370 उन्मूलन : फैसला बरकरार, ललकारने वालों की हार

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अरुण कुमार सिंह

11 दिसंबर को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार के उस निर्णय पर अपनी मुहर लगा दी, जिसमें अनुच्छेद 370 को संसद के माध्यम से हटा दिया गया था। अनुच्छेद 370 की समाप्ति के लिए 5 अगस्त, 2019 को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया था।

अब अनुच्छेद 370 इतिहास की पुस्तकों तक ही सीमित हो गया है। 11 दिसंबर को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार के उस निर्णय पर अपनी मुहर लगा दी, जिसमें अनुच्छेद 370 को संसद के माध्यम से हटा दिया गया था। अनुच्छेद 370 की समाप्ति के लिए 5 अगस्त, 2019 को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया था। उस विधेयक को संसद ने पारित कर दिया था। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370 और धारा-35 ए निष्प्रभावी हो गए थे। उस समय सभी सेकुलर राजनीतिक दलों ने सरकार के इस कदम का विरोध किया। यही कारण है कि बहुत से नेताओं और कथित समाजसेवियों ने इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। इसके पक्ष 9 तो विपक्ष में 14 याचिकाएं दायर की गई थीं। लगभग चार वर्ष बाद इन याचिकाओं का निपटारा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 के संदर्भ में जो भी निर्णय लिया है, वह सही है।

मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने साफ कर दिया कि अनुच्छेद 370 अस्थाई था। पीठ ने माना कि इस अनुच्छेद का दुरुपयोग हुआ है। अन्य राज्यों की तरह जम्मू-कश्मीर के पास भी आंतरिक संप्रभुता नहीं है। इसलिए नीति निर्धारण में न्यायालय दखल नहीं देगा। अनुच्छेद 370 का मूल उद्देश्य पूरी तरह संवैधानिक व्यवस्था को लागू करना था। राज्य के पुनर्गठन को भी न्यायालय ने सही माना है। हालांकि अदालत ने इतना अवश्य कहा कि सितंबर, 2024 तक जम्मू-कश्मीर में चुनाव हों।

निर्णय के मुख्य बिंदु

  • जम्मू एवं कश्मीर को संप्रभुता प्राप्त नहीं थी।
  • विलय पत्र ने राज्य को कोई संप्रभुता नहीं दी।
  • युवराज करण सिंह द्वारा जारी 25 नवंबर, 1949 की उद्घोषणा में स्पष्ट किया गया कि भारत का संविधान राज्य के संविधान पर हावी होगा। इसके बाद विलय पत्र का महत्व समाप्त हो गया।
  • भारत संघ के साथ राज्य का संबंध मुख्य रूप से विलय पत्र और उद्घोषणा द्वारा नियंत्रित होता था। राज्य का संविधान केवल उस रिश्ते को और अधिक परिभाषित करने के लिए था।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद एक के साथ मिलकर राज्य संविधान निर्विवाद रूप से दर्शाता है कि राज्य भारतीय संविधान के अधीन था।
  • पाठ और इतिहास दर्शाते हैं कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था। सबसे पहले, इसे भारतीय संविधान की पुष्टि के एक संक्रमणकालीन उद्देश्य के लिए डाला गया था। दूसरा, राज्य में चल रहे युद्ध के कारण अंतरिम व्यवस्था बनाने का इसका अस्थायी उद्देश्य था।
  • राष्ट्रपति के पास राज्य संविधान सभा के भंग होने के बाद भी अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय करने की शक्ति थी। राज्य की संविधान सभा राज्य संविधान बनाने के एक विशिष्ट और सीमित उद्देश्य के लिए स्थापित एक अस्थायी निकाय थी। जब संविधान सभा भंग कर दी गई, तो राज्य की अन्य विशेष परिस्थितियां (युद्ध) जिसके कारण अनुच्छेद 370 लागू हुआ, जारी रही। इन्हीं कारणों से राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की अपनी शक्तियां बरकरार रखीं।
  • अनुच्छेद 370 का समग्र उद्देश्य संवैधानिक एकीकरण था। यह नहीं कहा जा सकता कि राज्य संविधान सभा के विघटन के साथ, भारत संघ के साथ राज्य के एकीकरण की प्रक्रिया रुक गई थी। ऐसा दृष्टिकोण अनुच्छेद 370 के मूल उद्देश्य के विपरीत होगा।
  • धारा 370 खत्म करना एक नीतिगत निर्णय था। राष्ट्रपति के द्वारा अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय करते समय जिन विशेष परिस्थितियों पर विचार किया गया था, उनके बारे में दूसरा अनुमान नहीं लगा सकता।
  • भारत के संपूर्ण संविधान का जम्मू और कश्मीर राज्य तक विस्तार करना सत्ता का संवैधानिक रूप से वैध अभ्यास था।
  • जब भारत का संविधान बिना किसी अपवाद या संशोधन के राज्य में लागू किया जाता है तो राज्य सरकार की सहमति और परामर्श की आवश्यकता नहीं होती है। दूसरे शब्दों में, सहमति और परामर्श तभी सामने आएगा जब किसी संवैधानिक प्रावधान को संशोधित रूप में राज्य पर लागू किया जाएगा।
  • भारत के संविधान को जम्मू और कश्मीर राज्य में लागू करने का मतलब था कि जम्मू और कश्मीर राज्य का संविधान पूरी तरह से निष्क्रिय हो गया था।
  • जम्मू और कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू एवं कश्मीर और केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में पुनर्गठित करना संवैधानिक है।
  • केंद्र सरकार के इस आश्वासन के मद्देनजर प्रश्न खुला छोड़ दिया गया है कि जम्मू और कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा और केंद्र शासित क्षेत्र के रूप में इसकी स्थिति अस्थायी है।
  • जम्मू और कश्मीर के राज्य का दर्जा बहाल होने से लद्दाख का केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा अप्रभावित रहेगा।

