22 जनवरी को अयोध्या में चिर प्रतीक्षित राममंदिर के भव्य उद्धाटन के साथ समूचे देश में भारत की सनातन संस्कृति के पुनरोदय का शंखनाद होने वाला है; ऐसी पुनीत बेला में स्वामी विवेकानंद के कालजयी राष्ट्रमन्त्र सहज ही मन मस्तिष्क को उल्लसित उर्जोस्वित कर देते हैं। आज माँ भारती के इस वीर सपूत की 161वीं जयंती है। इस शुभ घड़ी में आइए जानते हैं कि स्वामी विवेकानंद का भारत के राष्ट्र पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के बारे में क्या कहना था। बताते चलें कि 31 जनवरी 1900 को शेक्सपियर क्लब, पासाडेना, कैलिफ़ोर्निया में दिये गये एक व्याख्यान में स्वामी विवेकानंद ने रामायण की कहानी सुनाते हुए आंग्ल संस्कृति के लोगों को श्री राम के चरित्र व आचरण की विशेषताओं के बारे बताते हुए कहा था कि अयोध्या के राजा राम का सम्पूर्ण जीवन प्राचीन भारत के सनातन जीवन मूल्यों का उच्चतम प्रतिमान है। एक शिष्य, एक राजा, एक पुत्र, एक पति, एक भाई व एक मित्र के रूप में मनुष्य का सर्वोत्तम आचरण कैसा होना चाहिए, यह श्रीराम के जीवन से सीखा जाना चाहिए। वह श्रीराम ही थे, जिन्होंने एक राजपरिवार से होते हुए भी उस भेदभावपूर्ण सामाजिक परिवेश में एक छोटी जाति की वनवासी स्त्री के जूठे बेर खाकर सामाजिक समरसता एक अनूठा उदाहरण समाज के सामने प्रस्तुत किया था।
यही नहीं; उक्त व्याख्यान सभा में सीता माता को भारतीय नारियों के आदर्श के रूप में स्थापित करते हुए उन्होंने कहा था कि आज भी भारत में महिलाओं को सीता होने का आशीर्वाद दिया जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि एक आदर्श पत्नी व माँ के रूप में माँ सीता का समूचा जीवन संघर्ष में बीता, किन्तु उन्होंने सारी पीड़ा सहर्ष सहन की और हर परिस्थिति में पति की अर्धांगिनी होने का कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभाया। जब आप उनके चरित्र का गहनता से अध्ययन करेंगे तो आपको साफ़ पता चल जाएगा कि भारत का नारी आदर्श पश्चिम के आदर्श से कितना भिन्न है। इसी तरह उन्होंने महावीर हनुमान के अतुलनीय चरित्र से सीख लेने की आवश्कता पर बल देते हुए कहा था कि वे अपनी इंद्रियों के पूर्ण स्वामी और अद्भुत रूप से बुद्धिमान थे जिन्होंने समुद्र को लांघकर समूची दुनिया को आश्चर्यचकित कर देने वाले वीरतापूर्ण साहसिक कार्य को अंजाम दिया था। उक्त सभा में स्वामी जी ने ऋषि वाल्मीकि की रामकथा का उदाहरण देते हुए कहा था कि प्राचीन ऋषियों की वाणी हमें उद्बोधित करती है कि यदि हम ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें काम-कांचन (वासना और अधिकार) का त्याग करना होगा।
जानना दिलचस्प हो कि स्वामी विवेकानंद के शिष्य स्वामी अनंत दास अपनी पुस्तक ” माई लाइफ विथ माई गुरु जी’’ में लिखते हैं कि उनके गुरु स्वामी विवेकानंद ने अयोध्या के राम मंदिर की भविष्यवाणी एक सौ बीस साल ही पहले कर दी थी। स्वामी विवेकानंद फाउनडेशन की एक वेबसाइट के हवाले से यूट्यूब पर प्रसारित इस जानकारी के मुताबिक120 साल पहले जब स्वामी जी कलकत्ता में एक राम मंदिर का उदघाटन करने गये थे तो उस अवसर पर जब किसी श्रद्धालु ने जब उनसे यह प्रश्न किया था कि प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या में उनके क्षतिग्रस्त मंदिर का पुनर्निर्माण कब होगा? तो इस बात पर स्वामी जी ने बहुत सुन्दर प्रत्युत्तर दिया था। उन्होंने कहा था कि जब भारत के सनातनधर्मियों में भारत के राष्ट्र पुरुष प्रभु श्रीराम के प्रति श्रद्धा अपने चरम पर पहुँच जाएगी तो राम मंदिर खुद ब खुद बन जाएगा। और आज उनके उस कथन की सत्यता प्रमाणित होती स्पष्ट देखी जा सकती है।
