्तावेज 28 नवंबर,1858 का है, जिसे अवध के थानेदार ने दर्ज किया था। इसमें लिखा गया है कि ‘मस्जिद जन्म स्थान’ के अंदर पंजाब निवासी निहंग सिंह फकीर खालसा ने पूजा-अर्चना शुरू की। दो दिन बाद बाबरी मस्जिद के मुतवल्ली मुहम्मद असगर ने ब्रिटिश सरकार से इसकी शिकायत की। यह शिकायत सबसे पुराना निजी दस्तावेज है जो उस समय के हालात के बारे में बताता है। असगर ने अपनी शिकायत में लिखा है, ‘‘एक निहंग सिख ने मेहराब और मिम्बर के पास ‘मिट्टी का चबूतरा’ बनाया और उस पर एक देवता की तस्वीर रख दी। रोशनी और पूजा-हवन के लिए वहां अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है। पूरी मस्जिद में कोयले से ‘राम राम’ लिख दिया गया है। उसने यह उल्लेख भी किया है कि मस्जिद के बाहर (मस्जिद परिसर की चारदीवारी के अंदर के आंगन) में जन्मस्थान उजाड़ पड़ा है, जहां हिंदू सैकड़ों साल से पूजा कर रहे थे। थानेदार की साजिश के कारण बैरागियों ने रातों-रात वहां चबूतरा बना दिया, जिसे वे लगातार बढ़ाते जा रहे हैं।’’ इस दस्तावेज की प्रामाणिकता और लिखने वाले की पहचान पर संदेह करने का सवाल ही नहीं उठता। यह अकाट्य रूप से साबित करता है कि हिंदू मस्जिद के अंदर से लेकर मस्जिद परिसर स्थित राम चबूतरा और सीता रसोई में पूजा-अर्चना किया करते थे। लिहाजा यह कतई संभव नहीं कि पूरा परिसर मुसलमानों के कब्जे में रहा होगा। बाद के समय में उस स्थल से उभरे विवादों से संबंधित दस्तावेज प्रचुर संख्या में मौजूद हैं, जो बताते हैं कि हिंदुओं ने इस स्थल पर अपना हक हासिल करने के लिए कड़ा संघर्ष किया।
अमीन आयोग की रपट
अमीन आयोग की 6 दिसंबर, 1885 की रपट का अनुसार, सीता रसोई, चबूतरा, जन्मस्थान और महंत के चेले की छप्पर (बाड़ा), सभी उस स्थल पर मस्जिद की चारदीवारी के भीतर स्थित थे। परिसर के ठीक बाहर नीचे ढलान में एक परिक्रमा मार्ग था, जिस पर श्रद्धालु परिक्रमा करते थे। दूसरे शब्दों में परिक्रमा मार्ग से घिरा पूरा क्षेत्र पवित्र जन्मस्थान था। 20 नवंबर, 1943 को बाबरी मस्जिद के मुतवल्ली के एक पत्र से खुलासा होता है कि मस्जिद में सिर्फ जुमे की नमाज अदा की जाती थी और बाहरी हिस्से पर मुसलमानों का कोई नियंत्रण नहीं था। वक्फ इंस्पेक्टर की रपट (10 दिसंबर, 1948) से स्थल पर तनाव के बरकरार रहने की पुष्टि होती है। इस रपट में कहा गया है कि हिंदुओं और सिखों के डर के कारण कोई भी मस्जिद में नमाज पढ़ने नहीं गया। यह भी कहा कि मस्जिद के सहन के बाहर एक मंदिर है जहां कई पंडे रहते हैं, जिन्होंने मस्जिद में जाने वाले मुसलमानों को परेशान किया।
अपनी दूसरी रिपोर्ट में वक्फ इंस्पेक्टर ने लिखा, ‘‘मस्जिद पर हमेशा ताला लगा रहता है। न तो नमाज अदा की जाती है और न ही अजान दी जाती है। मस्जिद के ताले की चाबी मुसलमानों के पास है। पुलिस ताला खोलने नहीं देती है। जुमे को लगभग दो-तीन घंटों के लिए साफ-सफाई होती है, इसे बुहारा जाता है और शुबे नमाज भी अदा की जाती है। उसके बाद फिर से ताला बंद कर दिया जाता है।’’
राजस्व रिकॉर्ड
नवाब और ब्रिटिश समय के राजस्व रिकॉर्ड भी मंदिर के पक्ष को मजबूत करते हैं। राम कोट, हवेली अवध गांव के 1861 से 1990-91 के राजस्व रिकॉर्ड बताते हैं कि 1861 की पहली नियमित जमाबंदी के समय से ही इस जमीन को नजुल (सरकारी) के तौर पर दिखाया गया था और किसी ने इसे चुनौती नहीं दी। महंतों को पूरे जन्मस्थान परिसर का मालिकान-ए-मातहत घोषित किया गया था। इन दस्तावेजों में बाबरी मस्जिद का कहीं कोई जिक्र नहीं। 26 फरवरी,1944 को उत्तर प्रदेश गजट में प्रकाशित वक्फ संपत्तियां भी मस्जिद की दलील को कमजोर करती हैं। इससे पता चलता है कि मुगल शासक बाबर ने बाबरी मस्जिद के लिए कोई वक्फ नहीं बनाया था। मुकदमे में मुस्लिम पक्ष की यह सबसे कमजोर कड़ी थी। दूसरी ओर, कानूनी दस्तावेजों और पवित्र ग्रंथों से स्पष्ट था कि मंदिर की संपत्ति किसी भी परिस्थिति में कोई नहीं ले सकता। कात्यायन के अनुसार किसी भी मंदिर को कोई अपनी संपत्ति बनाकर स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता, बेशक सैकड़ों सालों तक पीढ़ी दर पीढ़ी मंदिर की देखभाल किसी ने की हो, यह हमेशा एक धार्मिक धरोहर रहता है, क्योंकि धर्मशास्त्रों के अनुसार इसके स्वामी सदैव मंदिर के देवता ही होते हैं।
