श्रीराम के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को जानने का एक बड़ा माध्यम हैं उनकी यात्राएं। सम्पूर्ण राम चरित्र ही इन यात्रा गाथाओं के माध्यम से रचा गया है। पढ़िए प्रथम भाग
जब भी अन्याय का प्रतिकार और मूल्यों के स्थापन की बात होगी तो निश्चित तौर पर एक नाम सदैव सामने होगा। वह नाम मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचंद्र का है। यह एक नाम अनेक विशेषताओं से युक्त है। श्रीराम एक आज्ञापालक गुरु भक्त हैं, जिनके लिए गुरु इच्छा सर्वदा संशय रहित और शिरोधार्य है। वे एक आदर्श पुत्र, पति और प्रजा वत्सल पालक राजा भी हैं। पिता के वचन-मान पूर्ति हेतु केवल श्रीराम ही वनवास दंड भोग सकते हैं। अपनी पत्नी के सम्मान, शील के लिए शक्ति सामर्थ्य से परिपूर्ण रावण का सामना नि:संकोच कर सकते हैं। इतना ही नहीं, प्रभावी बलशाली दशानन का समूल नाश भी करते हैं। बात भगवती सीता के प्रति इनके अनुराग की हो तो प्रेम में केवल शिव धनुष पर चाप ही नहीं चढ़ाते, अपितु हरण वियोग से भाव-विह्वल भी होते हैं। इसका मार्मिक वर्णन रामायण में आया है। किंतु जब प्रजा के बीच से सीता चरित्र पर लांक्ष्णा और प्रश्न आया तो एक आदर्श राज्य एवं मूल्य परक समाज व्यवस्था निमित्त सीता परित्याग भी किया है।
इस अवसर पर उन्होंने हृदय पर पत्थर रख लोकहित में निर्णय लिया था, किंतु पत्नी संग भी अन्याय नहीं किया था, अपितु यह उनके दोहद काल की इच्छा पूर्ति से भी जुड़ा प्रसंग है। इस दृष्टांत का विशेष चित्रण कवि भवभूति ने अपने उत्तररामचरितम् में किया है। जीवन की प्रतिकूलताओं मे एक से कहीं अधिक बार सीता वियोग के बावजूद उनके हृदय में केवल और केवल भगवती सीता थी। तभी तो श्रीराम का एक प्रमुख नाम सीतापति भी है। राम मित्रों के लिए बंधु, सेवकों के ज्येष्ठ भ्राता और भाइयों के लिए पिता सदृश थे। ये आप उनके सहोदर भाई और नर वानरों संग व्यवहार के आधार पर कह सकते हैं। लक्ष्मण की मूर्छा, सुग्रीव और विभीषण को किए गए सहयोग तथा निषादराज एवं हनुमान संग प्रीत का प्रदर्शन इसके प्रमाण हैं।
दशरथनंदन श्यामल सुकोमल सुंदर राम कमलनयन और आजनुभुज हैं। वे रण में धीर,रघुवंशियों में वीर और व्यवहार में गंभीर हैं। इनका पराक्रम और गुण ऐश्वर्य कल्पनाओं से भी परे है। ये कारुण्य हृदय अभिमान रहित सुमधुरभाषी है। जितेंद्रिय और विनयी विनम्र श्रीराम कामदेव भस्मकर्ता शिवजी के उपासक हैं। सूर्यवंश के गौरव शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने वाले श्रीराम ऋषि-मुनि और संतों के सेवक तथा आनंद प्रदाता हैं। ये कथाएं हर रामायण में वर्णित एवं उल्लेखित हैं। श्रीराम देवों के हित रक्षक और असुर आतंकियों के सदा-सर्वदा काल हैं। इनके इन गुणों का सुंदर गान रामचरितमानस के अरण्य कांड में आया है। यहां अत्रि मुनि आश्रम में आए वनवासी श्रीराम के गुणों की प्रशंसा गोस्वामी तुलसीदास इन पदों से कर रहे हैं-
मदादि दोष मोचनं। प्रलंब बाहु विक्रमं।
प्रभोऽप्रमेय वैभवं। निषंग चाप सायकं।
धरं त्रिलोक नायकं। दिनेश वंश मंडनं।
महेश चाप खंडनं। मुनींद्र संत रंजनं।
सुरारि वृंद भंजनं।
