श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या : 6 दिसंबर, 1992
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श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या : 6 दिसंबर, 1992

अयोध्या आंदोलन में 6 दिसंबर, 1992 का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। इस दिन कारसेवकों ने विवादित ढांचे को ढहा दिया था। इसके बाद न्यायालय के आदेश पर वहां का पुरातात्विक सर्वेक्षण हुआ। वहां मिले साक्ष्यों के आधार पर न्यायालय ने भी माना कि जहां विवादित ढांचा था, वही श्रीराम की जन्मभूमि है

by प्रभात झा
Jan 9, 2024, 07:00 am IST
in भारत, विश्लेषण, उत्तर प्रदेश
अयोध्या में कारसेवकों को संबोधित करते अशोक सिंहल (फाइल फोटो)

अयोध्या में कारसेवकों को संबोधित करते अशोक सिंहल (फाइल फोटो)

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अब जब 22 जनवरी 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करने जा रहे हैं, तब 6 दिसंबर, 1992 का वह दिन बहुत याद आ रहा है। सच में वह सपना साकार हो रहा है, जिसे भारत के लोग वर्षों से देखते आ रहे हैं।

यह मेरा सौभाग्य था कि मैं पत्रकार के नाते 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में उस परिसर में खड़ा था, जहां माथे पर भगवा पट्टी बांधे सैकड़ों कारसेवक देखते-देखते ढांचे के गुंबद पर चढ़ गए। उन लोगों ने घंटे-दो घंटे में विवादित ढांचे को धूल-धूसरित कर दिया। मैं एक दिसंबर को ही अयोध्या पहुंच गया था। हाथ में डायरी और कलम थी, साथ ही बैग में कैमरा। हम पूरे अयोध्या में घूमते थे। चौक-चौराहों पर यह चर्चा सुनते थे-पता नहीं, मंदिर कब बनेगा! अन्यान्य राज्यों से कारसेवकों का अयोध्या आना शुरू हो चुका था। केरल से कश्मीर तक कोई ऐसा राज्य नहीं था, जहां से कारसेवक का आना न हो रहा हो। उन कारसेवकों की चिंता के लिए अशोक सिंहल, गिरिराज किशोर, मोरोपंत पिंगले व्यवस्था की दृष्टि से अलग-अलग बैठकें ले रहे थे।

प्रभात झा, पूर्व सांसद

2 दिसंबर, 1992 को लोगों के आने का सिलसिला और बढ़ गया। विवादित ढांचे के पास ही बिजली विभाग के कुछ इंजीनियर विद्युत व्यवस्था के लिए तैनात रहते थे। मुझे इनसे काफी मदद मिली। रोज-रोज की रिपोर्ट भेजने के लिए एसटीडी टेलीफोन बूथ ही एकमात्र सहारा था, क्योंकि तब मोबाइल फोन, व्हाट्सअप या ईमेल की सुविधा नहीं थी और न कंप्यूटर का जमाना था। वहां के एसटीडी बूथ पर भीड़ ज्यादा होने के कारण समय से सूचनाएं भेज पाना संभव नहीं था। विद्युत विभाग के एक इंजीनियर के सहयोग से एसटीडी बूथ से खबरें भेजना मेरे लिए आसान हो गया। 3 दिसंबर,1992 की बात है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सह-सरकार्यवाह सुदर्शन जी वहां हम सभी पत्रकारों से मिले। (स्वदेश समाचार पत्र को प्रारंभ करने में बतौर मध्य भारत के प्रांत प्रचारक सुदर्शन जी और जनसंघ के संगठन मंत्री कुशाभाऊ ठाकरे का बड़ा योगदान था।) मैंने सुदर्शन जी को बताया कि मैं ‘स्वदेश’ समाचार पत्र से आया हूं।

