30 नवंबर, 1858 की तिथि बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन निहंग बाबा फकीर सिंह खालसा के नेतृत्व में 25 निहंग सिंहों (सिखों) ने बाबरी ढांचे पर कब्जा कर वहां हवन किया था और दीवारों पर ‘राम-राम’ लिख कर भगवा ध्वज फहराया था।
अयोध्या में श्रीराम जन्म भूमि आंदोलन से जुड़े इतिहास 30 नवंबर, 1858 की तिथि बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन निहंग बाबा फकीर सिंह खालसा के नेतृत्व में 25 निहंग सिंहों (सिखों) ने बाबरी ढांचे पर कब्जा कर वहां हवन किया था और दीवारों पर ‘राम-राम’ लिख कर भगवा ध्वज फहराया था। अब उन्हीं निहंग बाबा फकीर सिंह खालसा के आठवें वंशज बाबा हरजीत सिंह रसूलपुर नवनिर्मित भव्य राम मंदिर में 22 जनवरी, 2024 को रामलला की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा के अवसर पर अयोध्या में दो माह तक लंगर लगाएंगे। उन्होंने कहा, ‘‘हम सनातन धर्म का हिस्सा हैं और यही हमारा धर्म है।’’
सनातन परंपरा के वाहक हैं सिख
खालिस्तानियों द्वारा हिंदू-सिख समाज में विभेद उत्पन्न करने के प्रयासों के बीच बाबा हरजीत सिंह रसूलपुर का कहना है कि सिख और सनातन एक है। हमारा देश अलग नहीं है। सिख पंथ को हिंदू धर्म से अलग करके देखने वाले कट्टरपंथियों को यह जान लेना चाहिए कि राम मंदिर के लिए पहली एफआईआर सिखों पर दर्ज की गई थी। सिख सनातन हिंदू संस्कृति का अभिन्न अंग और धर्म रक्षक योद्धा हैं। स्वयं को सनातन परंपराओं का वाहक बताते हुए उन्होंने बताया कि उनके पूर्वजों ने इसकी रक्षा के लिए बलिदान दिया है। अपने पूर्वजों की तरह उनकी भी भगवान श्रीराम में सच्ची श्रद्धा और अगाध आस्था है। अयोध्या में लंगर लगाकर भगवान राम के प्रति अपने पूर्वजों की परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। उन्होंने कहा, ‘‘सिख और हिंदू भाई इस खुशी को मिलकर मनाएंगे। मैं सबको यही बताने की कोशिश कर रहा हूं कि हम सब साथ हैं।’’
नवंबर 1858 में निहंग बाबा फकीर सिंह के नेतृत्व में 25 निहंग सिंहों द्वारा बाबरी ढांचे पर कब्जा करने के बाद बाबरी मस्जिद के तत्कालीन मुअज्जिम की शिकायत पर अवध के थानेदार ने 30 नवंबर, 1858 को सभी निहंग सिंहों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की थी। यह एक बड़ी और महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना तो है ही, इससे भी महत्वपूर्ण यह इसलिए भी है कि 9 नवंबर, 2019 को जब सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीराम जन्म भूमि मंदिर पर हिंदुओं के पक्ष में निर्णय दिया तो उसमें इस घटना को भी एक महत्वपूर्ण साक्ष्य के तौर पर शामिल किया था।
इसलिए जब 22 जनवरी रामलला भव्य मंदिर में विराजमान होने जा रहे हैं, तो वह कैसे पीछे रह सकते हैं। इसीलिए उन्होंने अपने निहंग सिंहों के साथ अयोध्या में लंगर लगाकर देश-विदेश से आने वाली संगत की सेवा करने का निर्णय लिया है। हालांकि सिख और सनातन विचारधारा के बीच तालमेल बिठाते समय उन्हें कई बार आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा है। एक ओर उन्होंने अमृतपान किया है, तो दूसरी ओर गले में रुद्राक्ष की माला भी पहनते हैं। जत्थेदार बाबा हरजीत सिंह यह भी कहते हैं कि देश और धर्म को जब भी आवश्यकता पड़ेगी, उस समय वह और उनका परिवार पीछे नहीं हटेगा।
इस विवाद का फैसला अदालत ने ही किया, लेकिन शायद तब, जब हिंदुओं ने अपनी बात रखने के लिए अपने मन से इस भय ग्रंथि को निकाल फेंका।कथित ढांचे को पुर्नप्राप्त करने का प्रयास 1992 की तरह 1934 में भी हुआ था। लेकिन तब अंग्रेज सरकार ने उस ढांचे की वापस मरम्मत करवा दी थी। हालांकि उसे हिंदुओं से छीन लेने की कोशिश वह तब भी नहीं कर सके थे।
