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संस्कृत शिक्षण से होगा संस्कृति रक्षण

भारतीय ज्ञान-परंपरा और संस्कृति का शिक्षण अत्यंत ही आवश्यक है। इसके अध्ययन के बिना हमारी नई पीढ़ी न तो भारत को समझ सकती है और न ही भारतीयता को

by प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा
Dec 1, 2023, 11:58 am IST
in भारत, धर्म-संस्कृति
प्राचीन संस्कृत साहित्य

प्राचीन संस्कृत साहित्य

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 अमेरिकी इतिहासविद् मार्क ट्वेन के अनुसार तो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की अनेक जानकारियां प्राचीन भारतीय हिंदू वांड्ग्मय में पहले से विद्यमान हैं और अब होने वाले नवीन अन्वेषणों व आविष्कारों के भी कई संदर्भ प्राचीन भारतीय शास्त्रों में मिल जाएंगे।

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम और ज्ञान प्रधान संस्कृति है। ऋग्वेद की 3,800 वर्ष प्राचीन 30 पांडुलिपियों को यूनेस्को ने विश्व धरोहर में सम्मिलित करते हुए माना कि ऐसी सुदीर्घ, अक्षुण्ण व पुरातन पांडुलिपियां विश्व में अन्यत्र दुर्लभ हैं। अमेरिकी इतिहासविद् मार्क ट्वेन के अनुसार तो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की अनेक जानकारियां प्राचीन भारतीय हिंदू वांड्ग्मय में पहले से विद्यमान हैं और अब होने वाले नवीन अन्वेषणों व आविष्कारों के भी कई संदर्भ प्राचीन भारतीय शास्त्रों में मिल जाएंगे।

भारतीय शास्त्रों में अनुपम ज्ञान

प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा
पैसिफिक विश्वविद्यालय समूह (उदयपुर) के अध्यक्ष-आयोजना व नियंत्रण

आधुनिक खगोलशास्त्र, सौर मंडल, अंतरिक्ष विज्ञान व भू-विज्ञान सहित ब्रह्मांड रचना संबंधी अनेक आधुनिक जानकारियां संस्कृत साहित्य में प्रचुरता में मिलती हैं। शरीर रचना, स्वास्थ्य विज्ञान और गणित सहित भौतिक विज्ञान के भी अनेक तथ्य आज वेद, वेदांग आरण्यक, उपनिषद्, ब्राह्मण, साहित्य, सूत्र, संहिताओं व अन्य संस्कृत ग्रंथों में प्रचुरता से मिल रहे हैं। अर्थशास्त्र व नागरिकशास्त्र सहित विविध सामाजिक विज्ञानों के साथ आधुनिक प्रौद्योगिकी एवं व्यापार-वाणिज्य के उन्नत सिद्धांत भी प्राचीन शास्त्रों में मिलते हैं। यह सार्वभौम मानवोपयोगी ज्ञान कोई रिलीजन सापेक्ष कर्मकांड न होकर संस्कृति का प्राण तत्व एवं विश्व मानवता की चिरंतन विरासत है। वेदों में प्रकाश की गति से लेकर हृदय के विद्युत-स्पंदनों तक और ब्रह्मांड की श्याम ऊर्जा से लेकर पाई के सूक्ष्म मान तक अगणित सूत्र हैं। धातु विज्ञान से विमान शास्त्र तक के अनेक उन्नत विषय उनमें हैं। पृथ्वी की धुरी के स्पंदन से लेकर हृदयगत स्मृति तक जैसे सभी विषय अत्यंत महत्व के हैं। आधुनिक अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, वाणिज्य ज्ञान, समाजशास्त्र, अंतरराष्ट्रीय राजनय और उन्नत प्रबंध शास्त्र तक का ज्ञान उनमें संकलित है।

