चौबीस अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र की ऋग्वेद में उपस्थिति भारतवर्ष में सूर्य उपासना का प्राचीनतम ऐतिहासिक-साहित्यिक साक्ष्य है। ऋग्वेद में गायत्री महामंत्र के अलावा सूर्य देवता से सम्बन्धित पांच अन्य सूक्त भी मिलते हैं। ऋग्वेद में सविता, पूषा, विष्णु, मित्र, भग, विवस्वान, आर्यमन, वृषाकपि, केशिन एवं विश्वानर आदि विविध रूपों में की गयी सूर्यदेव की स्तुतियां सूर्य उपासना की प्राचीनता को दर्शाती हैं।
वैदिक साहित्य के उद्धरण बताते हैं कि सूर्योपासना का प्रारम्भिक स्वरूप प्रतीकात्मक था। इस प्रारम्भिक युग में सूर्य को चक्र कमल आदि प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता था। बाद में भगवान सूर्य की मानव मूर्ति स्थापित करने की परम्परा शुरूहुई। सूर्य विज्ञान के प्रकांड विद्वान महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज के अनुसार भारत देश के चिर अतीत में प्रारम्भ की गयी सूर्य उपासना की प्रवाहमान कालसरिता न तो कभी बन्द हुई और न कभी मन्द पड़ी, बल्कि सूर्य उपासना का सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक महत्व समय के साथ उत्तरोत्तर बढ़ता गया। महाभारत काल में सूर्य उपासना का प्रचलन काफी बढ़ गया था। प्रायः प्रत्येक धर्मनिष्ठ सनातनधर्मी महाभारतकाल के उस घटनाक्रम से अवगत ही होगा जिसमें सूर्योपस्थान के उपरान्त दान देने के लिए विख्यात सूर्य पुत्र कर्ण देवराज इंद्र को अपने कवच व कुंडल दान कर सम्पूर्ण लोक में दानवीर कर्ण के नाम से विख्यात हो गये थे। मध्ययुग की बात करें तो कुषाण काल में भी सूर्य उपासना का प्रचलन जोरों पर था। कुषाण सम्राट स्वयं भी सूर्योपासक थे।
इतिहासवेत्ताओं के अनुसार कनिष्क (78 ई.) के पूर्वज शिव के साथ सूर्य के भी उपासक थे। इसके पश्चात तीसरी शताब्दी ई. के गुप्तकाल के सम्राटों के समय में भी सूर्य, विष्णु तथा शिव की उपासना का उल्लेख मिलता है। कुमार गुप्त (414-55 ई.) के समय में विष्णु, शिव एवं सूर्य की उपासना विशेष रूप से की जाती थी। स्कन्दगुप्त (455-67) के समय में तो बुलन्दशहर जिले के इन्द्रपुर नामक स्थान पर दो क्षत्रियों ने एक सूर्य मन्दिर भी बनवाया था। भारतीय इतिहासकार वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार गुप्तकाल के सम्राटों के शासनकाल में सूर्य उपासना भारतवासियों की आध्यात्मिक आस्था का प्रतीक बन गयी थी। उनके समय में मालवा के मन्दसौर नामक स्थान में, ग्वालियर में, इन्दौर में तथा बघेलखण्ड के आठमक नामक स्थान में निर्मित चार श्रेष्ठ सूर्य मन्दिरों का उल्लेख प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उनके समय में बनी हुई सूर्यदेव की कुछ मूर्तियां बंगाल में भी मिली हैं। कहा जाता है कि सातवीं सदी ईसवी में सूर्योपासना अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी थी।
सम्राट हर्षवर्धन के पिता तथा उनके कुछ और पूर्वज भी सूर्योपासक थे। सम्राट हर्ष के पिता के विषय में महाकवि बाण ने “हर्षचरित” में लिखा है कि वे प्रतिदिन सूर्योदय काल में स्नानोपरान्त आदित्य ह्दय स्तोत्र का पाठ किया करते थे। ज्ञात हो कि सम्राट हर्षवर्धन के समय में प्रयाग में तीन दिन का अधिवेशन हुआ था। इस अधिवेशन में पहले दिन बुद्ध की मूर्ति प्रतिष्ठित की गयी। बाद में क्रमशः दूसरे और तीसरे दिन सूर्य तथा शिव की पूजा की गयी थी। डॉ. भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार हर्ष के पश्चात सूर्य उपासक सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ (724-760 ई.) कश्मीर के श्रीनगर में एक भव्य सूर्य मार्तण्ड-मन्दिर का निर्माण करवाया था। इस मन्दिर के खण्डहरों से प्रतीत होता है कि यह मन्दिर अपने समय में काफी विशाल व भव्य रहा होगा। इसके अतिरिक्त प्रतिहार सम्राटों के समय भी सूर्य-पूजा का विशेष प्रचलन था। प्रतिहारों के बाद राजस्थान के चौहान व मध्य प्रदेश के गहरवार तथा मध्यप्रदेश के चन्देल शासकों ने भी अपनी सूर्यभक्ति की अभिव्यक्ति करते हुई कई सूर्य मन्दिर बनवाये थे। उड़ीसा के गंगयुगीन वंश के प्रतापी शासक नरसिंहवर्मन का बनवाया हुआ विश्व प्रसिद्ध कोणार्क मन्दिर तो आज भी सूर्य उपासना की भारतीय परम्परा का उत्कृष्टतम प्रतीक माना जाता है।
