नई पीढ़ी में कम ही लोगों ने ‘अंतुले प्रकरण’ के बारे में सुना होगा। कानून के क्षेत्र में लंबा चलने वाला कोई भी विषय गहरे निहितार्थ लिए होता है, जो समय से साथ न केवल स्पष्ट होते जाते हैं, बल्कि आने वाले समय के लिए एक दृष्टांत भी बन जाते हैं। अब ईडी द्वारा जारी समनों की अवहेलना एक नए तरीके के तौर पर उभर रही है। क्या इसे इस दौर के अंतुले कांड के रूप में देखा जाना चाहिए?
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) का उल्लेख आमतौर पर छापेमारी, गिरफ्तारी, संपत्ति की कुर्की जैसी कार्रवाई के संदर्भ में होता है। हाल के समय में ईडी का ज्यादा उल्लेख उसके समनों का सम्मान न किए जाने को लेकर हो रहा है। दो मुख्यमंत्री- झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ईडी द्वारा जारी समनों की अवहेलना कर रहे हैं।
ईडी ने अरविंद केजरीवाल को 3 जनवरी को पूछताछ के लिए पेश होने को कहा था। लेकिन उन्होंने पूछताछ के लिए पेश न होने के कारणों के रूप में राज्यसभा चुनाव, गणतंत्र दिवस समारोह और प्रवर्तन निदेशालय के ‘खुलासा न किए जाने’ और ‘उत्तर न देने’ के दृष्टिकोण का हवाला दिया है। पिछले दो समनों पर अपनी उस समय की प्रतिक्रिया में केजरीवाल ने अपने पत्र में आरोप लगाया था कि समन भाजपा के इशारे पर जारी किए गए थे। यह भी कहा था कि यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें किस हैसियत में बुलाया जा रहा है- एक गवाह के तौर पर या एक संदिग्ध के तौर पर।
इसी तरह, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने धनशोधन मामले में ईडी के सात समन ठुकराए हैं। प्रश्न उठता है कि ईडी द्वारा जारी समन की अवहेलना करने का क्या अर्थ माना जाए?
कानून की दृष्टि से बात करें, तो ईडी दशकों पहले से अस्तित्व में थी, लेकिन 2002 में बने धनशोधन रोकथाम अधिनियम 2002 (पीएमएलए) ने धनशोधन से निपटने में इसकी भूमिका को सशक्त कर दिया है। इस अधिनियम की धारा 50 में समन जारी करने, दस्तावेज प्रस्तुत करने और साक्ष्य देने आदि के संबंध में अधिकारियों की शक्तियों का प्रावधान किया गया है। इस धारा के अनुसार, निदेशक के पास वही शक्तियां होंगी, जो तलाशी और निरीक्षण के मामलों के संबंध में मुकदमे की सुनवाई करते समय, बैंकिंग कंपनी या वित्तीय संस्थान या कंपनी के किसी भी अधिकारी सहित किसी भी व्यक्ति की पेशी कराने और शपथ पर उसकी जांच करने, रिकॉर्ड पेश करने के लिए बाध्य करने, शपथपत्रों पर साक्ष्य प्राप्त करने, गवाहों और दस्तावेजों की जांच के लिए कमीशन जारी करने के संबंध में एक सिविल कोर्ट में सीपीसी के तहत निहित हैं।
इतना ही नहीं, धारा 63 पीएमएलए में जानकारी देने में विफल रहने या गलत जानकारी देने के लिए सजा का भी प्रावधान है। इसमें प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण रूप से गलत जानकारी देता है, जिसके कारण इस अधिनियम के तहत गिरफ्तारी या तलाशी होती है, तो दोषी पाए जाने पर उसे दो वर्ष तक की कैद या 50,000 रुपये तक का जुर्माना या दोनों हो सकता है।
उपर्युक्त प्रावधानों से कोई भी मुख्य रूप से समन जारी करने के संबंध में ईडी की शक्ति के दायरे और सीमा को स्पष्ट रूप से समझ सकता है।
यदि व्यक्ति पेश होने से इनकार कर दे तो कानून में भारतीय दंड संहिता (जो अब संशोधित की जा चुकी है) की धारा 174 लागू करने का प्रावधान है, जिसमें ईडी का समन मिलने पर उपस्थित न होने की स्थिति में एक महीने की जेल और/या 500 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। पीएमएलए की धारा 63 (4) कहती है, ‘‘…जो व्यक्ति जान-बूझकर धारा 50 के तहत जारी किसी भी निर्देश की अवज्ञा करता है, तो उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 174 के तहत कार्रवाई भी की जा सकती है।’’
इसकी प्रक्रिया बहुत स्पष्ट ढंग से निर्धारित है। एक व्याख्या यह है कि पीएमएलए की धारा 63 के तहत किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए ईडी को आईपीसी की धारा 174 के तहत मामला दर्ज करना होगा। इसके बावजूद यह माना जा सकता है कि ईडी द्वारा जारी समनों की अवहेलना करने का तरीका बहुत लंबे समय तक कारगर नहीं रह सकता है और इस कारण इसे इस दौर के अंतुले कांड के रूप में नहीं देखा जा सकता है। अंतुले कांड का एक पहलू हर कदम को कानूनी भूल-भुलैया में उलझाना जरूर था, लेकिन हाल के सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को देखते हुए यह संभावना भी न के बराबर मानी जा सकती है।
