मुलायम सिंह यादव की सरकार ने निहत्थे कारसेवकों पर गोलियां चलवाई थीं। इस कारण अनेक कारसेवक बलिदान हुए। मंदिर बनने से उन कारसेवकों के परिवार वाले आज बेहद प्रसन्न हैं
अयोध्या में होने वाली प्राण प्रतिष्ठा के लिए उन कारसेवकों के परिजनों को भी आमंत्रित किया गया है, जिन्होंने राम मंदिर के लिए अपने प्रणों की आहुति दी थी। ऐसे ही एक कारसेवक थे बलिदानी रमेश कुमार पांडेय। इनका परिवार अयोध्या में हनुमानगढ़ी मंदिर से थोड़ी दूरी पर रानी बाजार क्षेत्र में रहता है। 2 नवंबर, 1990 को 40 वर्षीय रमेश कारसेवकों की सेवा में लगे थे। उसी समय मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया। रमेश को भी गोली लगी और वे बलिदान हो गए। उनके छोटे बेटे सुरेश ने बताया कि पिता जी के बलिदान के समय मेरी मां की उम्र केवल 35 वर्ष थी और हम सभी भाई-बहन छोटे ही थे। रमेश ने 40 वर्ष पहले अयोध्या के राजपरिवार से एक घर किराए पर लिया था। अभी भी उनका परिवार उसी घर में रहता है। सुरेश ने बताया कि पिताजी के बलिदान होने के बाद पूरे परिवार की जिम्मेदारी मां पर आ गई।
उन्होंने ही मेहनत कर हम सबको पाला-पोसा। सुरेश अब खुद ही बाल-बच्चेदार हैं। इन दिनों वे एक छोटी-सी दुकान चला कर अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। सुरेश इस बात से बड़े खुश हैं कि उनके पिता ने जिस मंदिर के लिए बलिदान दिया, वह अब भव्य रूप ले रहा है।
‘रामभक्त चालानी’
कारसेवकों को जेल भेजे जाते समय एक प्रमाणपत्र दिया जाता था, जिसमें उसका अपराध क्या है और किस धारा के तहत उसे जेल भेजा जा रहा है आदि की जानकारी होती थी। उस प्रमाणपत्र पर साफ तौर पर लिखा जाता था, ‘‘उनका चालान रामभक्ति के कारण हुआ।’’ उनके ऊपर धारा 107/116 लगाई जाती थी, लेकिन आगे उसमें लिखा जाता था- ‘रामभक्त चालानी।’
एक अन्य बलिदानी हैं वासुदेव गुप्ता। इनका परिवार अयोध्या के नयाघाट क्षेत्र में रहता है। वासुदेव मिठाई की दुकान चलाते थे। इसलिए वे वासुदेव हलवाई के नाम से प्रसिद्ध थे। 1990 के दशक में जब कारसेवक अयोध्या आते थे, तो वे अपनी दुकान पर चाय-पानी पिलाते थे। इसी दौरान उन्होंने भी कारसेवा करने का निर्णय लिया। बलिदानी वासुदेव की पुत्री सीमा के अनुसार 30 अक्तूबर, 1990 को जब कारसेवकों पर गोलियां चलाई गईं तो पहली गोली उनके पिताजी को ही लगी। उन्हें तीन गोलियां लगी थीं। उनका शव रामकोट के पास मिला था। सीमा बताती हैं, ‘‘जब पिताजी बलिदान हुए तब हम तीन बहनें और दो भाई थे। हम लोगों की पूरी जिम्मेदारी मां पर आ गई थी। अभी परिवार ठीक से संभला भी नहीं था कि 1997 में एक बहन, 2008 में एक भाई और 2014 में माता जी हम लोगों को छोड़कर इस दुनिया से चली गईं। पिताजी के जाने बाद घर की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो गई। जैसे-तैसे गुजारा चल रहा था। इसकी जानकारी श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय जी को हुई तो उन्होंने भाई को राम जन्मभूमि के लॉकर विभाग में नौकरी दे दी है। उसी से परिवार का पालन हो रहा है।’’
एक और अमर बलिदानी हैं राजेंद्र धारकर। श्रीराम जन्मभूमि से महज आधे किलोमीटर की दूरी पर उनका घर है। उनके भाई रवींद्र धारकर ने बताया कि 30 अक्तूबर, 1990 का दिन था। मेरे 16 वर्षीय भाई, पिता और चाचा कारसेवा के लिए जाने लगे तो मैंने कहा कि मुझे भी ले चलो। तब मेरे भाई ने कहा कि अभी तुम बहुत छोटे हो। इसलिए तुम घर पर रहो। इसके बाद फिर भाई का शव ही देखना पड़ा। उनका शव भी बहुत कठिनाई से मिला था। रवींद्र का परिवार कई पीढ़ी पहले आजमगढ़ से अयोध्या जी में रोजगार की तलाश में आया था। अब यह परिवार बांस की टोकरियां बनाकर गुजारा करता है। हालांकि अब उन्हें प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। मंदिर के बनने से रवींद्र धारकर बेहद खुश हैं। वे कहते हैं, अब मेरे भाई का बलिदान सार्थक हो रहा है।
रामभक्त बने अपराधी
उन दिनों कारसेवकों को अयोध्या जाने से रोकने के लिए जगह-जगह पुलिस उन्हें पकड़ रही थी। एक ऐसे ही कारसेवक हैं मनोज अग्रवाल। वे कहते हैं, ‘‘28 अक्तूबर, 1990 को जब हमारा जत्था हरिगढ़ (अलीगढ़) के रामलीला मैदान से रेलवे स्टेशन के लिए प्रस्थान किया तो हमें गिरफ्तार कर जेल में डाल में दिया गया। जेल में लगातार रामभक्तों की संख्या बढ़ती जा रही थी। बाद में हम लोगों ने वहां संघ की शाखा भी शुरू कर दी।’’ उन्होंने यह भी बताया कि उन दिनों माहौल ऐसा था कि कोई केसरिया पटका लगाकर घर से बाहर निकलता था तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाता था। तिलक लगाने पर भी लोगों की गिरफ्तारी हो जाती थी। लोग पुलिस वालों के सामने राम-राम कहने से भी डरते थे। सनातन समाज इन बलिदानियों और उनके त्यागियों के ऋण से शायद ही कभी उऋण हो पाएगा।
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