रामायन सतकोटि अपारा

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रवि कुमार

महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण और तुलसीदास के रामचरितमानस के अतिरिक्त रामायण की रचना अनेक भाषाओं में हुई है। इससे पता चलता है कि हिन्दू जगत में रामायण का कितना महत्व और प्रभाव है

इन दिनों सम्पूर्ण देश व जगत राममय है। जन-जन के मुख पर राम का नाम है। 22 जनवरी, 2024 को श्रीराम जन्मभूमि पर रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा हो रही है। इतिहास बनने जा रहे इस विशेष घटनाक्रम के कारण मन में जो राम बसे हैं, उसकी अभिव्यक्ति सर्वदूर मुख से हो रही है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा है, ‘‘राम नाम कर अमित प्रभावा, वेद पुरान उपनिषद गावा।।’’ (बालकांड 1.46) श्रीराम के काल से आज तक राम नाम का प्रभाव अमिट है। तुलसी ने आगे कहा है, ‘‘नाना भांति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।।’’ (बालकांड 1. 1. 33) अर्थात् राम के अनेकानेक अवतार हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं।

वाल्मीकि रामायण

रामायण के बारे में दो बड़े ग्रंथ हैं जिनकी सर्वाधिक चर्चा है- वाल्मीकि रामायण व तुलसीकृत रामचरितमानस। वाल्मीकि रामायण तो राम के काल की ही है और रामकथा के बारे में सबसे सटीक माना जाता है। राम का काल कब का है, इस संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं। इसी प्रकार वाल्मीकि रामायण की रचना के बारे में भी विद्वानों विभिन्न मत हैं। वाल्मीकि नारद जी से प्रश्न (वाल्मीकि रामायण 1/2-5) पूछते हैं कि इस संसार में श्रेष्ठ गुणवान मनुष्य कौन है? तो नारद जी इसका उत्तर देते हैं-
इक्ष्वाकुवंशप्रभवोरामो नाम जनै:श्रुत:।
नियतात्मामहावीर्योद्युतिमान्धृतिमानवशी॥ (वा. रा. बाल. – 1/8)
उल्लेखनीय है कि वाल्मीकि किसी अवतारी पुरुष के विषय में नहीं पूछते बल्कि वे उस आदर्श मनुष्य को जानना चाहते हैं, जिसमें ये सारे गुण हैं। उत्तर में नारद ‘इक्ष्वाकुवंशप्रभवो’ अर्थात् इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न, साम्प्रतम् और अस्मिन्लोके का ही वर्णन करते हैं, अपने परमाराध्य वैकुण्ठवासी श्री विष्णु का नहीं। वाल्मीकिकृत रामायण में वे मनुष्य रूप में ही वर्णित हैं।

संस्कृत में रचित वाल्मीकि रामायण में सात अध्याय- बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किन्धाकांड, सुन्दरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड एवं कुल 24,000 श्लोक हैं। समग्र भारतीय वाड्मय एवं विश्व वाड्मय के सहस्राधिक ग्रंथों, नाटकों, काव्यों व महाकाव्यों का यह आधारभूत ग्रंथ है।

रामायण के बारे में दो बड़े ग्रंथ हैं जिनकी सर्वाधिक चर्चा है- वाल्मीकि रामायण व तुलसीकृत रामचरितमानस। वाल्मीकि रामायण तो राम के काल की ही है और रामकथा के बारे में सबसे सटीक माना जाता है। राम का काल कब का है, इस संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं। इसी प्रकार वाल्मीकि रामायण की रचना के बारे में भी विद्वानों विभिन्न मत हैं।

संस्कृत के अन्य ग्रंथ

वाल्मीकि रामायण के अलावा भी संस्कृत के अनेक ग्रंथों का आधार रामकथा है। यथा-

1. अध्यात्म रामायण (सन् 1500)
2. योगवासिष्ठ (ग्यारहवीं शताब्दी)
3. अद्भुत रामायण (सन् 1600)
4. आनंद रामायण (सन् 1600)
5. तत्त्व संग्रह रामायण (सन् 1700)
6. भुशुण्डिरामायण
7. रामविजय
8. रामलिंगामृत
9. राघवोल्लास
10. मंत्ररामायण
11. उदरराघव
आदि रामकथा आधारित रामायण हैं।