ऋषि वाल्मीकि के रामायण रचना का तात्कालिक कारण भले क्रौंच पक्षी जोड़े का विषाद हो, किंतु आदि कवि अपने महाकाव्य का प्रारंभ ‘श्रीराम: शरणं समस्तजगतां रामं विना का गति’ नामक श्लोक से करते हंै। इसका अभिप्राय है कि श्री राम समस्त संसार को शरणागति देने वाले हैं। इनके इसी विराट व्यक्तित्व का विचार कवि मैथिली शरण गुप्त अपनी कालजयी रचना ‘साकेत’ में करते हैं। वे कहते हैं-
राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाय,सहज संभाव्य है।
इस प्रेरक पावन श्रीराम चरित्र की बात करें तो इसके निर्माण में यात्राओं का एक बड़ा योगदान है। यह श्रीराम के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को जानने का एक बड़ा माध्यम है। सम्पूर्ण राम चरित्र ही इन यात्रा गाथाओं के माध्यम से रचा गया है। ऐसी पांच यात्राएं इनके जीवन में आयी हैं। इनमें से प्रथम यात्रा में श्रीराम सहित चारों भाइयों की आरंभिक शिक्षा और तीर्थयात्रा संबंधित चर्चा है। शिक्षा के लिए गुरु वशिष्ठ के यहां जाना होता है जिसकी चर्चा कुछ यूं आई है- ‘गुरु गृह पठन गए रघुराई अल्प काल विद्या सब पाई।’ ऐसा वर्णन गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘रामचरितमानस’ में आया है।
वहीं तीर्थयात्रा प्रसंग की चर्चा बांग्ला की ‘कृतिवास’ एवं असमिया की ‘माधव कंदली’ रचित रामायणों मे आई है। पिता राजा दशरथ संग चारों पुत्र तीर्थ दर्शन यात्रा हेतु प्रयागराज जाते हैं। यहीं निषाद राज गुह और श्रीराम की प्रथम भेंट होती है। वही जीवन पर्यन्त चलने वाली मैत्री भी स्थापित होती है। इस यात्रा क्रम में भारद्वाज मुनि आश्रम भी जाना हुआ। यहां उन्हें अपनी पहचान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण निशान मिला। उन्हें एक दैवीय धनुष बाण की प्राप्ति हुई। देवताओं ने इस दिव्य शस्त्र को बांस से बनाया था।
इसे धारण करने के नाते ही इनका एक नाम कोदंड राम है। ऐसे ही लंका विजय उपरांत इनकी दो अन्य यात्राएं भी हुई हैं। इसमें प्रथम यात्रा भगवती सीता संग की गई तीर्थयात्रा है। वहीं दूसरी यात्रा अश्वमेध यज्ञ आयोजन से संबंधित है। इनके तीर्थयात्राओं वाले विवरण रामायण संग कई पुराणों में वर्णित हैं। इसका एक प्रमुख दृष्टांत पिता दशरथ की आत्मिक शांति एवं मुक्ति हेतु किया गया पिंडदान विधान भी है। जबकि अश्वमेध यज्ञ अश्व को वीर बालक लव कुश द्वारा रोक लिया जाना इनकी एक और यात्रा का कारण बना था। किंतु श्रीराम चरित्र के निर्माण संग इसका सर्वाधिक विस्तार केवल और केवल दो यात्राओं में है। इसमें प्रथम यात्रा अवधपुरी से मिथिलापुरी की है, जबकि दूसरी महत्वपूर्ण यात्रा लंकापुरी की है।
जनकपुरी वाली यात्रा ने ही सर्वप्रथम इनके पौरुष पराक्रम से जनमानस को परिचित कराया था। तब सर्वप्रथम विश्व ने राजपुत्रों को ऋषि कुमारों के रूप में बिना थके और मुख मलिन किए साधु पुरुषों की सेवा करते देखा था। इस प्रथम यात्रा ने ही दशरथ नंदन राम को श्रीराम और श्रीराम को प्रभु राम के रूप में सर्वग्राह्य बनाया है। अगर प्रभु श्रीराम की जनकपुर यात्रा के पड़ावों को देखें तो अयोध्या से जाने-आने के क्रम में ऐसे 28 स्थान हैं। इन सबकी अपनी कथा है। ये स्थल केवल एक पड़ाव मात्र न होकर श्रीराम की अद्वितीय अलौकिक गाथा के अमिट चिन्ह हैं। क्रमश:
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