त्रेतायुग में महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत में रामायण लिखी थी। आद्य शंकराचार्य और अन्य विद्वानों के अनुसार, श्वेतवाराह कल्प के सातवें वैवस्वत मन्वन्तर के चौबीसवें त्रेतायुग में भगवान विष्णु ने राम का अवतार धारण किया था। वाल्मीकि रामायण में 24,000 श्लोक और 500 उपखंड हैं, जो 7 काण्डों में विभाजित हैं। कालान्तर में जब संस्कृत बोलचाल की भाषा नहीं रही तो स्थानीय भाषाओं में अनेक रामायण लिखी गईं। हर भाषा की रामकथा में कुछ प्रसंग अलग हैं या अलग ढंग से लिखे गए हैं। लेकिन प्रत्येक रामकथा में कुछ अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग हैं। यहां हम देश की विभिन्न भाषाओं में लिखित रामकथाओं से कुछ दुर्लभ प्रसंग प्रस्तुत कर रहे हैं, इनका चयन मानस शिरोमणि डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता ने किया है
मैथिली रामायण
प्रसंग – रावण का श्वेत द्वीप जाना और पराजित होना
चंद्रा झा कृत मैथिली रामायण का एक अलग ही महत्व है। श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद महर्षि अगस्त्य ने रावण के जन्म का इतिहास बताया था। इसके अनुसार, शक्ति के मद में चूर रावण युद्ध करने की इच्छा से देश-देश घूमने निकला। रावण के श्वेत द्वीप जाने और पराजित होकर श्रीराम के हाथों मरने की कामना करने से जुड़ा यह अल्पज्ञात प्रसंग इस रामायण की अनेक विशेषताओं में से एक है।
नारद मुनि सौ दरशन आदि। पुछलनि तनिकां तट में आदि।।
हमर समान कतय बलधाम। जत हम करब घोर संग्राम।।
मुनि कहलनि आछि श्वेतद्वीप। पुष्पक-रथ पथ सकल समीप।।
विष्णुभक्त वा तत्कर-मरण। श्वेतद्वीप तनिक हो शरण।।
(मैथिली रामायण, उत्तरकाण्ड, अध्याय 4-2 से 5)
जब रावण की भेंट नारद मुनि से हुई, तो उसने पूछा, ‘‘हे मुनि, बताइए कि मेरे समान शक्तिशाली कहां है ताकि वहां जाकर मैं उससे युद्ध करूं?’’ नारद ने कहा, ‘‘श्वेतद्वीप एक ऐसा स्थान है, जहां विष्णु के भक्त मरते हैं या जो विष्णु के हाथों मरते हैं। यह श्वेतद्वीप उन्हीं लोगों का स्थान है। आप जा सकें तो वहां जाकर युद्ध करें।’’ यह सुनते ही रावण श्वेतद्वीप के लिए निकल गया। लेकिन श्वेतद्वीप के पास पहुंचते ही उसका पुष्पक विमान निष्क्रिय हो गया। अत: रावण पैदल ही आगे चल पड़ा। द्वीप पर एक वृद्ध महिला ने उसे पकड़ लिया और घुमा-घुमाकर उसकी दुर्दशा कर दी। फिर वृद्धा ने कहा, ‘‘तुमने यहां आकर बहुत बड़ी गलती की है। अब तुम इस दुस्साहस का फल भुगतो।’’ कुछ समय बाद रावण को ज्यों ही मौका मिला, वह चुपके से भाग निकला। लेकिन उस घटना का आतंक उसके मन में व्याप्त रहा। वह सोचने लगा कि अमर रहना किस काम का है? यह सोचकर रावण व्यथा और चिंता में डूब गया। उसने निश्चय किया कि अब वही काम करूंगा जिससे विष्णुजी के हाथों मृत्यु हो।
तकरे हेतु दशानन जानि। सीताहरण कथल हठ ठानि।।
रावण ने श्रीविष्णु भगवान के हाथों मरने का एक उपाय जानकर ही हठपूर्वक सीता-हरण किया। उसने सीताजी को माता तुल्य माना। इतना कहकर मुनि अगस्त्य ने अनेक प्रकार से श्रीरामजी की स्तुति की।
कम्ब रामायण
प्रसंग-किष्किन्धापुरी में मधुरभाषिणी तारा व लक्ष्मण का संवाद
