अयोध्या आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह श्री हो.वे.शेषाद्रि के साक्षात्कार ‘पाञ्चजन्य’ और ‘आर्गनाइजर’ में प्रकाशित होते रहते थे। ‘पाञ्चजन्य’ के 24 जनवरी, 1993 और ‘आर्गनाइजर’ के 29 नवंबर, 1992 के अंकों में प्रकाशित उनके दो साक्षात्कारों के कुछ प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं-
राष्ट्रीय धारा में मिलने की बात सुनते ही मुसलमान घबरा रहे हैं। इससे तो आने वाले अनेक सालों के लिए संघर्ष की बुनियाद पड़ जाएगी?
निश्चित रूप से मुसलमानों को अपनी पहचान की वर्तमान अवधारणा में बहुत अधिक परिवर्तन करना होगा। उन्हें तय करना होगा कि क्या उनकी पहचान एक बर्बर विदेशी हमलावर को अपना नायक मानने से होती है? क्या उन्हें ऐसी पहचान स्वीकार है जो उन्हें किसी विदेशी प्रकाशन में उनके पैगम्बर के बारे में लिखी हुई कुछ बातों पर हमारे देश में हिन्दुओं की हत्या और विध्वंस की प्रेरणा देती है?
(थॉमस एंड थॉमस द्वारा लिखित पुस्तक ‘द स्टोरी आफ पैगम्बर साहब’ पर दंगे हुए)। यदि किसी विदेश में अन्य विदेशियों द्वारा उनकी मस्जिद पर हमला हो तो भी वे इस देश में हिन्दुओं पर हमला करें? क्या यह पहचान उनके लिए ठीक है? या भुट्टो को पाकिस्तान में फांसी दी जाए तो भी वे भारत में दंगे करें? ऐसी पहचान जो उन्हें राष्ट्र सम्मान के प्रत्येक बिन्दु के विरुद्ध विद्रोह के लिए उत्तेजित करती है- फिर चाहे वन्देमातरम का प्रश्न हो, गोरक्षा का, छत्रपति शिवाजी का या श्रीराम का?
विहिप के अभियान का मुकाबला करने के लिए सरकार ने ‘मस्जिद भी रहेगी, मंदिर भी बनेगा’ का नारा दिया था?
यह नारा तो सरसरी तौर पर ही विरोधाभासी है। तथाकथित मस्जिद की बात तो तब उठती, जब वह वहां होती। जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने अरुण शौरी से कहा था, ‘‘अरे भाई, वहां मस्जिद है कहां?’’
तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने संसद में घोषणा की थी कि वह मौजूदा ढांचे को ध्वस्त नहीं होने देंगे। तभी से बाबरी वालों ने मांग करनी शुरू कर दी कि वहां से रामलला की मूर्ति को हटाकर पूरा परिसर उन्हें सौंप दिया जाए।
हां, इस तरह के आपत्तिजनक बयान देने वाले नरसिंह राव पहले प्रधानमंत्री थे। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने अपने आपको सवालों के घेरे में खड़ा पाया।
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