धर्मशास्त्रों में कार्तिक मास का खूब महिमागान मिलता है। तमाम पौराणिक और आध्यात्मिक प्रसंग इसकी महत्ता को उजागर करते हैं। इस पवित्र महीने की सर्वाधिक फलदायी तिथि है कार्तिक पूर्णिमा। आध्यात्मिक दृष्टि से हिन्दू पंचांग के बारह महीनों में कार्तिक मास को सर्वाधिक पवित्र उत्सव माह की संज्ञा दी गयी है। देव दीपावली, त्रिपुरारी पूर्णिमा, गुरु नानक देव जी का प्रकाशपर्व और शीत ऋतु से पहले का अंतिम गंगा स्नान आदि आयोजन इस मंगलकारी पूर्णिमा का महिमागान करते हैं।
कार्तिक पूर्णिमा और देव दीपावली
सनातन धर्म की शास्त्रीय मान्यता के अनुसार कार्तिक अमावस्या के दिन जब धरती लोक के निवासी दीपोत्सव मनाते हैं तो जगतपालक श्रीहरि भगवान विष्णु के योगनिद्रा में होने के कारण माँ लक्ष्मी के साथ प्रथम पूज्य विघ्नहर्ता गणेश का पूजन किया जाता है। इस कारण कार्तिक शुक्ल की देवोत्थानी एकादशी को श्री हरि के योगनिद्रा त्याग पुनः जागृत होने पर आयोजित होने वाले श्रीहरि विष्णु और लक्ष्मी स्वरूपा माता तुलसी के पंच दिवसीय विवाहोत्सव की पूर्णाहुति कार्तिक पूर्णिमा को ही होती है। सनातन धर्म ग्रंथों के शास्त्रीय उद्धरण बताते हैं कि कार्तिक पूर्णिमा के इस मांगलिक अवसर पर देवगण प्रकाशोत्सव मनाकर आनंदित होते हैं। कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को शिव नगरी गंगापूजन के उपरान्त घाटों पर जगमगाते असंख्यों दीपकों व आकाशदीपों (कंदीलों) की जगमगाती रोशनी में दीपदान के माध्यम से देवाराधन और पितरों की अभ्यर्थना का दिव्य भाव ही इस देवपर्व का मूल प्राणतत्व है। कार्तिक पूर्णिमा की संध्याबेला में कल-कल बहती सदानीरा गंगा के तट पर बसी शिव नगरी के अस्सी घाटों पर वैदिक मंत्रों के बीच शास्त्रोक्त विधि से प्रज्ज्वलित लाखों दीपों की साक्षी में जब महाआरती का अनुष्ठान किया जाता है तो चहुंओर एक दिव्य आभामंडल की सृष्टि हो जाती है और विश्व की प्राचीनतम नगरी में देव दीपावली के इस नयनाभिराम अलौकिक दृश्य को अपनी आंखों में संजो लेने के लिए लाखों श्रद्धालु गांगाघाटों पर उमड़ पड़ते हैं। इस अवसर पर महारानी अहिल्याबाई द्वारा बनवाए गए पंचगंगा घाट का भव्य दीप स्तंभ 1001 दीपों की लौ से जगमगा कर प्रत्येक भावनाशील श्रद्धालु को ‘तमसो मा ज्योर्तिमय’ का पावन संदेश देता प्रतीत होता है।
शिवभक्तों की त्रिपुरारी पूर्णिमा
जानना दिलचस्प होगा कि शिवभक्त खास तौर पर शैव मतावलंबी कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा के रूप में अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति के साथ मानते हैं। धर्मशास्त्रों में इस तिथि को महाशिवरात्रि के बाद महादेव शिव की प्रसन्नता और कृपा प्राप्त करने की दूसरी सबसे फलदायी तिथि कहा गया है। कहा गया है कि इसी शुभ दिन महादेव शिव ने तारकासुर के तीन महाबलशाली पुत्रों का अंत कर देवशक्तियों को भयमुक्त किया था और हर्षित देवताओं ने महाआरती कर उनको त्रिपुरारी और त्रिपुरांतक की संज्ञाओं से विभूषित किया था। वैदिक दर्शन कहता है- दैहिक, दैविक और भौतिक, तीनों स्वरूपों के अज्ञान जनित दुगरुणों का नाश करने में सिर्फ महायोगी शिव ही सक्षम हैं। इसलिए वे त्रिपुरांतक कहलाते हैं। त्रिपुरारी पूर्णिमा इन्हीं महायोगी को नमन का पावन पर्व है।
शीत ऋतु से पहले का अंतिम गंगा स्नान
कार्तिक पूर्णिमा के गंगा स्नान की भारी मान्यता है। इसे शीत ऋतु से पहले का अंतिम गंगा स्नान माना गया है। इस मौके पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी व उज्जैन से गढ़ मुक्तेश्वर और राजस्थान के पुष्कर तीर्थ में विशेष स्नान पर्व का आयोजन होता है, जिनमें लाखों श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगाते हैं। पर्व से जुड़े अन्य पारौणिक प्रसंगों की बात करें तो जगत पालक भगवान विष्णु ने प्रलय काल में सृष्टि को बचाने के लिए इसी दिन अपना पहला मत्स्य अवतार लिया था। पांडवों ने भी महाभारत युद्ध में दिवंगत परिजनों की पावन स्मृति में कार्तिक पूर्णिमा को गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ में गंगा स्नान कर संध्या बेला में दीपदान किया था।
गुरु नानक देव का प्रकाश पर्व
सिख धर्म के प्रवर्तक व ‘एक ओंकार सतनाम’ के उद्घोषक महान संत गुरु नानक की जन्म तिथि होने के कारण सिख समाज में इस दिवस की भारी मान्यता है। सिख धर्मावलम्बी कार्तिक पूर्णिमा की तिथि सर्वाधिक शुभ मानते हैं और इस गुरुपर्व को पूरी श्रद्धा के साथ प्रकाशोत्सव के रूप में भारी धूमधाम से मनाते हैं। इस दिन गुरुद्वारों में गुरु पाठ और कीर्तन का आयोजन होता है तथा सुबह से शाम तक लंगर छकने के लिए भारी भीड़ उमड़ती है।
ऋतु अनुकूल आहार-विहार की व्यवस्था
अब इस पर्व से जुड़े लौकिक पक्ष की बात करें तो ऋतु परिवर्तन के खास बिंदु की सूचक कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यह अंतिम तिथि बताती है कि अब मौसम में शीत की ठिठुरन बढ़ेगी। देह विज्ञानियों के मुताबिक वाह्य मौसम का यह बदलाव हमारी दैहिक स्थिति को भी प्रभावित करता है। गर्मी जाने के साथ पित्त शांत हो जाता है जबकि शीत बढ़ने से कफ का प्रकोप बढ़ जाता है। आयुर्वेद के अनुसार शीत ऋतु में जठराग्नि प्रबल होती है, खाया हुआ आसानी से पच जाता है। इसलिए इस अवधि में शरीर को बलिष्ठ व ऊर्जावान रखने के लिए दूध, गुड़, घी, तिल, सूखे मेवे और ज्वार, बाजरा, मंडुआ, मक्का और बथुआ, चौलाई, पालक जैसे ऋतु अनुकूल आहार-विहार की व्यवस्था हमारे यहां बनायी गयी थी।
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