नष्ट होता दुर्लभ ज्ञान

ज्ञान की इस अनमोल निधि के अध्ययन-अध्यापन को सेकुलरिज्म विरोधी कह कर उसे विद्यालयों के औपचारिक पाठ्यक्रमों से बाहर रखने से यह ज्ञान परंपरा विनष्ट होती जा रही है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों के औपचारिक पठन-पाठन, संरक्षण-संवर्द्धन एवं अन्वेषण के अभाव में इनकी व्याख्या में समर्थ विद्वानों की पीढ़ी भी समाप्त होती जा रही है और ये शास्त्र आज स्वाधीन भारत में स्थाई विलोपन का शिकार हो रहे हैं। आज वेदों की ही 1,000 से अधिक शाखाएं विलुप्त हो चुकी हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के पूर्ववर्ती अर्थशास्त्र और पाणिनि की अष्टाध्यायी से पूर्ववर्ती व्याकरण भी विलुप्त हो चुके हैं। पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार देश में वेदों की 1,131 शाखाएं प्रचलित थीं। आज उनमें से मात्र 13 शाखाएं ही उपलब्ध हैं। शेष 1,119 शाखाएं देश से विलुप्त हो गई हैं। जर्मनी में आज भी 103 शाखाएं उपलब्ध बताई जाती हैं, जिन्हें जर्मन सरकार ने इतना सुरक्षित रखा है कि उनका अध्ययन वहां के शीर्षस्थ विद्वानों द्वारा ही किया जा सकता है। वेद मंत्रों का अर्थ निरुक्त से होता है। प्राचीनकाल में 18 निरुक्त प्रचलित थे। अब भारत में केवल एक यास्कीय निरुक्त ही उपलब्ध है। जर्मनी में 3 निरुक्त उपलब्ध बताए जाते हैं। वेद संहिताओं की तुलना में अन्य श्रेणी के लुप्त संस्कृत साहित्य का परिमाण बहुत अधिक है। वेद शाखाओं व निरुक्त सहित लाखों ग्रंथ विलुप्त हो गए हैं।

प्रदेशों में जहां संस्कृत में आचार्य के 30-40 तक विषय रहे हैं, वहां आज 4-6 विषय ही बचे हुए हैं। उनमें भी छात्र व शिक्षक दोनों ही नगण्य होते जा रहे हैं। उनके लिए भी कॅरिअर का अभाव ही रहता है। सभी विद्यालयों में भी वेद-वेदांग, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण सूत्र, संहिताओं व निरुक्त सहित समग्र संस्कृत साहित्य का व्यापक पठन-पाठन होने से विश्वविद्यालय स्तर पर इनके अध्ययन, अन्वेषण व अनुसंधान की मांग बढ़ेगी। आज अखिल भारतीय एवं प्रादेशिक संस्कृत सेवाओं की भी आवश्यकता प्रतीत होती है।

ज्ञान-परंपरा का संरक्षण आवश्यक

कई करोड़ पृष्ठों में सुविस्तृत प्राचीन संस्कृत साहित्य के एक बहुत बड़े भाग को विगत 1,200 वर्ष के विदेशी आक्रमणों के दौर में जलाए व नष्ट कर दिए जाने के बाद भी स्वाधीनता के समय तक भी हम बहुत कुछ बचा कर रखे हुए थे। संस्कृत की 1.25 करोड़ पांडुलिपियां आज भी विविध अभिलेखागारों में अपठित रखी हैं। उनका पदान्वयन, निर्वचन, भाषांतर व व्याख्या आज के परिवेश में दुष्कर ही नहीं, असंभव लगती है। स्वाधीनता के बाद केंद्रीकृत नियमन व सरकारीकृत शिक्षा के अंतर्गत एवं कांग्रेस के हिंदू नवोत्थान विरोधी तथाकथित सेकुलरीकरण के नाम पर उन्हें औपचारिक मान्यता युक्त पाठ्यक्रमों से निरसित व विलोपित ही कर दिया गया। जबकि विश्व की इस प्राचीनतम एवं सार्वभौम महत्व के साहित्य को अक्षुण्ण रखना स्वाधीनता के उपरांत सरकारों का प्रथम दायित्व था। स्वाधीनता के बाद जवाहरलाल नेहरू व कांग्रेस के एक बड़े धड़े की हिंदू नवोत्थान विरोधी दृष्टि के चलते संविधान के अनुच्छेद 28 में ‘रिलीजन की शिक्षा’ को सर्वथा निषिद्ध कर हमारे प्राचीन साहित्य के ज्ञान को ‘रिलीजन’ की शिक्षा ठहराकर ज्ञान-विज्ञान के निधि रूप हमारे प्राचीन साहित्य को छद्म सेकुलरवाद के नाम पर बलि चढ़ा दिया।

