माता अमृतानंदमयी (अम्मा) ने दुनिया भर से सम्मेलन में आए प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए कहा कि हम वे मोमबत्तियां नहीं, जो किसी और द्वारा जलाये जाने पर निर्भर हों। हम तो स्वयं-प्रकाश सूर्य हैं। यहां प्रस्तुत हैं समापन सत्र में उनके द्वारा दिए गए आशीर्वचन के संपादित अंश:
आज हम सब यहां विश्व की सबसे पुरातन एवं श्रेष्ठतम संस्कृति के नाम पर एकत्र हुए हैं। सनातन धर्म ही है जो सबके कल्याण और समृद्धि की कामना करता है। सनातन धर्म सदा से मनुष्य एवं प्रकृति के परस्पर घनिष्ठ संबंध के बारे में जगत को बताता आया है। हमने ही ‘धर्म’ और ‘यज्ञ’ जैसी अवधारणाएं विश्व के सामने प्रस्तुत कीं।
आज विश्व में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है, जिनमें प्रेम और नि:स्वार्थ सेवा का भाव खत्म होता जा रहा है। ‘सिर्फ मेरा परिवार’, यही उनकी दुनिया रह गई है। लेकिन क्या यह सही है? इसका एक ही समाधान है-धर्म की पुनर्स्थापना। यह विश्व और मानवता को बचाने का एकमात्र उपाय है। उसी दिशा में ऐसे सम्मेलन और समर्पण-भाव से एकजुट होकर समाज केंद्रित-कार्य सम्पन्न करना आवश्यक होता जा रहा है।
आज हम अपने चारों लोगों को मशीनों की तरह काम करते देखते हैं। सुबह उठने से लेकर रात को सोते समय तक। सुबह उठते ही मानो उन्हें जंग के मैदान में जाने की तैयारी करनी हो। अंदर भी, बाहर भी। एक पल भी ऐसा नहीं, जब वे तनाव-चिंता में न हों। कामकाज का तनाव, परिवार की चिंता, बच्चों की चिंता, अपनी आय और व्यय की चिंता। और तो और इंटरनेट की चिंता। इतनी सारी चिंताओं के बीच, उसे कहां फुर्सत है ‘धर्म’, मूल्य-संस्कारों के बारे में सोचने की? इसका एक ही उत्तर है। धर्म के अनुसार रहना होगा। जीवन वैसा बनाना होगा।
सनातन धर्म ही ऐसा धर्म है, जो इस बात को स्वीकार करता है कि सत्य-प्राप्ति के विविध मार्ग हैं। यह सबको अपना आध्यात्मिक पथ चुनने की स्वतंत्रता देता है। सनातन में सुंदरता है, एकता है। विविधता और एकता साथ-साथ चलते हैं।
हमारे पास मानव के बनाए नियम हैं। इन सबसे परे, हमारे पास उस वैश्विक शक्ति का दिया हुआ एक ईश्वरीय नियम है, जो हमें आपस में बांधता है। उस ईश्वरीय नियम को धर्म कहा गया। हमारी कोशिश रहती है कि हम मानव-निर्मित नियमों का उल्लंघन न करें, क्योंकि हम दंड से डरते हैं। उसी प्रकार वैश्विक शक्ति के बनाये धर्म के नियम का उल्लंघन करेंगे तो भी नतीजे तो भुगतने पड़ेंगे। जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम प्राकृतिक नियम है, वैसे धर्म भी जगत का नियम है। एक देश का संविधान का नियम सरकारें बदल सकती हैं पर धर्म में संशोधन-परिवर्तन नहीं कर सकते। हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी हमारी रक्षा करेगा।
धर्म मानवता, प्रकृति और ईश्वर को जोड़ता है और परस्पर पूर्ण लय-ताल बिठाता है। यह एक जीवन-शैली है, जिसे हर व्यक्ति को अपनाना चाहिए। यही विशाल दृष्टिकोण है, जो सनातन धर्म को दूसरे मत पंथों से उसे अलग करता है। यहां बदले की भावना के लिए स्थान नहीं है। न निराशा है, न क्रोध! यह हमें जहां जो अच्छा दिखे, उसे अपनाना सिखाता है। सामान्य रूप से हमारे सामने जगत के दो दृष्टिकोण आते हैं।
पहला, मैं अपने अधिकार पाना चाहता हूं। दूसरा, मुझे अपना धर्म निभाना चाहिए। इनमें से सनातन धर्म दूसरे को महत्व देता है। पहला, संघर्ष और स्पर्धा का रास्ता है। दूसरा एकता, सुख और शांति का। क्योंकि हर व्यक्ति अपने अधिकारों की बात सोचता है, इसलिए नतीजा होता है, वैर-विरोध और मतभेद। लेकिन,सब अपना-अपना धर्म निभाएं तो सबके अधिकारों की रक्षा स्वाभाविक ही हो जाएगी। फिर सर्वत्र शांति और समृद्धि का राज्य होगा।