महाकवि कम्बन कृत कम्ब रामायण तमिल भाषा में है। इसमें भी एक अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग है। बाली के मोक्ष प्राप्त करने के बाद उसकी पत्नी तारा को सुग्रीव की पत्नी न बनाकर कम्बन ने उसे विधवा ही रहने दिया है।
इसमें श्रीराम वर्षाकाल समाप्त होने पर लक्ष्मण से कहते हैं, ‘‘हमने जो अवधि निर्धारित की थी, वह बीत गई। सुग्रीव ने कृतज्ञता, वचन पालन आदि धर्म भी भुला दिया है। अत: तुम जाकर यह पता लगाओ कि उसका अभिप्राय क्या है।’’
नन्रि कौनररू निटपिनैनाररूत। तौन्रु मेय्म्मै शिदैत्तुरै पौय्तलुतात्।
कौनरु नीक्कुदल् कुररततुनीङगुमाल् शैन्रूमरखन् शिनदैयेत तेरहुवायु
(कम्ब रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, पटल 10-555)
सूर्य उदयगिरि से अस्तगिरि पर जिस रीति से जाता है, उसी रीति से स्वर्णाज्ज्वल शरीरी लक्ष्मण उन्नत उज्ज्वल एक पर्वत माल्यवान से दूसरे पर्वत पर स्थित किष्किन्धा की तरफ सवेग गए। लक्ष्मण को आता देख वानरों ने अंगद को बताया। अंगद सुग्रीव के महल में गया। सुग्रीव आमोद में मग्न थे। अंगद अपनी माता के महल में गया। तारा ने कहा कि तुम कृतघ्न हो। मैंने तुमको बहुत समझाया था कि विजयी श्रीराम ने सेना-संग्रह की अवधि निर्धारित की है। यदि यह अवधि बीत जाएगी तो तुम्हारे जीवन की अवधि भी समाप्त हो जाएगी। तुम सबने कभी भी ध्यानपूर्वक नहीं सुना। अब उसका फल भुगतो।
सार्थ श्रीतुलसी मराठी रामायण
श्रीरामजी का 14 वर्ष वनवास सहित तिथि पत्रक
सार्थ श्रीतुलसी रामायण (मराठी) के रचयिता नारायण भास्कर जोशी हैं, जिनके द्वारा स्कंद पुराण के आधार पर तैयार किया गया तिथि पत्रक हिन्दी में प्रस्तुत किया जा रहा है-
(1) श्रीसीताराम विवाह- वृश्चिक राशि में सूर्य मीन लग्न। (2) मार्गशीर्ष शुक्ल 5 श्रीरामचन्द्र की उम्र 15 वर्ष। श्रीसीताजी उम्र 6 वर्ष। (3) विवाह के पश्चात अयोध्या में 12 वर्ष तक निवास किया। (4) चैत्र वदी 6 (षष्ठी) को वनवास का प्रारंभ हुआ। श्रीरामजी की आयु 27 वर्ष तथा सीताजी की आयु 18 वर्ष थी। (5) प्रथम आहार चौथे दिन शृंगवेरपुर में 5वें दिन गंगा नदी पार की। पहले चित्रकूट और उसके पश्चात पंचवटी पहुंचे। बारह वर्ष वहां निवास किया। (6) शूर्पणखा के नाक-कान काटे। वनवास का 13वां वर्ष प्रारंभ हुआ। (7) माघ मास प्रारंभ, माघ शुक्ल 8 दोपहर 12 बजे बाद सीताजी का अपहरण हुआ। (8) आषाढ़ के प्रारंभ में सुग्रीव से भेंट हुई। (9) चातुर्मास में प्रवर्षण पर्वत पर निवास किया। (10) कार्तिक प्रारंभ 11 हनुमानजी ने समुद्र लांघा। (11) कार्तिक 13, रात्रि में सीता माता के दर्शन। अशोक वाटिका का विध्वंस किया। (12) कार्तिक 14, अक्षय कुमार वध, रावण का संभाषण, लंका दहन, सीताजी से चूड़ामणि लेकर हनुमानजी वापस समुद्र किनारे आए, वहां वानर मित्रों से भेंट। (13) समुद्र लांघ कर किष्किंधा आए, मार्गशीर्ष माह शुक्ल 6 प्रारंभ (14) मार्गशीर्ष शुरू 7 श्रीरामचन्द्रजी से मिले और उन्हें चूड़ामणि भेंट की। इस प्रकार सीता हरण से लेकर अभी तक 10 माह का समय व्यतीत हुआ। (15) मार्गशीर्ष 8 उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में