मेरा नाम प्रभात झा है। उन्होंने हाल-चाल पूछा और यह भी पूछा कि विश्व संवाद केंद्र के लोगों से भेंट हुई कि नहीं? मैंने कहा, अभी तक नहीं हुई है। सुदर्शन जी ने कहा कि विहिप से जारी खबरों के लिए आप श्री रामशंकर अग्निहोत्री (जो अब नहीं रहे) से जरूर संपर्क कर लें। फिर उन्होंने यह भी पूछा कि तुम कहां रुके हो? मैंने कहा, छोटी छावनी के महंत श्री नृत्य गोपाल दास जी के आश्रम में। सुदर्शन जी ने हम सभी पत्रकारों को यह भी कहा कि कोई भी दिक्कत हो तो रामशंकर अग्निहोत्री और वीरेश्वर द्विवेदी से मिल लेना। 3 दिसंबर की सायं अयोध्या के सभी भोजनालयों में भोजन समाप्त हो गया था। प्रसाद के लिए कारसेवकपुरम में लोग टूट पड़े थे। अयोध्या में सभी आश्रमों और मंदिरों में भोजन के लिए कारसेवकों का तांता लग गया था।

पत्रकारों ने 3 दिसंबर की रात्रि से ही यह अनुमान लगाना शुरू कर दिया था कि 6 दिसंबर तक यहां कारसेवकों की संख्या 3-4 लाख हो जाएगी। 4 दिसंबर को अयोध्या के राष्ट्रीय राजमार्ग पर जब हमने निगाहें दौड़ाईं तो कारसेवकों के सिवा कुछ और नहीं दिख रहा था। देशभर से कारसेवक आ रहे थे, लेकिन सर्वाधिक कारसेवक उत्तर प्रदेश के थे। राष्ट्रीय राजमार्ग थम सा गया था। हजारों वाहनों के पहिये रुक गए थे।

गले में भगवा पट्टी और माथे पर भगवा साफा बांधे हजारों कारसेवक नारे लगा रहे थे-‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’, ‘जो राम राम का नहीं, वह किसी काम का नहीं।’ हनुमानगढ़ी, कनक भवन, वाल्मिीकि मंदिर, छोटी छावनी से लेकर सैकड़ों मंदिरों में भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। लखनऊ, फैजाबाद और अयोध्या से प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस के वाहन अयोध्या की ओर आ रहे थे। पूरी अयोध्या पुलिस छावनी बन चुकी थी। वातावरण राममय और भगवामय हो गया था। हमने हिंदुत्व का ऐसा ज्वार पहले कभी नहीं देखा था। कोई मलयाली बोल रहा था, कोई तेलुगू, तो कोई तमिल बोल रहा था। पहनावे से अलग-अलग राज्यों के लोगों को पहचाना जा सकता था।

4 दिसंबर को हमने अयोध्या से लखनऊ मोटरसाइकिल से जाने की योजना बनाई, लेकिन रास्ते भर कारसेवकों का हुजूम था। हजारों वाहनों की कतारें हमारी हिम्मत को तोड़ रही थीं। हमें वापस लौटना पड़ा। वाहन चालक कई दिनों से यहीं फंसे पड़े थे। वे कहने लगे, अब तो हमारा भोजन भी समाप्त हो गया है। उन लोगों ने ही बताया कि गोरखपुर, मुजफ्फरपुर, पटना और देश के अन्य हिस्सों में भी यही हाल है। जब हम वापस अयोध्या लौट कर आए तो यहां रास्ता ही नहीं मिल रहा था। अधिकतर कारसेवक कह रहे थे कि इस बार तो आर या पार होगा। कारसेवकों के चेहरे पर सहसा गुस्सा भी दिख जाता था, लेकिन उनका गुस्सा संगठन के अनुशासन के कारण बंधा हुआ था। इस बीच रामलला परिसर में लोग ढोल-धमाकों के साथ आने लगे थे। जन्मभूमि न्यास के माध्यम से मंच भी बनने लगा था। सूर्य भगवान अस्त हो रहे थे, पर एक नए सूर्योदय का संदेश दे रहे थे। न डर का, न भय का वातावरण था। राम की भक्ति अयोध्या की धरती पर नया इतिहास रच रही थी। चित्रकार सत्यनारायण मौर्य (बाबा मौर्य) ने पूरी अयोध्या की दीवारों को अपनी तूलिका से राममय कर दिया था।

