1947 में ‘राष्ट्रधर्म’ पत्रिका की शुरुआत की थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के 15 दिन बाद ही इस प्रेरणादायी पत्रिका का पहला अंक प्रकाशित हुआ था। पत्रिका का एक बोध वाक्य था-धर्म क्या है? इसकी व्याख्या तो जरूरी है ही, राष्ट्रधर्म क्या है, इसे जानना भी बहुत जरूरी है।
पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने 1947 में ‘राष्ट्रधर्म’ पत्रिका की शुरुआत की थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के 15 दिन बाद ही इस प्रेरणादायी पत्रिका का पहला अंक प्रकाशित हुआ था। पत्रिका का एक बोध वाक्य था-धर्म क्या है? इसकी व्याख्या तो जरूरी है ही, राष्ट्रधर्म क्या है, इसे जानना भी बहुत जरूरी है।
भारत रत्न नानाजी देशमुख कहते थे कि राष्ट्रधर्म चार पुरुषार्थों की एक ऐसी संकल्पना है, जिसे हम धरातल पर उतार सकते हैं। बीते 9 वर्ष में भारत दुनिया के अग्रिम देशों की पंक्ति में शामिल हो गया है। यह राष्ट्रधर्म के कारण ही संभव हुआ है। वर्तमान नेतृत्व, उसकी कार्यशैली और दृष्टिकोण, राष्ट्रधर्म से प्रेरित है। उसके पीछे धर्म की शक्ति है।
मंदिर और धर्म को परस्पर जोड़ने पर पहला विषय आता है-श्रद्धा या आस्था। दीनदयाल शोध संस्थान ने देशभर में सर्वेक्षण कर यह पता लगाने का प्रयास किया कि मंदिरों में श्रद्धा और आस्था से इतर क्या-क्या है? इसमें हमें 65 आयाम दिखे। जैसे- मंदिर में छुआछूत नहीं दिखा, सामाजिक समरसता का वातावरण दिखा। वहां शांति रहती ही है।
अधिकांश मंदिर समृद्धि का आभास कराते हैं। इसमें सबसे बड़ा आयाम वास्तुकला का है, जिसे हम मंदिरों के माध्यम से प्रोत्साहित करते हैं। सोमनाथ मंदिर या देश के अन्य समृद्ध मंदिरों की बारीक नक्काशी के आगे ताजमहल भी फीका है। अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर में लोहे का प्रयोग नहीं हो रहा है। पत्थरों को तराश कर जोड़ा जा रहा है। यह विज्ञान, कला, स्थापत्य हमें मंदिरों के माध्यम से ही सीखने को मिला है।
मंदिर हमारा पोषण भी करते हैं। जगन्नाथ मंदिर का महाप्रसाद में पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इसें छह रस होते हैं, जो हमारे पोषण के लिए जरूरी हैं। महाप्रसाद निर्माण में जैव-विविधता के साथ यह भी ध्यान रखा जाता है कि इसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री स्थानीय हो। भगवान जगन्नाथ को प्रतिदिन पांच बार भोग लगाया जाता है।
भगवान जगन्नाथ को 365 दिन में एक बार 1 जनवरी को एक किस्म के चावल का भोग लगा, तो 31 दिसंबर तक दोबारा उस चावल का भोग नहीं लगाया जाता है। महाप्रसाद के लिए चावल की इतनी किस्में ओडिशा और इसके आसपास के क्षेत्रों से ही मिल जाती हैं। इसी तरह, गुरुद्वारों और दक्षिण भारत के मंदिरों में श्रद्धालुओं के लिए भोजन की व्यवस्था की जाती है, ताकि उसमें समाज की सहभागिता बनी रहे। हमारे यहां फसल उपज का पहला हिस्सा भगवान को अर्पित करने की प्रथा है।
भगवान को अन्न अर्पित कर हम अपने धर्म का निर्वहन करते हैं। इसी तरह, गाय जब बछिया या बछड़े को जन्म देती थी, तो पहले चार-पांच दिन का पीला दूध, जिसे खीस कहते हैं, आसपास के घरों में उत्सव के साथ बांटा जाता था। ये व्यवस्थाएं हमारे ऋषि-मुनियों ने बनाईं और इसे नाम दिया-धर्मकाल।
मंदिर हमारा पोषण भी करते हैं। जगन्नाथ मंदिर का महाप्रसाद में पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इसें छह रस होते हैं, जो हमारे पोषण के लिए जरूरी हैं। महाप्रसाद निर्माण में जैव-विविधता के साथ यह भी ध्यान रखा जाता है कि इसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री स्थानीय हो। भगवान जगन्नाथ को प्रतिदिन पांच बार भोग लगाया जाता है।
यही राष्ट्रधर्म है। पुराने समय में सामरिक दृष्टि से भी मंदिरों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। छत्रपति शिवाजी महाराज के समय में ऐसे कई मंदिर थे। इसके अलावा, गोवा मुक्ति संग्राम में भी मंदिरों की विशिष्ट भूमिका रही। क्रांतिकारी भजन मंडली के माध्यम से मंदिरों में एकत्र होते थे और अपनी रणनीति बनाते थे।
इसी तरह, गोंडा में बड़े-बड़े तालाब हैं। मई में जब ये तालाब सूख जाते हैं, तो वंचित वर्ग के लोग उसमें से कमल ककड़ी निकालते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में भसीड़ कहा जाता है। इससे तालाब की सफाई भी हो जाती है। कमल ककड़ी के साथ निकलने वाली मिट्टी खेती के लिए उपयोगी तो होती है ही, घरों की लिपाई-पुताई में भी काम आती है।
यह शैम्पू का भी काम करती है। वैज्ञानिकों ने जब इस पर शोध किया तो पता चला कि कमल ककड़ी में खनिज और तरह-तरह के विटामिन होते हैं। आज दिल्ली में वही कमल ककड़ी 118 रुपये किलो बिकती है। मतलब, पुराने समय में वंचित वर्ग के लिए यह व्यवस्था इसलिए नहीं बनाई थी कि कमल ककड़ी तिरस्कृत चीज थी। इन सभी विषयों को जोड़कर देखने पर ही हम राष्ट्रधर्म का महत्व समझ सकेंगे। धर्म के साथ यदि स्वास्थ्य, कला व संस्कृति को मंदिरों से जोड़ा जाए, तो ये राष्ट्रधर्म के बड़े केंद्र बन सकते हैं।
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