लंका की ओर प्रस्थान। (16) मार्गशीर्ष चालू है। समुद्र पर पड़ाव डाला। (17) मार्गशीर्ष 1 से 4 दिन तक समुद्र किनारे विश्राम। (18) मार्गशीर्ष 4, विभीषण का श्रीरामजी की शरण में आना। (19) मार्गशीर्ष 5 से 8, श्रीरामजी द्वारा समुद्र से प्रार्थना। (20) मार्गशीर्ष 9, ब्राह्मण के रूप में समुद्र श्रीरामजी की शरण में आया। (21) मार्गशीर्ष 10, सेतुबंध का कार्य प्रारंभ हुआ। (22) मार्गशीर्ष 13 से 4 दिन में सेतु बंधन का कार्य पूर्ण। 100 योजन लंबा और 10 योजन चौड़ा सेतु बांधा गया। (23) मार्गशीर्ष 10 से पौष 9, सेना ने सागर पार किया, 18 पद्म सेनापति (24) पौष 3 से 10 तक लंका में सेना पहुंची। (25) पौष 11, शुक सारण रावण मंत्री, सभी ने सेना को देखा। (26) पौष 12, सेना के चार विभाग थे। एक ही बाण से छत्र, मुकुट आदि गिराए। (27) पौष 13 से 15 रावण की सेना युद्ध के लिए तैयार। (28) पौष कृ. 1, अंगद की शिष्टाचार भेंट। (29) पौष माह -युद्ध शुरू। (30) पौष 3-9 रावण की सेना से युद्ध, श्रीराम नागपाश में बांधे गए। (31) पौष 10, गरुड़जी ने नाग पाश काटा और वैकुंठ को गए। (32) पौष 11-12, भीषण युद्ध हुआ और धूम्रलोचन मारा गया। (33) पौष 13-30, नील आदि दैत्य मारे गए। (34) माघ शु. 1 से 4 रावण वानर युद्ध, लंका की ओर चले। (35) माघ शु. 5 से 8 कुंभकर्ण को जगाया। (36) माघ 9 से 14 तक छह दिन कुंभकर्ण से युद्ध व उसका मारा जाना। (37) माघ 15, कुंभकर्ण वियोग में रावण के रुदन के कारण युद्ध समाप्त। (38) माघ कृ. 1 से 5 श्रीरामचन्द्रजी ने नरान्तक आदि दैत्यों का वध किया। (39) माघ 6 से 8 भीषण संग्राम हुआ। अनेक दैत्यों का श्रीराम सेना द्वारा वध (40) माघ 8 से 13 कुंभ निशुंय नामक दैत्यों का वध। (41) माघ व 14 से फाल्गुन माह शुरू 2-जुमक नामक दैत्य का सेना सहित वध। (42) फाल्गुन 3 से 13 लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध बाद में मेघनाद का वध। (43) फाल्गुन 14, रावण के रुदन के कारण युद्ध अवकाश। (44) फाल्गुन 15, रावण युद्ध भूमि में युद्ध के लिए आया। (45) फाल्गुन कृ. 1 से 5, रावण ने दूसरों से युद्ध किया। अनेक सेनापति मारे गए। (46) फाल्गुन 9, लक्ष्मण जी मूर्च्छित हुए। हनुमानजी संजीवनी बूटी लाए। मूर्च्छा दूर हुई। (47) फाल्गुन 10, राम-रावण के मध्य घनघोर युद्ध हुआ। (48) फाल्गुन 11, मातलि रथ लेकर आए और श्रीरामजी उस पर सवार हुए। (49) फाल्गुन 12 से चैत्र शुरू। 14-18 श्रीराम रावण युद्ध शुरू। रावण मारा गया। (50) चैत्र शु. 15, रावण का दहन। (51) चैत्र कृ. 1, श्रीराम की विजय का उत्साह, इंद्र का आगमन, अमृत से वानर जीवित। (52) विभीषण को राज्य सौंपना। (53) चैत्र 3, सीता माता को बाहर लाया गया। सीता का अग्नि प्रवेश तथा शुद्धि। 14 महीने 10 दिन लंका में। (54) चैत्र 4, पुष्पक विमान अयोध्या नगरी के पास आया। (55) चैत्र 5, विमान प्रयाग में आया। (56) चैत्र 6 को 14 वर्ष पूर्ण। नंदीग्राम में भरत से भेंट। (57) चैत्र 7, राम का राज्याभिषेक, श्रीराम की उम्र 41 माता सीता की 32 वर्ष। (58) भाद्रपद शुरू 9, सीताजी गर्भवती हुर्इं। (59) चैत्र शु. 12, 7वें महीने में सीताजी का त्याग। (60) आषाढ़ 9, लवकुश का जन्म हुआ। श्रीरामजी का राज्य 11,000 वर्ष तक।