सिखों के संघर्ष का साक्ष्य श्री ब्रह्मकुंड साहिब
जीवन में कई बातों के लिए हम सत्ता, शक्ति और प्रभुत्व पर निर्भर रहते रहे हैं। शायद यह एक मानसिकता भी बन चुकी है, लेकिन भारत के इतिहास में ऐसे कई बिंदु हैं, जब भारतीयों के त्याग और बलिदान ने सत्ता, शक्ति, प्रभुत्व और मानस के मन में बैठा दी गई गलत बातों को चुनौती दी है और उसमें सफलता भी प्राप्त की है। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर इसका प्रमाण है। राम मंदिर को मुगलों की राजनीतिक सत्ता, सैनिक शक्ति और प्रभुत्व के चंगुल से छुड़ाने के लिए स्वतंत्रता की ही तरह असंख्य और सतत संघर्ष हुए। इन्हीं में से एक संघर्ष छेड़ा था, निहंग सिखों के एक जत्थे ने। 1672 में गुरु गोबिंद सिंह द्वारा अयोध्या आने के प्रमाण अयोध्या के गुरुद्वारा श्री ब्रह्मकुंड साहिब में आज भी हैं। इसके बाद सरयू में काफी पानी बहा और सरयू के किनारे काफी रक्त बहा। जब औरंगजेब ने श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पर हमला करने की कुचेष्टा की, तो साधु-संतों और निहंगों की सेना ने मुगलों का डटकर सामना किया, जिसमें अंतत: मुगल सेना परास्त हुई। लड़ाई के बाद निहंग पंजाब लौट गए।
अंग्रेजी सत्ता के दौरान 30 नवंबर, 1858 को अवध के थानेदार के यहां एक शिकायत दर्ज की गई। इसमें कहा गया था कि लगभग 25 निहंग सिख अयोध्या में विवादित ढांचे के अंदर घुस गए हैं और उन्होंने वहां हवन और पूजा शुरू कर दी है। उन्होंने मस्जिद के अंदर जबरन चबूतरा बना दिया है, मस्जिद के अंदर मूर्ति रख दी है। इसके अलावा उन्होंने कोयले से पूरी मस्जिद के अंदर राम-राम लिख दिया है। मस्जिद के मोअज्जिन सैयद मोहम्मद खतीब ने स्टेशन हाउस आफिसर के समक्ष मुकदमा (संख्या 884) दर्ज कराया था। सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमे की सुनवाई के दौरान हिंदू पक्ष की ओर से इस शिकायत का साक्ष्य भी प्रस्तुत किया गया था। लेकिन अंग्रेज पुलिस ने बलप्रयोग करके निहंग सिंहों को श्रीराम जन्मभूमि परिसर से बाहर निकाल कर वहां बाड़बंदी कर दी। इसके बाद परिसर का विभाजन कर दिया गया, तो हिंदुओं को सिर्फ घेरे के दूसरी तरफ खड़े और मस्जिद की तरफ मुंह करके श्री रामजन्म स्थल की पूजा करने की अनुमति थी।
‘‘हम सनातन धर्म का हिस्सा हैं और यही हमारा धर्म है।’’ नवनिर्मित भव्य राम मंदिर में 22 जनवरी, 2024 को रामलला की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा के अवसर पर अयोध्या में दो माह तक लंगर लगाएंगे।
‘‘सिख और हिंदू भाई इस खुशी को मिलकर मनाएंगे। मैं सबको यही बताने की कोशिश कर रहा हूं कि हम सब साथ हैं।’’
‘‘यदि किसी स्थान पर चबूतरे पर मंदिर का निर्माण किया जाता है, तो मंदिर की घंटियां और शंख बजने लगेंगे। चूंकि हिंदू और मुसलमान, दोनों एक ही रास्ते से गुजरते हैं। इसलिए यदि हिंदुओं को मंदिर निर्माण की अनुमति दी जाती है, तो एक न एक दिन अन्य आपराधिक मामले शुरू हो जाएंगे और हजारों लोग मारे जाएंगे।’’
‘‘यह सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदू जिस भूमि को विशेष रूप से पवित्र मानते हैं, वहां पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया। लेकिन 356 साल पहले की घटना के लिहाज से शिकायत का समाधान करने में बहुत देर हो चुकी है।’’
1 नवंबर, 1886 को न्यायिक आयुक्त डब्ल्यू यंग ने कहा कि हिंदू ‘पवित्र स्थान’ पर एक ‘नया मंदिर’ बनाना चाहते हैं, जिसे ‘श्रीरामचंद्र का जन्म स्थान’ माना जाता है।
‘‘यह स्थान उस मस्जिद के आसपास के मैदान के भीतर स्थित है, जो बादशाह बाबर की कट्टरता और अत्याचार के कारण बनी थी, जिसने इस पवित्र स्थान को मस्जिद की जगह के तौर पर जानबूझकर चुना था, जो हिंदू कथा के अनुसार उनका पवित्र स्थान है।’’