पाञ्चजन्य और अनुच्छेद 370

पाञ्चजन्य प्रारंभ से अनुच्छेद 370 को लेकर मुखर रहा। श्री अटल बिहारी वाजपेयी के संपादकत्व में प्रकाशित पाञ्चजन्य के प्रथम अंक (मकर संक्रांति, 1948) की आवरण कथा जम्मू-कश्मीर पर ही थी। इसमें लिखा गया था- ‘हम जम्मू-कश्मीर के दो टुकड़े नहीं होने देंगे’। प्रजा परिषद के आंदोलन से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कश्मीर में बंदी बनाए जाने तक के मामले को पाञ्चजन्य ने बहुत ही प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया। इसके बाद भी जब भी जरूरत पड़ी तो पाञ्चजन्य ने अनुच्छेद 370 के विरोध में आवाज उठाई।

इस निर्णय के आने के बाद एक बार फिर से सेकुलर दलों की वही प्रतिक्रिया आई, जो सदैव से वे देते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा, ‘‘उनकी पार्टी संविधान में वर्णित शांतिपूर्ण तरीकों से क्षेत्र के लोगों के अधिकारों के लिए लड़ाई जारी रखेगी।’’ वहीं एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा, ‘‘देश की सबसे बड़ी अदालत की जिम्मेदारी है कि वह भाजपा के एजेंडे को आगे न बढ़ने दे।’’ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे गुलाम नबी आजाद ने कहा, ‘‘सर्वोच्च न्यायालय का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है। इस फैसले से जम्मू-कश्मीर के लोग प्रसन्न नहीं होंगे। हर एक को इसे भारी मन से स्वीकार करना होगा।’’

यानी जम्मू-कश्मीर के इन तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों ने सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय पर भी राजनीति शुरू कर दी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि इस्लामिक देशों के संगठन ओ.आई.सी. और चीन जैसे देशों को भारत के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने का एक और मौका मिल गया। ओ.आई.सी. ने न्यायालय के निर्णय पर निराशा व्यक्त की। चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने इस मामले पर कहा, ‘‘कश्मीर मुद्दे पर चीन का रुख स्पष्ट है। संबंधित पक्षों को संवाद और परामर्श के माध्यम से विवाद को सुलझाना चाहिए, ताकि क्षेत्र में शांति बनी रहे।’’ इसके साथ ही पाकिस्तान के विदेश मंत्री जलील अब्बास जिलानी ने भी कहा, ‘‘भारत की ओर से 5 अगस्त, 2019 को उठाए गए एकतरफा और अवैध कदमों को अंतरराष्ट्रीय कानून मान्यता नहीं देते हैं। इस न्यायिक समर्थन का कोई मतलब नहीं है।’’ हालांकि भारत सरकार ने ओ.आई.सी., चीन और पाकिस्तान को जवाब देने में कोई देर नहीं की। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा, ‘‘ओ.आई.सी. ने मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले और सीमा पार आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले की तरफ से यह प्रतिक्रिया दी है।’’ यानी भारतीय विदेश मंत्रालय का संकेत है कि ओ.आई.सी. ने जो कुछ कहा है कि उसके पीछे पाकिस्तान है। और इस पाकिस्तान के पीछे जम्मू-कश्मीर के वे नेता हैं, जो इस फैसले से बेहद नाराज हैं। पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अबदुल्ला कितने नाराज हैं, यह उनके उस बयान से पता चलता है, जिसमें वे कहते हैं, ‘‘जहन्नुम में जाने दो जम्मू-कश्मीर को। भाजपा लोगों के साथ धोखा कर रही है। ऐसे जम्मू-कश्मीर के लोगों का दिल नहीं जीता जा सकता।’’

वहीं लोगों का मानना है कि फारुख अब्दुल्ला जैसे नेता ही जम्मू-कश्मीर के लोगों का दिल जीतने में विफल रहे हैं। ऐसे नेता जब तक जम्मू-कश्मीर की सत्ता में रहे तब तक राज्य में आतंकवाद चरम पर रहा, लेकिन अब ऐसी घटनाएं बहुत ही कम हो गई हैं। श्रीनगर के जिस लाल चौक पर कभी तिरंगा फहराना भी मौत को बुलाने जैसा था, अब वहां 24 घंटे तिरंगा लहरा रहा है। वहां हर मत-पंथ के पर्व-त्योहार भी बहुत ही शांति के साथ संपन्न हो रहे हैं।

यह सब अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद ही संभव हुआ है। यानी केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के लोगों का दिल जीत लिया है। इसलिए फारुख अब्दुल्ला जैसे नेता कुछ भी कहें, पर जम्मू-कश्मीर के लोगों ने मान लिया है कि अनुच्छेद 370 उनके हित में नहीं था। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने पर जम्मू-कश्मीर में जश्न मनाया गया। लोगों ने तिरंगे के साथ जूलूस निकाले और मिठाइयां बांटीं। काश, अब्दुल्लाओं, मुफ्तियों और नबियों को यह बात समझ आती।

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