तुलसीदासकृत रामचरितमानस

तुलसीदासकृत रामचरितमानस की रचना 16वीं शताब्दी (सन् 1574-76) में हुई। विक्रमी संवत् 1631 रामनवमी (मंगलवार) से प्रारंभ होकर विक्रमी संवत् 1633 मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष रामविवाह के दिन पूर्ण हुआ यह ग्रंथ अवधी भाषा में रचा गया। भारत में हिंदी भाषा का विस्तार क्षेत्र काफी बड़ा है, इसलिए रामचरितमानस की व्याप्ति हिंदी भाषी क्षेत्र के जन-जन तक है। तुलसी ने स्वांतसुखाय काव्य रचना की परंतु उसमें लोकमंगल और मानव के चारित्रिक उन्नयन की भावना सन्निहित है।
गोस्वामी जी ने स्वयं कहा है-
नाना पुराण निगमागम सम्मत यद्रामायणेनिगदितंक्वचिदन्योऽपिस्वान्त:सुखाय
तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा निबंधमतिमंजुल मातनोति॥
अर्थात् यह ग्रंथ नाना पुराण, निगम-आगम, रामायण तथा कुछ अन्य ग्रंथों की सहायता से रचा गया है और तुलसी ने अपने आंतरिक सुख के लिए रघुनाथ की गाथा कही है।

रामचरितमानस गोस्वामी जी के लिए लोक जागरण व लोक संस्कार का माध्यम है। राम शील, सौंदर्य और शक्ति का समन्वित रूप हैं। वे मर्यादापुरुषोत्तम है और उनका चरित्र आदर्श है। वाल्मीकि रामायण की तरह ही इसमें भी सात अध्याय (सात कांड) है, जिनमें श्रीराम कथा को दोहा, चौपाई एवं अन्य छंदों में वर्णित किया गया है। सुंदर कांड का पाठ तो सर्वदूर शुभ आयोजनों का मुख्य विषय है।

वाल्मीकि रामायण में रामचरित के साथ भारतीय जीवन-मूल्यों को समाहित किया गया है। रामचरित भारतीय संस्कृति का पर्याय है। समय-समय पर साहित्यकारों-कवियों ने समाज के बदलते परिवेश में रामायण को नए रूप में जीवंत किया है। रामायण के माध्यम से नूतन सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा हुई है।

भारतीय भाषाओं में रामकथा

संस्कृत में वाल्मीकि रामायण और हिंदी (अवधी) में रामचरित मानस के अलावा सभी भारतीय भाषाओं में रामकथा की रचना हुई है।
रामकथा पर आधारित कुछ प्रमुख काव्य रचनाए-
परम चरिउ -छठीं से बारहवीं शताब्दी तक उत्तर भारत में साहित्य व बोलचाल की भाषा अपभ्रंश (संस्कृत का रूप) कहलाती थी। अपभ्रंश के प्रबंधात्मक साहित्य के प्रमुख कवि हुए स्वयंभू (सत्यभूदेव)। स्वयंभू ने रामकथा पर आधारित 12,000 पदों वाली कृति ‘परम चरिउ’ की रचना की। जैन मत में राजा राम के लिए ‘पदम्’ शब्द का उपयोग होता है, इसलिए स्वयंभू की रामायण को ‘पद्म चरित’ (परम चरिउ) कहा गया। मूल रूप से इस रामायण में 92 सर्ग थे, बाद में स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने अपनी ओर से 16 सर्ग और जोड़े।