इधर, लक्ष्मण के चरण प्रहार से नगर द्वार दस योजन तक टूट कर बिखर गए। यह देख वानर सभी दिशाओं में भाग गए। लक्ष्मणजी नगर में प्रवेश कर गए। अंगद आदि यह देख-सुन कर भयभीत होकर तारा से पूछने लगे कि अब क्या करें? तारा ने कहा कि तुम सब यहां से हट जाओ। मैं लक्ष्मण से मिलूंगी और यह पता लगाऊंगी कि उनके आने का अभिप्राय क्या है?’’ तारा अपनी सखियों के साथ आगे बढ़ीं। लक्ष्मण राजमार्ग से सुग्रीव के विशाल महल में पहुंचे। तभी तारा ने उनका मार्ग रोक लिया। लक्ष्मण शीश झुकाकर भूमि पर अपने लंबे धनुष को टेक कर ऐसे खड़े रहे मानो कोई जवान पुरुष सांसों के मध्य फंस गया हो। तारा ने लक्ष्मणजी से कहा- हे वीरकुमार, आप पैदल चलकर इतनी दूर आए हैं। हमारे घर में आपका आगमन हुआ, इससे हम उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त हो गए। हमारा उद्धार हो गया। आपके एकाएक आने से वानर सेना में भय व्याप्त हो गया है। आप तो दया सागर श्रीराम के चरणों से कभी अलग होने वाले नहीं हैं। कृपया अपने आने का प्रयोजन तथा मनोभाव प्रकट करने का कष्ट करें। तारा की यह वाणी मधुर संगीत सी थी।
लक्ष्मण का क्रोध कम हुआ। उन्होंने थोड़ा मुख उठाकर तारा का सुन्दर मुख देखा, उनमें अहिवात (सुहागिन) के अभिरण नहीं थे। मणियां नहीं थीं। सुवासित और शहद-भरे पुष्पों की मालाएं, कुमकुम, चन्दन आदि के लेप का शृंगार नहीं था। यह देखकर उन्हें अपनी विधवा माताओं का स्मरण हो आया। वह अत्यधिक दु:खी हो गए और दयानिधि लक्ष्मण की आंखों से आंसू बह निकले। लक्ष्मण सोचने लगे कि मेरी दोनों माताएं (कैकेयी का स्मरण नहीं हुआ) ऐसी ही दिखती होंगी। इस विचार से उनका मन दुर्बल हो गया। पुन: सोचा कि प्रश्न करने वाली को उत्तर देना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘सूर्य-पुत्र (सुग्रीव) ने श्रीराम को वचन दिया था कि वे और उनकी सेना देवी सीता को खोजकर लाएगी। वह इस वचन को भूल गया है।’’ तारा ने कहा- प्रभु! छोटे लोग कुछ गलत करें तो बड़ों को क्रोध नहीं करना चाहिए। आप शांत हो जाइए। आप अत्यन्त गुणवान हैं। सुग्रीव कुछ भूले नहीं हैं। संसारभर में उन्होंने अपने दूत भेज दिए हैं। उनके आने की प्रतीक्षा में विलंब हो रहा है। आपने जो उपकार किया है, उसका प्रत्युपकार हो भी सकता है? यदि वह आपकी उपेक्षा करते हैं तो विफल हो जाएंगे।
लक्ष्मणजी को तारा पर दया आ गई। पास खड़े हनुमानजी समझ गए कि इनका क्रोध शांत हो गया है। हनुमानजी ने लक्ष्मणजी से कहा- इस संसार में अक्षय प्रेम रखने वाली माता और पिता, गुरु, देवतुल्य ब्राह्मण, गाय, बालक, स्त्री- इनकी हत्या करना बड़ा पाप है। पर ऐसे पाप का भी प्रायश्चित हो सकता है। कृतघ्नता का परिहार कहीं एक भी है क्या? कपिकुलपति सुग्रीव भूले नहीं हैं। विजय वाहिनी को बुलाने के लिए दूत भेजे जा चुके हैं। बस उनके आने की प्रतीक्षा है। लक्ष्मणजी ने मारुति के वचन सुनकर क्रोध त्याग दिया। इसके पश्चात लक्ष्मणजी सुग्रीव के पास गए। उधर, तारा भी अपनी दासियों और सहेलियों के वृन्द के साथ लौट गई। इस कथा प्रसंग में तारा के श्रेष्ठ-पवित्र आदर्श का चित्रण हुआ है।