तमाम उपलब्ध साक्ष्य इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि प्राचीन भारत में अविरल रूप से व्याप्त सूर्य उपासना ने हमारे देश को न केवल आध्यात्मिक रूप से बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी भव्यता प्रदान की। वैदिक वाङ्मय के साथ विभिन्न पुराण व उप पुराण ग्रन्थ, सूत्र, स्मृति ग्रन्थ एवं रामायण-महाभारत महान ग्रंथ भी इस ऐतिहासिक सत्य के साक्षी हैं। इसके अतिरिक्त महाकवि कालिदास, बाणभट्ट, भवभूति, नारायण आदि ने सूर्य स्तुति से अपनी काव्य साधना को सफल बनाया।
सूर्य उपासना के स्वरूप, पद्धतियों व इसके लाभों के बारे में शौनक, यास्क, सायण आदि प्राचीन आचार्यों के अलावा स्वामी दयानन्द, श्री अरविन्द, पं. सातवलेकर, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य, स्वामी विशुद्धानंद, गोपीनाथ कविराज आदि भारतीय मनीषियों ने भी विस्तार से प्रकाश डाला है। गायत्री महामन्त्र के सविता देवता के स्वरूप और महत्त्व पर शोध करने के लिए देव संस्कृति विश्वविद्यालय में एक विस्तृत शोध योजना बनायी गयी है।
सनातन भारतीय संस्कृति में सूर्य को ऊर्जा का अक्षय स्रोत माना जाता है। भगवान सूर्य की आराधना एवं उपासना से शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शान्ति एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष की उपलब्धि होती है। सूर्यषष्ठी का लोकपर्व सविता देवता के उपासकों को अनेकानेक भौतिक व मानसिक अनुदान वरदान बांटने वाला अत्यन्त फलदायी सुअवसर माना गया है। दीपावली के छह दिन बाद कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि (सूर्यषष्ठी) को सूर्योपासना के इस महापर्व का तीन दिवसीय अनुष्ठान मुख्यतः रोगमुक्ति, पुत्र प्राप्ति और दीर्घायु सुख सौभाग्य की कामना से किया जाता है। बताते चलें कि छठ शब्द का प्रादुर्भाव षष्ठी से हुआ है। यह सूर्य उपासना की विशिष्ट व विशेष तिथि मानी गयी है। इस पर्व पर उदय व अस्ताचलगामी सूर्य नारायण को भाव भरा अर्ध्य चढ़ाया जाता है। छठ पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व मे बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्त्तनों, गन्ने का रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
पौराणिक कथानकों के मुताबिक महाभारत काल में अंग देश के राजा कर्ण ने गंगा नदी में सूर्य को अर्ध्य देकर छठ पर्व की शुरुआत की थी। कहा जाता है कि श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब भी इस दिन सूर्योपस्थान कर कुष्ठ रोग से मुक्त हुए थे। इस व्रत को सर्वप्रथम च्यवन मुनि की पत्नी सुकन्या ने अपने पति की आरोग्यता के निमित्त किया था। कथा मिलती है कि इस व्रत के अनुष्ठान के प्रभाव से ऋषि को नेत्र ज्योति प्राप्त हुई और वे वृद्ध से युवा हो गये। ऋषि वाणी कहती है कि आज भी गायत्री महामंत्र का जप करते हुए जो नैष्ठिक साधक नियमपूर्वक 12 वर्ष तक निरन्तर इस व्रत का पारण करता है उसकी हर इच्छित मनोकामना की पूर्ण हो जाती है। सूर्यषष्ठी में गायत्री मंत्र के जप के साथ सूर्यध्यान करने से सहज ही आन्तरिक चेतना परिष्कृत होती है और पवित्रता-प्रखरता में अभिवृद्धि होती है। इन्हीं कारणों से सूर्य को आरोग्य का देवता कहा गया है।
सूर्योपासना आरोग्य की रक्षा करने के अलावा अन्तःकरण की चट्टानी मलिनता एवं कषाय-कल्मषों को धोकर रख देती है। इस अर्ध्यदान में आध्यात्मिकता के साथ वैज्ञानिकता का भी गहन- रहस्य निहित है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो षष्ठी तिथि (छठ) को एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है। सूर्य के प्रकाश के साथ उसकी पराबैगनी किरण भी चंद्रमा और पृथ्वी पर आती हैं। इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। इस पर्व के अनुष्ठान से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा होती है तथा पृथ्वी के जीवों को इससे बहुत लाभ मिलता है।
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