अयोध्या जी में बन रहे भव्य मंदिर के गर्भगृह में दिनांक 22 जनवरी 2024 को श्री रामलला विराजने वाले हैं। प्रभु के बाल रूप के श्री विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की तैयारियां लगभग पूरी हो चुकीं हैं। इसी के चलते मंदिर निर्माण स्थल पर मंदिर के शिल्पकार (श्रमिक और अभियंता) कई शिफ्टों में लगातार काम कर रहे हैं।
अब जब प्रभु रामलला अपने घर विराजने वाले हैं तो टीम पाञ्चजन्य अयोध्या में चल रही तैयारियों को देखने के अलावा उन बलिदान हुए कारसेवकों के घर जाकर ना सिर्फ उनका हालचाल ले रही है बल्कि आज वह किस हालत में हैं और मंदिर निर्माण को देखते हुए कैसा महसूस कर रहे हैं, उसको भी जानने का प्रयास कर रही है। इस रिपोर्ट में हम बात करेंगे उस बलिदानी रामभक्त की जिसने केवल 16 वर्ष की आयु में कारसेवा करते हुए प्रभु राम के लिए अपने प्राणों का बलिदान तक दे दिया था।
रामजन्मभूमि से महज आधे किलोमीटर की दूरी स्थित राजेन्द्र धरकार के घर टीम पाञ्चजन्य जब पहुंची तो हमारी मुलाकात बलिदानी राजेंद्र धरकार के भाई रवींद्र प्रसाद धारकर से हुई। राजेंद्र धारकर के घर के बगल में नाला बना हुआ है जिसे पार करने के लिए अस्थाई तौर पर एक सीमेंट का बेहद पतला रास्ता बनाया गया है।
आर्थिक तंगहाली से गुजर रहा परिवार
दिखने में बेहद साधारण से घर में कई बेसिक चीजों का आभाव हमें दिखाई दिया। दो कमरों के बने घर में ठीक से प्लास्टर न हो पाना बता रहा था कि कैसे परिवार आर्थिक तंगहाली की स्थिति से गुजर रहा है। बता दें कि राजेंद्र के भाई रवींद्र के 3 बेटे और 3 बेटियां हैं। 6 संतानों के इस परिवार का गुजरा जैसे-तैसे चल रहा है। बलिदानी राजेंद्र के भाई रविन्द्र ने हमें बताया की उनका परिवार कई पीढ़ियों पहले आजमगढ़ से अयोध्या जी में रोजगार की तलाश में आया था।
बांस की टोकरियों से चल रहा परिवार का गुजरा
रविन्द्र धारकर ने मामूली आय से अपने परिवार का भरण-पोषण करने के संघर्ष को उजागर करते हुए बताया कि वह बांस की टोकरियों की बिक्री करते हैं लेकिन अब उन्हें प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने जोर देकर कहा कि उत्पन्न आय दैनिक खर्चों को कवर करने के लिए पर्याप्त नहीं है, और इसके अलावा, उन पर अपने माता-पिता द्वारा लिए गए ऋण को चुकाने की वित्तीय जिम्मेदारी भी है।
उत्साह से कारसेवा में भाग लेने गए थे राजेन्द्र धारकर