ईडी के समन पर पेश होना निश्चित रूप से इच्छा होने अथवा न होने का विषय नहीं है, बल्कि यह एक आदेश है, जिसका कानून का पालन करने वाले किसी भी नागरिक द्वारा पालन करना होता है। और यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो इसे कानून का उल्लंघन माना जा सकता है। यदि अवज्ञा की ऐसी कार्रवाई संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों द्वारा की गई है, तो ईडी द्वारा समन जारी करने के उद्देश्य के मद्देनजर यह एक गंभीर चिंता का विषय है।
ईडी द्वारा किसी भी व्यक्ति को समन जारी करने का उद्देश्य किसी न किसी वित्तीय अपराध से संबंधित साक्ष्य और जानकारी इकट्ठा करना होता है। बीमारी की स्थिति जैसे कुछ अपरिहार्य कारणों को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को इसका पालन करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। समन जारी करने के पीछे ईडी का उद्देश्य जांच में आवश्यक या अपेक्षित व्यक्तियों की उपस्थिति सुनिश्चित करना है और यही उसका कानूनी कर्तव्य भी है।
जहां तक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा ईडी के समन की अवज्ञा का मामला है, ईडी का समन दिल्ली शराब बिक्री नीति की जांच के संबंध में जारी किया गया है, जिस नीति को बाद में वापस ले लिया गया। दिल्ली आबकारी शुल्क शराब नीति नवंबर 2021 में लागू हुई थी और जुलाई 2022 में समाप्त कर दी गई थी। यह अन्य राज्यों में प्रचलित नीतियों से अलग थी और कथित तौर पर इससे सत्ता में कई लोगों को अनुचित लाभ हुआ। आरोपों की जांच करने के लिए ईडी को मामले की तहकीकात करने की आवश्यकता है और इसके लिए उन सभी को समन जारी करने की आवश्यकता है, जो संभवत: इस प्रक्रिया में अपेक्षित हो सकते हैं।
इसी तरह की अवहेलना छत्तीसगढ़ राज्य में अवैध भूमि खनन घोटाले की जांच में देखी गई है, जिसमें ईडी ने पीएमएलए की धारा 50 के तहत बार-बार समन जारी कर व्यक्ति के साथ-साथ पारस्परिक रूप से सुविधाजनक स्थान, तारीख और समय पर बयान दर्ज करने के लिए कहा था। अब अगर ईडी के समन का अनुपालन न करना जारी रहता है, तो ईडी अपने समन का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए आगे क्या कदम उठा सकता है, जो जांच की सामान्य प्रक्रिया है और जिसके लिए ईडी को अधिकार प्राप्त हैं?
पीएमएलए के कुछ प्रावधानों की वैधता, व्याख्या और पीएमएलए के तहत अपराधों की जांच करते समय प्रवर्तन निदेशालय द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया को विजय मदनलाल चौधरी बनाम के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह कहते हुए चुनौती दी गई थी कि यह असंवैधानिक है। इस मामले में फैसला वर्ष 2022 में आया, जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अधिकृत अधिकारियों द्वारा की गई जांच में गवाहों को भी समन जारी किया जा सकता है। और अगर अन्य सामग्री और सबूतों के आधार पर आगे की पूछताछ के बाद ऐसे व्यक्ति (माने जिसे नोटिस दिया गया) की संलिप्तता का पता चलता है, तो अधिकृत अधिकारी निश्चित रूप से उसके खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं।
ऐसी स्थिति में, समन जारी करने के चरण में कोई व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत बचाव का दावा भी नहीं कर सकता है। यह प्रकरण अभी धीरे-धीरे आकार ले रहा है। इसमें आने वाली अड़चनें एक सबक का काम भी कर सकती हैं। कानून का प्रवर्तन सिर्फ श्वेत-श्याम शब्दों पर निर्भर नहीं होता। लोगों की कानून के प्रति निष्ठा और सम्मान भी इसका पक्ष होते हैं। प्रश्न उनके प्रवर्तन का भी है।
(लेखिका श्रीराम जन्मभूमि मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रामजन्म भूमि न्यास की ओर से अधिवक्ता रही हैं)
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