5 दिसंबर को ढाई बजे रात से ही लोग सिर पर पोटली लिए सरयू तट की ओर निकल पड़े थे। इस भीड़ में गरीब-अमीर का भेद नहीं था। सब रामरस में सराबोर होकर समरस हो गए थे। हमें मानव सिर के अलावा कुछ और दिख ही नहीं रहा था। सरयू में डुबकी लगाने की होड़ लगी थी। हम कुछ पत्रकार भी धक्के खाते हुए सरयू तट पर पहुंच गए। वहां पर स्व-अनुशासन का संगम दिख रहा था। लोग एक-दूसरे की सहायता कर रहे थे। पुलिस-प्रशासन ने सरयू नदी में बांस के खंभों से बैरिकेट्स बना रखे थे। सरयू तट के किनारे पुण्य बटोरने में माता-बहनों के साथ बच्चे भी पीछे नहीं थे। 5 दिसंबर को अरुणोदय के समय सरयू तट सूर्य की लालिमा से आच्च्छादित था। ज्यों-ज्यों सूर्य भगवान पृथ्वी पर प्रकट हो रहे थे त्यों-त्यों लोग अपने-अपने बर्तन में सरयू का जल लेकर अर्घ्य दे रहे थे।

5 दिसंबर को दोपहर में रामलला परिसर में मंच बनकर तैयार हो गया। विवादित ढांचे के चारों ओर पुलिस ही पुलिस तैनात थी। हम कुछ पत्रकारों ने रात में तत्कालीन जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक से बात की। हमने उनसे पूछा कि इस अनियंत्रित भीड़ को कैसे संभालेंगे? अधिकारियों ने कहा कि हम लोगों ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह जी को अयोध्या और उसके आस-पास की जानकारियों से अवगत करा दिया है। इसी बीच हम सभी को सूचना मिली कि विहिप के अध्यक्ष अशोक सिंहल, विहिप के वरिष्ठ नेता गिरिराज किशोर सहित भाजपा के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी, वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी, साध्वी उमा भारती, बजरंग दल के जयभान सिंह पवैया, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा और आचार्य धर्मेंद्र जैसे दिग्गजों की 6 दिसंबर को रामलला परिसर में सभा होगी। 5 दिसंबर की रात्रि को अपार जनसमूह जमा हो गया था। लाखों लोगों ने सरयू किनारे 5 दिसंबर की सारी रात बिताई।

6 दिसंबर की भोर को तीन-साढेÞ तीन बजे से ही सरयू में डुबकियों का शोर कंपकंपाते होठों से सिर्फ रामधुन और जय श्रीराम के नारे लग रहे थे। अरुणोदय की किरणें जैसे-जैसे सूर्योदय की ओर जा रही थीं, वैसे-वैसे लोगों के पग रामलला के दर्शन की ओर बढ़ रहे थे। हम सभी को लग रहा था कि नेताओं के भाषण होंगे और रामशिला का पूजन होगा। लेकिन कह सकते हैं कि 6 दिसंबर के सूर्योदय के गर्भ में इतिहास छुपा था, जिसकी जानकारी दोपहर 11-12 बजे के बीच दुनिया को हो गई। सुबह के 10 बजते ही आंदोलन के प्रणेता अशोक सिंहल मंच पर उपस्थित कारसेवकों को कहते हैं कि बैरिकेड्स को कोई भी पार न करे।

इसी बीच मंच पर लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. जोशी, साध्वी उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा और आचार्य धर्मेंद्र आते हैं। हमलोग भीड़ में सुदर्शन जी के पास खड़े थे। जैसे ही घड़ी की सुई दिन के 11 पर गई, अचानक हजारों कारसेवक विवादित ढांचे के परकोटे की ओर कूद पड़े। अशोक सिंहल माइक से आग्रह करते रहे, लेकिन रामभक्तों के मन में अग्नि की तरह धधकता राम ज्वार विवादित ढांचे पर फूट पड़ा। देखते-देखते कुछ लोग ढांचे के गुंबदों पर चढ़ कर भगवा ध्वज फहरा दिया और जय श्रीराम के नारे लगाने लगे। कंटीली तारों से लहू-लुहान लोग विवादित ढांचे को ध्वस्त करने पर उतारू हो गए। यह देख कुछ लोग शांत थे, लेकिन अधिकांश लोग रोमांचित हो रहे थे। वहां जो घट रहा था वह अविस्मरणीय, अद्वितीय और अकल्पनीय था।