उड़िया रामायण – कवि सारलादास ने ‘विलंका रामायण’ की रचना की। अर्जुनदास ने ‘राम विभा’ और कवि बलरामदास ने उड़िया में ‘जगमोहन रामायण’ की कृति की। इस कृति को दक्षिणी रामायण भी कहा जाता है।
बांग्ला रामायण- बांग्ला के संत कवि पंडित कृत्तिदास ओझा ने 15वीं शताब्दी में ‘रामायण पांचाली’ नामक रामायण की रचना की। नित्यानंद आचार्य की ‘आश्चर्य रामायण’, कविचंद्र कृत ‘अंगद रायबार’, रघुनन्दन गोस्वामी की ‘राम रसायन’ तथा चंद्रावती की ‘रामायण गाथा’ भी बांग्ला कृतियां हैं।
पूर्वोत्तर में रामायण- असमिया साहित्य के सबसे बड़े कवि माधव कंदली ने कछारी राजा महामाणिक्य की प्रेरणा से 14वींं शताब्दी में वाल्मीकि रामायण का असमिया में सरल अनुवाद किया। एक कवि दुर्गावर ने 16वीं शताब्दी में ‘गीति-रामायण’ की रचना की। प्रमुख कवि व साहित्यकार शंकरदेव ने उत्तरकांड को पुन: असमिया में अनूदित किया। मणिपुरी में ‘कृत्तिवास रामायण’ का अनुवाद ‘बिरबहुतुबा’ नाम से हुआ। कवि लबंग सिंह कौन्थौजम्ब का ग्रंथ ‘रामनोडगाबा’ मणिपुरी का उल्लेखनीय ग्रंथ है।
कश्मीरी रामायण – 1750-1900 के मध्य प्रेमाख्यान काल में प्रकाश राम ने रामायण की रचना की। 18वीं शताब्दी के अंत में दिवाकर प्रकाण भट्ट ने भी ‘कश्मीरी रामायण’ ग्रंथ रचा।
पंजाबी रामायण – सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा रचे गए 11 ग्रंथों में से एक ‘रामावतार’ को ‘गोविंद रामायण’ कहा जाता है। सन् 1696 में पूर्ण हुई इस ‘गोविंद रामायण’ में 864 छंद हैं।
गुजराती रामायण – 14वीं शताब्दी में आशासत ने गुजराती में रामलीला विषयक पदावली की रचना की। 15वीं शताब्दी में भालण ने सीता स्वयंवर रामकाव्य प्रस्तुत किया। 19वीं शताब्दी में लिखित गिरधरदास की रामायण लोकप्रिय है।
मराठी रामायण – संत एकनाथ जी ने ‘भावार्थ रामायण’ की रचना की, पर वे इस रचना को पूरा नहीं कर पाए और इसे उनके शिष्य गाववा ने पूर्ण किया।
तमिल रामायण – आज से 1200 वर्ष पूर्व हुए महाकवि कंबन ने ‘कंब रामायण’ काव्य की रचना की।
तेलुगु रामायण – तेलुगु साहित्य में 13वीं शताब्दी में ‘रंगनाथ रामायण’, 14वीं शताब्दी में ‘भास्कर रामायण’ की रचना हुई। तेलुगु की चार महिला साहित्यकारों ने भी रामायण की रचना की है। मधुरवाणी की ‘रघुनाथ रामायण’, शिरभु की ‘सुभद्रा रामायण’, चेबरोलु सरस्वती की ‘सरस्वती रामायण’ तथा मोल्ल की ‘मोल्ल रामायण’ काफी प्रसिद्ध हैं। मोल्ल रामायण का हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है।
कन्नड़ पंप रामायण – कन्नड़ साहित्य के पंप युग (सन् 950-1150) के प्रसिद्ध कवि नागचंद्र ने पंप रामायण की रचना की, इसे ‘रामचंद्रचरित पुराण’ भी कहा जाता है। वहीं नरहरि नामक कवि ने ‘तोरवे रामायण’ की रचना की। 19वीं शताब्दी में देवचंद्र नामक जैन कवि ने ‘रामकथावतार’ लिखा। इसी शताब्दी में मुद्दण नामक कवि ने ‘अद्भुत रामायण’ की रचना की
मलयालम रामायण – चौदहवीं शताब्दी में युद्ध कांड की कथा के आधार पर प्राचीन तिरुवनाकोर के राजा ने ‘रामचरित’ नामक काव्य की रचना की। इसी शताब्दी में कवि राम पणिकर ने गेय छंदों में ‘कणिशश रामायण’ की रचना की। इसके बाद रामकथा-पाट्ट रचा गया और वाल्मीकि रामायण के अनुवाद के रूप में ‘केरल वर्मा रामायण’ सामने आईं। 1600 के लगभग एजुत्तचन द्वारा ‘अध्यात्म रामायण’ की प्रस्तुति हुई।

तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा है, ‘‘राम नाम कर अमित प्रभावा, वेद पुरान उपनिषद गावा।।’’ (बालकांड 1.46) श्रीराम के काल से आज तक राम नाम का प्रभाव अमिट है। तुलसी ने आगे कहा है, ‘‘नाना भांति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।।’’ (बालकांड 1. 1. 33) अर्थात् राम के अनेकानेक अवतार हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं।

‘रावणवहो’ महाराष्ट्री प्राकृत भाषा का महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसकी रचना खमीर के राजा प्रवरसेन द्वितीय ने की थी, जिसे बाद में सेतुबंध ने संस्कृत में अनूदित किया। 19वीं शताब्दी में कवि भानुभट्ट ने नेपाली में ‘सम्पूर्ण रामायण’ लिखी, जिसका नेपाल में तुलसीकृत रामचरितमानस के समान स्थान है। बौद्ध मत में राम को ‘बोधिसत्त्व’ मानकर जातक कथाओं में स्थान दिया गया है। बौद्ध मत के थेरवाद व दशरथ जातक में रामकथा का वर्णन है। मैथिली में महाकवि चंदा झा की ‘चंद्र रामायण’ (सन् 1886), महाकवि लालदास की ‘रमेश्वर चरित रामायण’ (सन् 1909), ‘सीतायन’, ‘अंब चरित’ प्रमुख रामकथा ग्रंथ हैं।

वाल्मीकि रामायण में रामचरित के साथ भारतीय जीवन-मूल्यों को समाहित किया गया है। रामचरित भारतीय संस्कृति का पर्याय है। समय-समय पर साहित्यकारों-कवियों ने समाज के बदलते परिवेश में रामायण को नए रूप में जीवंत किया है। रामायण के माध्यम से नूतन सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा हुई है।
(लेखक विद्या भारती जोधपुर प्रांत के संगठन मंत्री हैं)

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