उड़िया बैदेहीश विलास
प्रसंग 1- सीताहरण प्रसंग में श्रीराम द्वारा बगुले व मुर्गे को वरदान
उड़िया भाषा में उपेंद्र भञ्ज रचित बैदेहीश विलास में सीताजी के बारे में वृक्षों-लताओं, बगुले तथा मुर्गे द्वारा श्रीराम को दी गई जानकारी अन्य रामकथाओं से हटकर विशेषताएं लिए हुए है। जैसे-
बके बसिथिला ध्रुप उपरे। विष्णुपदकु भजिला उत्तारे।
बलक्ष पथकु अंगरे बहि। बहन सेलम नाशन बिहि।
बकता ए गिर। बिश्राम बार्ता कहिबा सुन्दर।
(उड़िया बैदेहीश-विलास छन्द 31-1)
व्याकुल-चित्त श्रीरामजी वृक्षों-लताओं तथा पशु-पक्षियों से पूछते हुए सीताजी को खोज रहे थे। तभी श्वेत पंखों वाला बगुला एक ठूंठ पर आ बैठा। वह अपने पंखों की सफेदी से आसपास के अंधकार का नाश कर रहा था। श्रीराम को देखकर उसने कहा, ‘हे सुन्दर! यदि आप यहीं कुछ समय के लिए विश्राम करें तो मैं आपकी प्रिया (सीताजी) का संदेश अवश्य कहूंगा।’
जिस वधू की प्राप्ति की कामना में आप वन में घूम रहे हैं, आपसे विरह के कारण कामदेव (कन्दर्प) उसका वध करने की चेष्टा में है। अपनी प्राणप्रिया के सौन्दर्य-गुण का आप जैसा बखान करके विलाप कर रहे हैं, ऐसी रूपवती रमणी को मैंने बीस भुजाओं वाले रावण को रथ में बैठा कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाते हुए देखा है। उनके नयनों से आंसू की बूंदें निकल रही थीं। कविजन कहते हैं कि मीन मोती उगलते हैं, किन्तु सीताजी के नयनों से जो अश्रु बिंदु गिर रहे थे, उन अश्रु बिंदुओं के सामने मोती उगलने का रहस्य भी बहुत तुच्छ है। इस कारण मीन मारे लज्जा के पानी में छिप जाती हैं और मैं उन्हें ढूंढकर भोजन करता हूं। सीताजी के कण्ठ से जो ‘राम राम’ स्वर निकल रहा था, उसके सामने वीणा का स्वर भी क्या मधुर हो सकता है?
‘‘श्रीराम आप कह सकते हैं, तू तो एक साधारण पक्षी है, तूने वीणा का स्वर कहां से सुना? किन्तु मैंने सुना है, वीणा सप्तस्वरों में बजती है। मेंढक के धैवत स्वर, मयूर के षडज और कोयल का पंचम स्वर है। इस विधान के अनुसार और सब स्वर भी सहज हैं अर्थात् गाय के वृषभ स्वर, बकरे के गान्धार स्वर, कौञ्च के मध्यम स्वर सुने हैं और हाथी के निषाद स्वर हैं। इस तरह मैंने सारे सात स्वर सुने हैं, किन्तु उस रमणी के कण्ठ स्वर की मधुरता इन सात स्वरों में से तो बिलकुल नहीं है, न एक साथ सात स्वर वाली किसी वीणा में होती है।’’
बगुले से सीता का संवाद सुनकर जब कृपालु श्रीराम ने उससे वरदान मांगने को कहा, तब उसने मांगा कि वर्षा ऋतु में अपने घोंसले में रहते हुए भी मुझे खाना मिल जाए अर्थात् बरसात में खाना ढूंढने के लिए मुझे कहीं बाहर जाना न पड़े। बगुले की बात सुनकर श्रीराम ने कहा, ऐसा ही हो। तुम्हारी पत्नी वर्षा ऋतु के चार महीने तक तुम्हें खाना लाकर दे। बगुले ने कहा, ‘वह खाना तो मेरी पत्नी की जूठन होगी।’ यह सुनकर श्रीराम ने उससे कहा, ‘पत्नी की जूठन खाने से तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा’।
प्रसंग 2 – श्रीराम द्वारा मुर्गे को वरदान
बोइला कुक्कुट शुणि सेक्षणि। बतिशलक्षणी चारु ईक्षणी।