बताते चलें कि ‘हिंदू-राष्ट्र’ शब्दावली का प्रथम प्रयोग का श्रेय संभवतः भारतीय नवजागरण के महामनीषी स्वामी विवेकानंद को ही जाता है। 11 सितंबर 1893 को शिकागो के विश्व मंच से समूची दुनिया में सनातन धर्म की विजय ध्वजा लहराने वाले भारत के इस युवा संन्यासी ने ‘’हिंदुत्व’’ को भारत की राष्ट्रीय पहचान के रूप में प्रतिष्ठित किया था। एक ऐसे संक्रमण काल में जब पाश्चात्य संस्कृति में मोहपाश और ईसाई मिशनरियों के सुनियोजित षड्यंत्र ने समूची पच्छिमी दुनिया में भारत की छवि अधनंगे साधुओं, भिखमंगों और सपेरों के देश की बना बना रखी थी; वेदांत पर अपने तर्कपूर्ण संभाषण द्वारा स्वामी जी ने पूरी दुनिया में भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शक्ति कि ऐसी धूम मचायी थी कि मंच पर उपस्थित दुनिया भर के दिग्गज धर्मवेत्ता सनातन धर्म की महानता के आगे नतमस्तक हुए बिना न रह सके थे। हिंदू धर्म पर स्वामी विवेकानंद का स्पष्ट कहना था कि हिंदू धर्म का असली संदेश लोगों को अलग-अलग धर्म-संप्रदायों के खांचों में बांटना नहीं है, बल्कि पूरी मानवता को एक सूत्र में पिरोना है। गीता में भी भगवान कृष्ण ने भी यही संदेश दिया था कि अलग-अलग कांच से होकर हम तक पहुंचने वाला प्रकाश एक ही है।
भारत का ‘भारत’ से वास्तविक परिचय कराने में स्वामी विवेकानंद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। कहा जाता है कि एक संचारक के रूप में स्वामी जी की वाणी में यह ताकत थी कि वे अपनी ऊर्जा से अपनी बात सामने वाले के मस्तिष्क में पहुंचा देते थे। भगवान श्रीराम के आदर्शों को हृदयंगम करने वाले स्वामी विवेकानंद का समूचा जीवन सनातन और मानव समाज के लिए समर्पित रहा। अपने महान गुरु श्री श्री रामकृष्ण परमहंस और गुरु माता शारदादेवी के आशीर्वाद से विश्वभ्रमण कर हिंदुत्व का वैश्विक प्रसार करने वाले स्वामी विवेकानंद ने हिंदुत्व व हिंदू धर्म की सनातन शिक्षाओं के प्रचार प्रसार और दरिद्र नारायण की सेवा के लिए ही सबसे पहले कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में रामकृष्ण मठ की स्थापना की थी।
भगवान राम ने भेजा था स्वामी जी के लिए भोजन..!
स्वामी विवेकानंद की सुदृढ़ मान्यता थी कि यदि आप सच्चे मन से भगवान से प्रेम करते हैं तो आपको भोजन, पानी, कपड़ा और आश्रय जैसी अपनी बुनियादी जरूरतों की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। भगवान आपको सब कुछ खुद ब खुद प्रदान कर देंगे। उनके इस विश्वास को प्रमाणित करती एक किवदंती बंगाल में बहुत लोकप्रिय है। बात तब की बतायी जाती है जब स्वामी विवेकानन्द एक घुमंतू संन्यासी के रूप में पूरे भारत के भ्रमण पर थे। एक दिन वे बंगाल के तारी घाट के रेलवे प्लेटफार्म पर भूखे प्यासे बैठे थे। दो दिन से अन्न ग्रहण नहीं किया था और जेब में एक पैसा भी नहीं था। उसी दौरान भौतिक मानसिकता से ग्रसित एक अमीर व्यवसायी सेठ स्वामी जी के सामने आ बैठा और उसने उनके सामने तरह तरह के स्वादिष्ट व्यंजनों से भरा अपने भोजन का डिब्बा खोल दिया। वह सेठ ऐशो आराम की सुविधाजनक जिन्दगी जीने में विश्वास करता था और संन्यास की विचारधारा को अकर्मण्यता का पोषक मानता था। उसने स्वामी विवेकानंद से कहा “देखो मेरे पास खाने के लिए कितना स्वादिष्ट भोजन है और एक तुम हो जो सूखे गले और खाली पेट ही गुजारा करने को मजबूर हो।“ व्यवसायी की इन बातों पर स्वामी जी ने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी और शांत भाव से बैठे रहे। इतने में ही अचानक एक अजनबी व्यक्ति भोजन और पानी लेकर स्वामी विवेकानंद के पास आया और जल्दी से एक साफ जगह पर चटाई बिछाकर स्वामी जी से भोजन करने का अनुरोध करने लगा। स्वामी जी उसके हाव-भाव से आश्चर्यचकित होते हुए बोले कि हो सकता है कि आप पहचानने में भूल कर रहे हों क्यूंकि मैं आपको पहचानता तक नहीं तो भोजन क्यों ! इस पर उस अजनबी व्यक्ति ने आखों में आँसू भर कर स्वामी जी से कहा कि बीती रात को उसके स्वप्न में स्वयं उसके आराध्य भगवान राम आए थे और उन्होंने ही उसे तार घाट स्टेशन पर बैठे संन्यासी को भोजन कराने का आदेश दिया था। यह सुनते ही ईश्वर के प्रति कृतज्ञ भाव से स्वामी जी की आंखें भर आईं और उन्होंने बहुत ही प्रेमपूर्वक उस भोजन को स्वीकार कर भोजन कराने वाले व्यक्ति को धन्यवाद दिया। इस पर उस व्यक्ति ने विनम्रता से कहा, नहीं! नहीं! स्वामी जी मुझे धन्यवाद मत दीजिए! यह सब मेरे आराध्य श्रीरामजी की आदेश है। यह समूचा घटनाक्रम अपनी आँखों से देख सामने बैठा व्यापारी सेठ अपने व्यवहार पर शर्मिंदा होते हुए स्वामी जी के चरणों में गिर गया।
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