बैरागी साधुओं का संघर्ष
हालांकि इससे भी पहले 1855 में बैरागी साधुओं ने लगभग 22.83 सेंटीमीटर के रामचबूतरा का निर्माण किया था। इस स्थान को अब हनुमानगढ़ी कहा जाता है। इसे लेकर बैरागियों का स्थानीय मुसलमानों के साथ भीषण संघर्ष हुआ था (के.एम पणिक्कर: ऐन एनाटॉमी आफ अ कॉनफंट्रैशन: अयोध्या एंड द राइज आफ कम्युनल पॉलिटिक्स इन इंडिया (अ हिस्टोरिकल ओवरव्यू))। मुसलमानों का प्रतिरोध पहले अवध के नवाब के दरबार में गया, लेकिन नवाब की सत्ता समाप्त होने के बाद अंग्रेजों के थानों और अदालतों में पहुंच गया। 1857 के स्वाधीनता संग्राम के तुरंत बाद रामचबूतरे के महंत ने इसका सुदृढ़ निर्माण कराया। माना जाता है कि 1861 में जिला प्रशासन ने विवादित ढांचे को चबूतरे से अलग करने के लिए एक दीवार बनाई थी। महंत रघुबर दास ने 1883 में चबूतरे के ऊपर मंदिर का निर्माण शुरू किया। लेकिन मुसलमानों की आपत्तियों के कारण अंग्रेज जिला मजिस्ट्रेट ने इसे रुकवा दिया। इस पर महंत रघुबर दास ने 1885 में फैजाबाद के उप-न्यायाधीश की अदालत में एक मुकदमा दायर किया, जिसमें उन्होंने दावा किया कि चबूतरे का मालिक होने के नाते उन्हें वहां मंदिर बनाने की अनुमति दी जाए।
… तो पहले बन सकता था मंदिर
श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण कार्य पहले भी हो गया होता, उसमें न तो कानूनी बाधा थी, न किसी अन्य प्रकार की। बाधा थी भय ग्रंथि की। नाराजगी का भय, उपद्रव का भय। फैजाबाद के उप-न्यायाधीश ने महंत रघुबर दास को मंदिर बनाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। उप-न्यायाधीश का तर्क था, ‘‘यदि किसी स्थान पर चबूतरे पर मंदिर का निर्माण किया जाता है, तो मंदिर की घंटियां और शंख बजने लगेंगे। चूंकि हिंदू और मुसलमान, दोनों एक ही रास्ते से गुजरते हैं। इसलिए यदि हिंदुओं को मंदिर निर्माण की अनुमति दी जाती है, तो एक न एक दिन अन्य आपराधिक मामले शुरू हो जाएंगे और हजारों लोग मारे जाएंगे।’’ महंत रघुबर दास की याचिका पर फैजाबाद के उप-न्यायाधीश के फैसले का आधार क्या था? इस फैसले के विरुद्ध महंत रघुबर दास ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। अंग्रेज जिला जज कर्नल एफ.ई.ए कैमिर ने भी महंत रघुबर दास की याचिका खारिज कर दी। लेकिन उसने अपने फैसले में यह जरूर लिखा, ‘‘यह सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदू जिस भूमि को विशेष रूप से पवित्र मानते हैं, वहां पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया। लेकिन 356 साल पहले की घटना के लिहाज से शिकायत का समाधान करने में बहुत देर हो चुकी है।’’ हिन्दू दावे की लाचार स्वीकार्यता इसमें निहित थी। महंत रघुबर दास ने कैमिर के फैसले के विरुद्ध अवध के न्यायिक आयुक्त के न्यायालय में अपील की। 1 नवंबर, 1886 को न्यायिक आयुक्त डब्ल्यू यंग ने कहा कि हिंदू ‘पवित्र स्थान’ पर एक ‘नया मंदिर’ बनाना चाहते हैं, जिसे ‘श्रीरामचंद्र का जन्म स्थान’ माना जाता है। उसने अपने फैसले में कहा, ‘‘यह स्थान उस मस्जिद के आसपास के मैदान के भीतर स्थित है, जो बादशाह बाबर की कट्टरता और अत्याचार के कारण बनी थी, जिसने इस पवित्र स्थान को मस्जिद की जगह के तौर पर जानबूझकर चुना था, जो हिंदू कथा के अनुसार उनका पवित्र स्थान है।’’
अंतत: इस विवाद का फैसला अदालत ने ही किया, लेकिन शायद तब, जब हिंदुओं ने अपनी बात रखने के लिए अपने मन से इस भय ग्रंथि को निकाल फेंका।कथित ढांचे को पुर्नप्राप्त करने का प्रयास 1992 की तरह 1934 में भी हुआ था। लेकिन तब अंग्रेज सरकार ने उस ढांचे की वापस मरम्मत करवा दी थी। हालांकि उसे हिंदुओं से छीन लेने की कोशिश वह तब भी नहीं कर सके थे।
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