बिहायस पथे गलाणि रथे। बसाइ ने उथिला रक्षनाथे।
बिलसे के आग। बिबेक होइता कथा प्रसंग।
(उड़िया बैदेहीश विलास, छन्द 31-9)
इसी तरह, जब श्रीराम विलाप करते हुए सीता को खोज रहे थे, तब उनकी बात सुनकर एक मुर्गे ने कहा, कुछ दिन पहले राक्षसराज रावण बत्तीस लक्षणों से युक्त सुन्दर नेत्रवाली एक सुन्दरी रमणी को रथ में बैठाकर आकाश मार्ग से ले जा रहा था। वह रमणी आपकी ही होगी, दोनों के वार्तालाप से ऐसा मालूम हो रहा था कि वह रमणी पहले किसी दूसरे की पत्नी थी।
मुर्गे ने कहा कि उस पुरुष के प्रति उस नारी के हृदय में जरा-सा भी अनुराग नहीं था, क्योंकि रावण के प्रति यदि उसका अनुराग होता तो उसके चक्षु मेघ उसके वक्षस्थल को इतना गीला क्यों करते? यदि आप में बल हो तो उस रावण का मस्तक छेदन कर उससे प्रतिशोध लें। मुर्गे से ऐसा सुनकर वीरों में श्रेष्ठ श्रीराम ने कहा, अरे मुर्गे, तू पक्षियों में प्रसिद्ध क्षत्रिय अर्थात् राजा है। तूने मेरी प्रिया का सन्देश मुझे दिया। इसलिए मैं तुझ पर बहुत प्रसन्न हूं। अत: तुझे यह वरदान देता हूं कि तेरा सिर सुवर्ण मुकुट से मण्डित हो, किन्तु यह सुनकर कि मुर्गा तो चर्म मुकुट चाहता है, श्रीराम ने उसे अपनी इच्छानुसार वरदान दिया।
अध्यात्म रामायण
प्रसंग – श्रीराम की चरणपादुका
वेदव्यास रचित अध्यात्म रामायण में श्रीराम द्वारा भरत को दी गई दिव्य चरण पादुकाओं का रहस्यपूर्ण वर्णन है। इसमें भरतजी ने श्रीराम को अयोध्या का राज्य संभालने तथा स्वयं को 14 वर्ष वनवास का विकल्प भी निवेदित किया है, तब-
भरतस्यापि निर्बन्धं दृष्टवा रामोऽतिविस्मित:।
नेत्रान्तसंज्ञां गुरवे चकार रघुनन्दन:।।
(अध्यात्म रामायण, अयोध्या काण्ड, सर्ग 9-41)
भरतजी का ऐसा हठ देखकर श्रीरामचंद्रजी ने अत्यन्त विस्मित होकर गुरु वशिष्ठजी को नेत्रों से संकेत किया। तब ज्ञानियों में श्रेष्ठ वशिष्ठजी ने भरत को एकान्त में ले जाकर कहा- वत्स! अब मैं जो कुछ कहता हूं, यह अत्यन्त ही गुप्त रहस्य की बात
ध्यानपूर्वक सुनो।
रामौ नारायण: साक्षाद् ब्रह्मणा याचित: पुरा।
रावणस्य वधार्थाय जांतो दशरथात्मज:।।
योगमायापि सीतेति जाता जनकनन्दिनी।
शेषोऽपि लक्ष्मणो जातो राममन्वेति सर्वदा।।
रावणं हन्तुकामास्ते गमिष्यन्ति न संशय:।
कैकेया वरदानादि यद्यन्निष्ठुर भाषणम्।।
(अध्यात्म रामायण, अयोध्या काण्ड, सर्ग 9-43-44-45)
भगवान् राम साक्षात् नारायण हैं। पूर्वकाल में ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर उन्होंने रावण को मारने के लिए दशरथ के यहां पुत्र रूप में जन्म लिया है। इसी प्रकार योगमाया ने जनकनन्दिनी सीता के रूप में अवतार लिया है और शेषजी लक्ष्मण के रूप से उत्पन्न होकर उनका अनुगमन कर रहे हैं। वे रावण को मारना चाहते हैं, इसलिए निस्सन्देह वन को जाएंगे। कैकेयी के जो कुछ वरदान मांगने आदि और अन्य निष्ठुर भाषण आदि कार्य हैं, वे सब देवताओं की प्रेरणा (इच्छा) से ही हुए हैं, नहीं तो कैकेयी ऐसे वचन कैसे बोल सकती थी? इसलिए हे तात्, तुम राम के अयोध्या लौट चलने का आग्रह त्याग दो। माताओं तथा विशाल सेना सहित अयोध्या को लौट चलो, राम भी कुल सहित रावण का संहार करके शीघ्र आ जाएंगे।