संस्कृतियों के विलोपन की त्रासदी

आज विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियां यथा मेसापोटामिया की सुमेरियन, असीरियन, अक्केडियन, बेबीलोनियन और खाल्दी प्रभृति संस्कृतियां और मिस्र, ईरान, यूनान और रोम की संस्कृतियां विलुप्त व कालबाह्य हो चुकी हैं। ‘विश्वगुरु रहे भारत की संस्कृति का अमिट प्रभाव आज भी साइबेरिया से सिंहल या श्रीलंका तक’ मेडागास्कर से ईरान व अफगानिस्तान तक और प्रशांत महासागरीय बोर्नियो, बाली, सुमात्रा, जावा, मलेशिया, वियतनाम, फिलीपीन्स, थाईलैंड व म्यांमार सहित संपूर्ण दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के अतिरिक्त यूरोप तक स्पष्ट दिखाई देता है। लेकिन अब अपने साहित्य को हम ही अध्यापन में निषिद्ध किए हुए हैं।

‘रिलीजन’ से भिन्न है संस्कृति

केवल अपनी ही एक मात्र उपासना पद्धति से प्रतिबद्धता और अन्य मतावलंबियों के उन्मूलन के प्रेरक ‘रिलीजन्स’ की श्रेणी में भारतीय संस्कृति व ज्ञान-परंपरा को नहीं रखा जा सकता। अब्राहमिक व सामी रिलीजन्स के एकांतवाद प्रेरित जिहाद व क्रूसेड के संघर्षों में बारहवीं से सत्रहवीं सदी के मध्य 2 करोड़ से अधिक लोग मारे गए। भारतीय ज्ञान परंपरा ऐसे एकांतवादी रिलीजन न होकर अनेकांतवाद के विचार से प्रेरित है, जिसके अनुसार व्यक्ति अपनी रुचि, प्रकृति के अनुरूप जिसकी जैसे चाहे उपासना करे या न करे। पर सामाजिक मर्यादा प्रेरित कर्तव्य-रूपी धर्म का पालन करें अर्थात् कर्त्तव्य पथ पर चलना धर्म है।

प्रत्येक शब्द ज्ञान की निधि

संस्कृत के प्रत्येक शब्द की रचना अथाह ज्ञान के कोश के रूप में की गई है। उदाहरणत: ‘वन’ शब्द का निरुक्ति ‘वन्यते याचते वृष्टि प्रदायते इति वना:’ का अर्थ है प्रकृति में वृष्टि अर्थात् वर्षा कराने में सहायक होने वाले को वन कहा जाता है। आधुनिक मौसम विज्ञान के अनुसार वन वर्षा के लिए आवश्यक 40 प्रतिशत आर्द्रता प्रदान करते हैं। इसी प्रकार हृदय में चार अक्षर ‘ह’ ‘र’ ‘द’ ‘य’ का सुनियोजित संयोजन इस प्रकार किया गया है- ‘हरते, ददाते, रयते, यमम्’ अर्थात् शरीर को रक्त देता है, उससे रक्त लेता है, रक्त का परिभ्रमण करता है और धड़कनों को नियमन करता है। ऐसे ही संस्कृत के प्रत्येक शब्द की अर्थ-परक निरुक्ति है। प्राचीन व्याकरण व निरुक्त ऐसे अर्थपरक शब्दों के भंडार हैं। पाणिनी की अष्टाध्यायी, संस्कृत एवं वेदों के अनेक व्याकरणों में से एक मात्र बचा हुआ यह व्याकरण विश्व की प्राचीनतम ही नहीं, सर्वाधिक व्यवस्थित, पूर्ण नियमनिष्ठ व वैज्ञानिक व्याकरण है। ऐसे अनगिनत ग्रंथ व उनका प्रत्येक शब्द तक गूढ़ विज्ञान आधारित है।