पाञ्चजन्य से बात करते हुए जिस दिन उनके भाई का बलिदान हुआ उस दिन को याद करते हुए रवींद्र ने कहा- “मुझे अभी भी 30 अक्टूबर, 1990 का दिन याद है। यह एकादशी का शुभ दिन था। कारसेवा में भाग लेने के लिए देश भर से बहुत सारे लोग आ रहे थे। मेरे भाई, पिता और चाचा भी साथी कारसेवकों में शामिल होने के लिए तैयार हो रहे थे। जब मैंने उनसे मुझे अपने साथ ले जाने के लिए कहा, तो मेरे भाई ने कहा, “तुम अभी छोटे हो”। मैं तब 8 साल का था। मुझे छोड़कर वह कारसेवा में हिस्सा लेने गये थे और वहीं उनकी हत्या कर दी गयी। मेरे भाई केवल 16 साल के थे लेकिन वह अपना योगदान देना चाहते थे। इसी के चलते वह पूरे उत्साह के साथ कारसेवा में भाग लेने के लिए शामिल हो गए। कारसेवकों पर आंसू गैस छोड़ी जा रही थी और फिर फायरिंग की जा रही थी उसी में एक गोली मेरे भाई को लगी और उनका मौके पर ही स्वर्गवास हो गया।
गोली चलने की खबर से सहम गया था परिवार
राजेन्द्र धारकर ने बताया जब हमारे परिवार को गोली चलने की खबर मिली तो सभी चिंतित हो उठे और मेरे भाई को ढूंढने निकल गए। परिवार के लोग वहां पहुंचे जहां गोली चलाई गई थी लेकिन हमें वहां कुछ पता नहीं चल सका।
बड़े संघर्ष से मिला शव
जब कहीं कुछ पता नहीं चला तो भारी मन से परिवार के लोग अस्पताल पहुंचे जहां कई घायल कारसेवक मौजूद थे जब परिजनों को उन सब में मेरा भाई नजर नहीं आया तो वह अस्पताल के उस परिसर में पहुंचे जहां कारसेवकों के शवों को रखा गया था। वहां कई शवों के बीच खोजबीन के बाद जमीन पर अस्त-व्यस्त पड़ा हुआ हमारे भाई का शव दिखाई दिया। जब अंतिम क्रिया के लिए परिजन मेरे भाई का शव ले जाने लगे तो उन्हें प्रशासन द्वारा रोक दिया गया।
बिना अंतिम क्रियाओं के किया अंतिम संस्कार
उसके बाद शव को पोस्टमार्टम के लिए ले जाया गया। पोस्टमार्टम के बाद काफी संघर्ष के बाद आखिरकार प्रशासन ने मेरे भाई के शव को इस शर्त पर दिया कि वह इसे घर नहीं ले जाएंगे। अंततः मजबूरन भाई के शव को हमें सीधे श्मशान घाट ले जाना पड़ा और बिना कई अंतिम क्रियाओं के अंतिम संस्कार करना पड़ा।
सफल हुआ भाई का बलिदान
रवीन्द्र धारकर ने मंदिर निर्माण को लेकर कहा- आखिरकार, राम मंदिर बनाया जा रहा है। जिसे लेकर हम बहुत खुश है। जिस कार्य के लिए मेरे भाई सहित कई लोगों ने अपनी जान दे दी आज वह पूर्ण हो रहा है। मेरे भाई द्वारा किया गया बलिदान अब सफल हुआ है। अब मेरे भाई सहित उन सभी लोगों की आत्मा को शन्ति मिलेगी जिन्होंने इस दिन के लिए अपना बलिदान दिया।
सरकार दे हम पर ध्यान
आगे पाञ्चजन्य से बात करते हुए राजेन्द्र ने कहा- “इस ख़ुशी के साथ हम ये भी चाहते हैं कि कोई हमारी और हमारी हालत पर ध्यान दे। हम अब भी वैसे ही हैं जैसे थे। किसी ने हमारी समस्या नहीं सुनी। किसी ने यह जांचने की जहमत नहीं उठाई कि हुतात्मा (बलिदानी) का परिवार कैसे गुजर-बसर कर रहा है। हम कर्ज में डूबे हुए हैं।
जब उनसे सरकार से उनकी अपेक्षाओं के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ”मैं ज्यादा कुछ नहीं चाह रहा हूं। मुझे खुशी होगी अगर ट्रस्ट या सरकार हमें दुकान स्थापित करने के लिए मंदिर परिसर के भीतर एक निर्दिष्ट स्थान प्रदान करें दें।
टिप्पणियाँ