वशिष्ठजी के ये वचन सुनकर भरत को बहुत आश्चर्य हुआ और उन्होंने आश्चर्यचकित होकर श्रीराम के समीप जाकर कहा-
पादुके देहि राजेन्द्र राज्याय तव पूजिते।
तयो सेवां करोम्योव यावदागमनं तव।।
इत्युक्त्वा पादुके दिव्य योजयामास पादयो:।
रामस्य ते ददौ रामो भरतायातिभक्तित:।।
(अध्यात्म रामायण, अयोध्या काण्ड, सर्ग 9-49-50)
हे राजेन्द्र! आप मुझे राज्य शासन के लिए जगत् पूजनीय अपनी चरण पादुकाएं दीजिए। जब तक आप लौटेंगे, तब तक मैं उन्हीं की सेवा करता रहूंगा। ऐसा कहकर भरतजी ने श्रीराम के चरणों में दो दिव्य पादुकाएं (खड़ाऊं) पहना दीं। श्रीराम ने भरत का भक्तिभाव देखकर वे पादुकाएं उन्हें दे दीं। भरतजी ने रत्नजड़ित दिव्य पादुकाएं लेकर श्रीरामजी की परिक्रमा की और उन्हें बारंबार प्रणाम किया। तत्पश्चात भरतजी ने कहा- हे राम! यदि 14 वर्ष व्यतीत होने पर आप पहले दिन ही अयोध्या न पहुंचे, तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा। श्रीराम ने कहा ठीक है तथा भरतजी को विदा कर दिया। इस प्रकार वशिष्ठजी को आने वाले 14 वर्षों की जानकारी थी तथा वे भरत को समझा-बुझाकर अयोध्या ले गए।
गुजराती गिरधर रामायण
प्रसंग-लक्ष्मण रेखा
रह्यो रावण गुप्त थई ने वनमां वृक्षकुंजनी माहे,
पछी मारीच बेमुखी मृग थईने तत्क्षण आण्यो त्याहें।।
सीता ए बाड़ी कराछे मृग आव्यो तेने द्वार,
कुंदन जेवी त्वचा झलके शोभा नो नहि पार।।
(गुजराती गिरधर रामायण, अरण्य काण्ड, अध्याय 12-42-43)
इराक में मिले श्रीराम एवं हनुमानजी
प्रभु श्रीरामचन्द्र दुनिया के विभिन्न देशों में पूजे जाते रहे हैं। इस बात के पुरातात्विक और भाषा विज्ञान से जुड़े साक्ष्य उपलब्ध हैं। इराक के सिलेमानिया प्रांत में मौजूद दरबंद-ई-बेलूला दर्रे के पास उत्खनन में भगवान राम और हनुमानजी की दुर्लभ प्रतिमाएं पाई गई हैं। इन प्रतिमाओं के पाए जाने की पुष्टि खुद इराक सरकार ने की है। भारत द्वारा इस मामले में मांगी गई जानकारी के जवाब में इराक सरकार ने एक पत्र लिखकर इस बात की पुष्टि है। ईरान के पुरातत्व विभाग का दावा है कि ये प्रतिमाएं लगभग 6,000 वर्ष पुरानी हैं। भारत सरकार ने इन प्रतिमाओं से जुड़ी और जानकारी प्राप्त करने की इच्छा जाहिर की है।
वर्ष 2019 में इराक गए अयोध्या शोध संस्थान के प्रतिनिधिमंडल का दावा है कि उसे इराक की दरबंद-ई-बेलूला चट्टान में भित्तिचित्र देखने को मिले। उसका दावा है कि वास्तव में यह भित्तिचित्र भगवान राम की ही छवि है। भौगोलिक लिहाज से इराक का यह इलाका होरेन शेखान क्षेत्र में एक संकरे मार्ग से गुजरता है। भित्तिचित्र में एक बिना कपड़े ढके वक्ष वाले राजा को दिखाया गया है, जो धनुष पर तीर ताने हुए है। इस राजा के पास एक तरकश और उसकी कमर के पट्टे में एक खंजर या छोटी तलवार भी लगी है। इस छवि में प्रार्थना के अंदाज में मुड़ी हुई हथेलियों के साथ एक दूसरी छवि भी नजर आती है, जो हनुमानजी की है।