ज्ञान-परंपरा व शास्त्रों का शिक्षण

हमारे ये प्राचीन शास्त्र व उनका अध्ययन, अध्यापन संप्रदाय सापेक्ष कर्मकांड न होकर समूची मानव जाति की साझी व अनादि संस्कृति के अंग रहे हैं। हमारे ये ग्रंथ आज के सभी संप्रदायों के जन्म के पहले के ऐसे सार्वभौम मानव कल्याण के संपोषक ज्ञान शास्त्र के अंग थे। सार्वभौम, सर्वकालिक व शाश्वत महत्व के संस्कृत साहित्य की यह ज्ञान निधि छद्म सेकुलरवाद के दुर्लक्ष्य के कारण विलोपित ही होती चली गई है। आज देश में अल्पसंख्यक संस्थानों को ‘रिलीजन’ की शिक्षा हेतु भी शासन द्वारा अनुदान दिया जाता है। लेकिन भारत के सार्वभौम मानवोपयोगी एवं दुर्लभ संस्कृत वांड्ग्मय और उसके उन्नत ज्ञान को सांप्रदायिक शिक्षा कह कर विद्यालयों में उनके अध्ययन, अध्यापन व अनुसंधान दुर्लक्ष्य किया जाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। वेद-वेदांग व संस्कृत शास्त्रों के समुचित अध्यापन, शिक्षण व संरक्षण को गैर-सेकुलर कह कर उन्हें औपचारिक शिक्षण से बाहर कर निष्प्राण कर दिया गया है। देश की राष्ट्रीय अस्मिता के प्राणतत्व हमारे वेदों सहित संस्कृत वांड्ग्मय के प्रति यह विरोध राष्ट्र व उसकी संस्कृति के प्राण तत्व पर आघात से कम नहीं है। शासकीय विद्यालयों में उनके अध्यापन को गैर-सेकुलर ठहरा देने से स्वाधीनता के बाद आज केंद्र व राज्यों के बोर्ड के पाठ्यक्रमों से ये विलुप्त ही हो गए हैं। वेद, वेदांगों, उपनिषद, आरण्यक, ब्राह्मण ग्रंथ, पुराण, सूत्र ग्रंथ, खगोलीय व अन्य सहिता ग्रंथ, राज्य शास्त्रीय ग्रंथ आदि भारतीय वांड्ग्मय का विद्यालयों में उच्च प्राथमिक स्तर से शिक्षण समीचीन है। उससे इन विषयों में शास्त्री व आचार्य के उपाधिधारी पात्र शिक्षकों की मांग होने से उच्च शिक्षा के स्तर पर भी इन विषयों का अध्ययन-अध्यापन विलुप्त नहीं होता।

संविधान की उपयुक्त व्याख्या आवश्यक

भारत की यह शास्त्रोक्त ज्ञान-परंपरा भारतीय संस्कृति का प्राण तत्व है। इसका शिक्षण, संरक्षण व संवर्द्धन राज्य का अनिवार्य दायित्व एवं हमारा मौलिक मानवाधिकार है। भारतीय ज्ञान परंपरा को संविधान के अनुच्छेद 28 में ‘रिलीजन’ के शिक्षण के निषेध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अल्पसंख्यक संस्थानों को अपनी मजहबी शिक्षा देने की छूट ही नहीं, उन्हें दी जाने वाली उदार आर्थिक सहायता से अपनी ‘रिलीजन’ सापेक्ष सब प्रकार की शिक्षा देने हेतु उन्हें शासकीय पोषण व प्रोत्साहन दिया जा रहा है। भारतीय ज्ञान-परंपरा संस्कृति का प्राण तत्व है। उसे संप्रदाय सापेक्ष ‘रिलीजन’ की शिक्षा नहीं कहा जा सकता। दूसरी ओर भारतीय ज्ञान-परंपरा में सन्निहित उन्नत ज्ञान, विज्ञान व सामाजिक विज्ञान को उसी प्रकार शासकीय संरक्षण देने का संवैधानिक दायित्व होना चाहिए जैसा संविधान के अनुच्छेद 49 में राष्ट्रीय महत्व के कलात्मक व ऐतिहासिक अभिरुचि के संस्मारकों, स्थानों व वस्तुओं के संरक्षण के लिए राज्य की बाध्यता है।

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