सनातन धर्म ही ऐसा एक धर्म है, जो इस बात को स्वीकार करता है कि सत्य-प्राप्ति के विविध मार्ग हैं। यह सबको अपना आध्यात्मिक पथ चुनने की स्वतंत्रता देता है। सनातन में सुंदरता है। एकता है। विविधता और एकता साथ-साथ चलते हैं। इससे जगत में बिखरी असीम विविधता में निहित एकत्व को ढूंढने में सहायता मिलती है। इसके द्वारा प्रेम, सौंदर्य, सेवा-भाव पनपता है। मनुष्य व अन्य प्राणी ईश्वर रूपी महासागर में लहरों जैसे हैं। इस महासागर में हम जन्म लेते हैं,जीते हैं,मरते हैं और फिर जन्म लेते हैं। लहरें कुछ पलों के लिए आती हैं और चली जाती हैं। वास्तव में, लहर सागर से अलग नहीं। उसी प्रकार, मनुष्य, प्रकृति और ईश्वर अलग-अलग नहीं। अंदर-बाहर जितने भी संघर्ष हम महसूस करते हैं-हर चीज को अपना बनाने का लालच और घृणा व बदले की भावना इसीलिये हैं, क्योंकि हम इस छिपे हुए एकत्व के प्रति जाग्रत नहीं हैं।
इस जगत में एक लयताल है-जगत और इसके हर जीव के बीच एक अमर संबंध। यह जगत,परस्पर जुड़े हुए एक विशाल संजाल जैसा है। फैले हुए जाल के एक कोने में छोटा सा झटका लगे तो सारे नेट में उसकी तरंगें दौड़ जाती है, उसी तरह-हमें यह बोध हो न हो-हमारे हर कर्म के स्पंदन जगत के हर कोने तक जाते हैं। सनातन धर्म में ईश्वर से भी अधिक महत्व धर्म को दिया जाता है। यदि व्यक्ति धर्म पर दृढ़ रह कर जिये तो ‘मैं’,’मेरा’ जैसे विचारों के लिए स्थान ही नहीं रह जाता। इस प्रकार स्थित रहते हुए,कोई अपने साथी मनुष्यों या प्रकृति को नुकसान कैसे पहुंचाएगा? धार्मिक दृष्टिकोण हमारे बोध को विशाल बनता है। फिर अलगाव की भावना ही नहीं रहती। व्यष्टि मन समष्टि मन के साथ एक हो जाता है।
आज हम देखते हैं कि हमने पंछी की तरह आकाश में उड़ना सीख लिया है और मछली की तरह समुद्र में गहरे गोता लगाना भी। लेकिन हम मनुष्य की तरह चलना और रहना भूल गए हैं। शिक्षा दो प्रकार की है। पहली, आजीविका के लिए और दूसरी जीवन के लिए। आजीविका वाली शिक्षा रोजी-रोटी के लिए है तो जीवन वाली शिक्षा जीवन की चुनौतियों का सामना करने का विज्ञान है। यही आध्यात्मिकता है।
धर्म मानवता, प्रकृति और ईश्वर को जोड़ता है और परस्पर पूर्ण लय-ताल बिठाता है। यह एक जीवन-शैली है, जिसे हर व्यक्ति को अपनाना चाहिए। यही विशाल दृष्टिकोण है, जो सनातन धर्म को दूसरे मत पंथों से उसे अलग करता है। यहां बदले की भावना के लिए स्थान नहीं है।
आज हम विश्व में कहीं भी जाएं हमारा पहला सवाल होता है, ‘यहां इंटरनेट है?’ लेकिन इंटरनेट का कनेक्शन ही काफी नहीं है; असल में हमें इनर-नेट का कनेक्शन ठीक करने की जरूरत है। इसी संदर्भ में आध्यात्मिकता की प्रासंगिकता है। अधिकांश लोग बाहरी परिस्थितियों को बदलने की कोशिश करते हैं। परन्तु हम वास्तव में कुछ बदल सकते हैं तो वह है अपना मनोभाव। यदि हमारा मनोभाव सकारात्मक हो जाये तो बाहरी परिस्थिति में भी परिवर्तन लाना संभव होगा। आध्यात्मिकता हमें अपना मनोभाव बदलने में सहायक होती है। हम वे मोमबत्तियां नहीं, जो किसी और के जलाये जाने पर निर्भर हों।
हम तो स्वयं-प्रकाश सूर्य हैं! हम असहाय बिल्ली के बच्चे नहीं बल्कि शक्तिशाली शेर हैं! हमारे भीतर अनंत सामर्थ्य निहित है। आज जगत में दो प्रकार की गरीबी है। पहली, भोजन,आवास और कपड़े का अभाव। दूसरी, प्रेम एवं करुणा का अभाव। हमें दूसरे प्रकार की गरीबी की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए, क्योंकि हमारे दिलों में प्रेम और करुणा होगी तो हम पूरे मनोयोग के साथ सेवा कर सकेंगे और फिर पहली प्रकार की गरीबी अपने आप दूर हो जाएगी।
धर्म हमारी जननी है। धर्म-रहित जीवन ऐसा है, जैसे अपनी मां के घर का पता ही भूल जाना! भारत माता की गोद बहुत विशाल है,सर्व-समावेशी है। उसकी गोद किसी को अस्वीकार नहीं करती। दूसरे लोग भारत-माता द्वारा उपहार-वत दी गई पुरातन संस्कृति को ‘माता’ कह कर न भी पुकारें तो कम से कम हमें उन्हें इसका अनादर,अपमान नहीं करने देना चाहिए। इस अरबों लोगों के समाज के सदस्यों को ज्ञान एवं एकता की शक्ति से सशक्त हो कर एक-साथ आगे बढ़ना चाहिए। हमें विवेक-सहित परस्पर-सहयोग करके गरीबी की समस्या से ऊपर उठना है। हमें विश्व भर में शांति एवं एकता का सन्देश फैलाने वाले जीवंत समाज के रूप में उभर कर आना है।
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