मंदिर निर्माण के शुरुआती प्रयास
आजादी के बाद हिंदुओं ने मस्जिद के पास राम मंदिर निर्माण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को एक आवेदन दिया। फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट ने 10 अक्तूबर, 1949 को अपनी रपट दी, जिसमें कहा गया, ‘‘हिंदुओं ने इस आवेदन में अभी मौजूद छोटे मंदिर की जगह पर एक भव्य और सुंदर मंदिर बनाने की इच्छा जताई है। इसमें कहीं कोई मुश्किल नहीं है और इसकी अनुमति दी जा सकती है, क्योंकि हिंदुओं की हार्दिक इच्छा है कि भगवान श्रीरामचंद्र के जन्म स्थान पर एक भव्य मंदिर बने। जिस भूमि पर मंदिर बनाने की बात की जा रही है, वह नजूल की है।’’ 23 दिसंबर, 1949 को मस्जिद में रामलला की मूर्ति प्रतिष्ठित हुई। उल्लेखनीय है कि तब कोई भी मुसलमान इसे रोकने या कब्जे के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने या शिकायत करने के लिए आगे नहीं आया। अयोध्या थाना प्रभारी वरिष्ठ उप-निरीक्षक ने मामले की प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज की। तब से इस स्थल पर पूजा-अर्चना जारी रही। सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. एम. इस्माइल फारुकी और अन्य बनाम यूनियन आफ इंडिया और अन्य (1994) के केस में यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया कि मस्जिद इस्लाम के पालन का अनिवार्य हिस्सा नहीं है।
कोई मुसलमान खुले मैदान में भी नमाज अदा कर सकता है, जबकि हिंदू पूजा पद्धति मूलत: पवित्र स्थलों और प्रतीकों पर केंद्रित है। यह भी उल्लेखनीय है कि 1950 से हर अदालत का फैसला मंदिर समर्थक समूहों के पक्ष में गया है। यह भी महत्वपूर्ण है कि सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने इस स्थल पर कब्जे का मुकदमा दायर नहीं किया। इसके बजाय उसने विवादित परिसर की स्थिति स्पष्ट करने की मांग की। मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के नीचे मूर्तियों की स्थापना 23 दिसंबर, 1949 को हुई थी और इसकी 12वीं वर्षगांठ पूरी होते ही इस बारे में कोई भी दावा करने का समय खत्म हो जाता। लेकिन इसके ठीक पांच दिन पहले 18 दिसंबर, दिसंबर 1961 को बोर्ड ने मुकदमा ठोक दिया।
गहड़वाल शिलालेख
6 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा विध्वंस ने सैकड़ों तथ्यों को सामने ला दिया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है गहड़वाल शिलालेख। विध्वंस के दौरान शिलालेख मस्जिद की एक दीवार से गिरा। यह इस बात का अकाट्य प्रमाण था कि मस्जिद के नीचे एक मंदिर था। हालांकि, वामपंथी इतिहासकारों और कथित पुरातत्वविदों ने सुविचारित तरीके से इस खोज को महत्व नहीं दिया। आखिरकार इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को यह निर्धारित करने के लिए उत्खनन का आदेश दिया कि मस्जिद खाली जगह पर बनाई गई थी या नहीं।
मुस्लिम पक्षकारों की दलील थी कि यह मस्जिद खाली जगह पर बनाई गई थी। उत्खनन में इस स्थल पर ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी से लगातार गतिविधियों के संकेत मिले। उत्खनन में सातवीं से दसवीं शताब्दी का ईंट से बना एक गोलाकार मंदिर भी मिला। हालांकि संरचना क्षतिग्रस्त हो गई थी, लेकिन इसकी उत्तरी दीवार में परनाला यानी पानी की निकासी की ढलान स्पष्ट दिख रही थी जो समकालीन मंदिरों की विशेषता थी। इसके साथ ही 11वीं से 12वीं शताब्दी की एक विशाल संरचना के अवशेषों का पता लगा। ऐसा लगता था कि यह संरचना कुछ समय तक ही खड़ी थी। इसके अवशेषों पर एक विशाल संरचना का निर्माण किया गया था, जो 12वीं से 16वीं शताब्दी के दौरान अस्तित्व में रही। इसी विशालकाय संरचना पर 16वीं शताब्दी में मस्जिद का निर्माण किया गया था। यह भी पता चला कि मस्जिद न केवल पहले से तैयार संरचना पर बनाई गई, बल्कि उसके पहले की संरचना को ध्वस्त भी किया गया था। इसके बाद तो वामपंथी इतिहासकारों के पास कुछ कहने के लिए नहीं रहा। आखिरकार 9 नवंबर, 2019 को इस मामले का पटाक्षेप हुआ, जब शीर्ष अदालत ने पूरे स्थल को मंदिर पक्षकारों को सौंप दिया और सदियों के इंतजार के बाद राम मंदिर का निर्माण शुरू हो सका।
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