प्राचीन इतिहास में कई संदर्भ इस ओर पुख्ता इशारा करते हैं। ईसा पूर्व 4500 और 1900 के बीच लोअर मेसोपोटामिया पर सुमेरियों का शासन था। साक्ष्य बताते हैं कि वे भारत से आए थे और आनुवांशिक रूप से सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़े हुए थे। जाहिर है, अगर ये कड़ियां मिल जाती हैं, तो भगवान श्रीराम के अस्तित्व पर उंगलियां उठाने वालों को करारा जवाब मिलेगा।
रावण वन में वृक्षों के कुंज के अंदर छिपकर बैठ गया। तदनन्तर मारीच दो मुंह वाला हिरण बनकर तत्क्षण वहां आ गया। मृग को देखकर सीता मोहित हो गईं। सीताजी ने श्रीराम से कहा- हे महाराज, यह देखिए वह मृग, जिसकी त्वचा सोने की सी है। अत: हे भगवान! इस मृग का वध करके उसके चर्म की मेरे लिए कंचुकी बनवा दीजिए। हे स्वामी! चौदह वर्ष में से अब थोड़े दिन शेष हैं। उसके पश्चात् उसकी कंचुकी को पहनकर मुझे अयोध्यापुरी में जाना है। यदि आप मेरा कहा हुआ नहीं मानेंगे, तो मैं अपने शरीर को त्याग दूंगी। यह सुनकर श्रीराम हाथ में धनुष-बाण लेकर तैयार हो गए तथा लक्ष्मण से कहा- सीता की किसी अन्य स्थान पर ले जाकर रक्षा करना। यहां बहुत से राक्षस विचरण करते हैं। यह कहकर श्रीराम तत्क्षण मृग के पीछे चल दिए। अंत में श्रीराम ने उस मृग को एक आघात से मार डाला। इधर, लक्ष्मणजी पंचवटी में पर्णकुटी के बाहर खड़े होकर सीताजी की रक्षा कर रहे थे। रावण ने देखा कि श्रीराम मृग के पीछे-पीछे चले गए हैं और लक्ष्मण आश्रम में हैं। यदि मैं कपट करके लक्ष्मण को यहां से निकाल दूंगा तो मेरा कार्य सिद्ध हो जाएगा।
पछे रामना जेवो स्वर काढ़ी ने, रावणे पाडी रीर,
हुं महासंकटमां पड्यो छु माटे, धाजो लक्ष्मण वीर।
(गुजराती गिरधर रामायण अरण्य काण्ड, अध्याय 14-15)
अनन्तर श्रीराम के स्वर जैसा स्वर उत्पन्न करके रावण चिल्ला उठा। हे भाई लक्ष्मण! मैं बड़े संकट में पड़ गया हूं। अत: दौड़कर आ जाना। सीता ने यह सुना तथा उनके मन में शोक उत्पन्न हो गया। सीताजी ने कहा- देवरजी शीघ्र जाओ। बिना भाई के युद्ध में जाकर कौन आज संकट में सहायता कर सकता है। युद्ध में बंधु और संकट में मित्र, बुढ़ापे में स्त्री और विषमत (कठिन समय) में पुत्र पिता की निश्चय ही देखभाल एवं रक्षा करता है। अत: उनकी सहायता के लिए तुरंत चले जाओ। तब लक्ष्मण ने कहा, हे सीताजी सुनिए। ये कुछ कपट वचन जान पड़ते हैं। श्रीराम देवों के देव हैं, उनको कोई संकट हो ही नहीं सकता। लक्ष्मण ने कहा कि श्रीराम मुझे आपकी रक्षा हेतु सौंप गए हैं। अत: मैं विवश हूं। सीताजी ने तब अत्यन्त कटु शब्द कहे। उन्होंने कहा कि आंतरिक कपट के साथ तुम भाई का बुरा चाह रहे हो। लक्ष्मण ने सीताजी से कहा कि आप माता हैं, तो मैं आपका पुत्र हूं। श्रीराम को भगवान् जानकर सेवा करता हूं।
तदनन्तर उन्होंने उस समय कुटी के पीछे धनुष से रेखा खींच दी और बोले- हे जानकी, बिना हमारे आए यदि आप बाहर निकलीं तो आपको श्रीराम की शपथ है। मैं निश्चयपूर्वक यह कह रहा हूं कि बिना हमारे आए जो यह रेखा लांघकर कुटी में प्रवेश करेगा, वह प्राणी जलकर भस्म हो जाएगा। तत्पश्चात् रावण ने सीताजी को लक्ष्मण रेखा को पार करने के लिए विवश किया। जटायु से उसका युद्ध हुआ तथा उसके पंख काटकर घायल कर दिया। अंत में सीताजी का हरण कर लंका ले गया।
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