रोकने वाले कारसेवकों को रोकते रहे, पर कारसेवक विवादित ढांचे को तोड़ते रहे। साधु-संत, बूढ़े-जवान सब उस घट रहे इतिहास के साक्षी बनना चाह रहे थे। पुलिस भीड़ को तितर-बितर कर रही थी। इस बीच पता चला कि मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने प्रशासन को सख्त निर्देश दिए थे कि चाहे जो हो, लेकिन कार सेवकों पर गोली नहीं चलेगी। 11:25 बजे पहला गुंबद ढहना शुरू हुआ। वह कौन-सी अदृश्य शक्ति थी, वह कौन सा अदृश्य साहस था, जो विवादित ढांचे को तोड़ रहा था इसे कोई नहीं देख पा रहा था। डेढ़ से दो घंटे में तीनों गुंबद ढहा दिए गए। इसी बीच पुजारियों ने रामलला को गुलाबी चादरों में लपेटकर उन्हें उचित स्थान पर स्थापित कर दिया। ढांचा तोड़ते समय अनेक लोग घायल हुए, कई लोगों की मृत्यु भी हुई, लेकिन कारसेवक अपने काम से डिगे नहीं। थोड़ी देर बाद वहां पर परमहंस रामचंद्र दास जी, महंत नृत्य गोपाल दास जी और अशोक सिंहल भी वहां आए और उन्होंने रामलला के दर्शन किए।

एक-एक घटनाक्रम की जानकारी मैं स्वदेश के संपादकीय विभाग को देता रहा। इस समाचार को स्वदेश के पाठकों तक पहुंचाने के लिए मेरा ग्वालियर जाना जरूरी था। साथी ओमप्रकाश तिवारी के साथ मोटरसाइकिल से 6 दिसंबर को दिन के 2 बजे अयोध्या से निकल पड़े। छुपते-छुपाते फैजाबाद पहुंचे। लखनऊ में पता चला कि सिर्फ अयोध्या में नहीं, बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में कर्फ्यू लग चुका है। अयोध्या और फैजाबाद में आग की लपटें देख हम भी घबरा गए थे। वहां से जैसे तैसे शाम 6-7 बजे कानपुर पहुंचे। वहां से बीहड़ों से होते हुए इटावा आ गए। रात लगभग 10:30 बजे इटावा से ग्वालियर के लिए रवाना हुए। इस बीच अपने प्रधान संपादक राजेंद्र शर्मा और संपादक जयकिशन शर्मा को बता दिया कि हम रात्रि 2 बजे तक ग्वालियर पहुंच जाएंगे। हालांकि रास्ते में खतरे कम नहीं थे।

आखिर रामजी का काज था, कोई कैसे रोक सकता था। रात्रि 12 बजे हम मध्य प्रदेश की सीमा भिंड में प्रवेश कर चुके थे। अब हमें 70-75 किमी की यात्रा और करनी थी। थकान से देह टूट रही थी, लेकिन आंखों के सामने घटित इतिहास और उसका चित्र पाठकों तक पहुंचाने का रोमांच इस थकान पर भारी था। रात्रि लगभग 2 बजे स्वदेश कार्यालय पहुंचे और आंखों देखी रिपोर्ट लिखी। 7 दिसंबर की सुबह अयोध्या का आंखों देखा हाल सचित्र पाठकों की आंखों के सामने था। उस दिन तीन बार स्वदेश और दोपहर का सांध्यवार्ता पांच बार छपा। हम सात दिसंबर को पुन: बचते-बचाते अयोध्या पहुंचे। वहां से लगातार पांच दिन तक रिपोर्टिंग करते रहे।

अब जब 22 जनवरी 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करने जा रहे हैं, तब 6 दिसंबर, 1992 का वह दिन बहुत याद आ रहा है। सच में वह सपना साकार हो रहा है, जिसे भारत के लोग वर्षों से देखते आ रहे हैं।
जय श्रीराम!! 

Topics: 6 दिसंबर1992श्रीराम जन्मभूमि अयोध्यास्वदेशजन्मभूमि न्यासराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघकारसेवकmanasसरयू तटरामलला हम आएंगे-मंदिर वहीं बनाएंगेजो राम राम का नहीं-वह किसी काम का नहीं।
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