‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के वेदवाक्य का संदेश देने वाले दीपोत्सव की पांच दिवसीय पर्व शृंखला हमारी स्वर्णिम सभ्यता और संस्कृति की विभिन्न धाराओं को ठौर देती है। विभिन्न स्थानीय विशिष्टताओं के साथ समूचे देश-दुनिया में दीपावली का आलोकपर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
दीपक हमारी आस्था का सनातन प्रमाण है, जिसके दिव्य आलोक में हम हजारों वर्ष से प्रकाश पर्व का अनुष्ठान करते आ रहे हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के वेदवाक्य का संदेश देने वाले दीपोत्सव की पांच दिवसीय पर्व शृंखला हमारी स्वर्णिम सभ्यता और संस्कृति की विभिन्न धाराओं को ठौर देती है। विभिन्न स्थानीय विशिष्टताओं के साथ समूचे देश-दुनिया में दीपावली का आलोकपर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में जहां दीपपर्व एक माह तक चलता है, वहीं गढ़वाल मंडल में यह त्योहार चार बार मनाया जाता है। यहां तीज-त्योहार मनाने का तरीका बेहद निराला है।
कुमाऊं का दीपोत्सव
कुमाऊं मंडल में दीपपर्व शरद पूर्णिमा से शुरू होता है। इस दिन से कुमाऊं के लोग लगातार एक माह तक आकाशदीप प्रज्ज्वलित करते हैं। धनतेरस के दिन से शुरू होने वाली दीपावली की पांच दिवसीय शृंखला का शुभारंभ घर के प्रवेश द्वार, दीवारों, आंगन तथा घर के देवस्थान में भींगे हुए चावलों को पीस कर बनाए गए लेप, गेरू और पवित्र लाल मिट्टी, जिसे स्थानीय भाषा में ‘बिस्वार’ कहते हैं, से ‘ऐपण’ यानी परंपरागत रंगोली बना कर किया जाता है। बीते कुछ दशकों में धनतेरस पर नए बर्तन खरीदने की परंपरा देवभूमि में भी खासी लोकप्रिय हो चुकी है। शाम को महालक्ष्मी को भोग लगाकर परिवार के सभी सदस्यों में प्रसाद बांटने की परंपरा है। धनतेरस के अगले दिन छोटी दीपावली पर सूर्योदय से पूर्व बिना बोले तेल मालिश कर स्नान किया जाता है। शाम को घर की देहरी (प्रवेश द्वार) पर यम का दीया जलाया जाता है।
महानिशा के दिन कुमाऊं मंडल में अधिकांश परिवारों में महिलाएं व्रत रखती हैं और घर की बहू-बेटियां गन्ने के तीन तनों से मां लक्ष्मी की प्रतिमा का निर्माण कर उसे नथ आदि आभूषणों और लहंगा-चुनरी से सजाकर शुभ मुहूर्त में उसे घर के मंदिर (पूजा स्थल) में प्रतिष्ठित कर विधि-विधान से उसकी पूजा-अर्चना करती हैं। महालक्ष्मी पूजन के दिन खासतौर से केले, दही और घी के मिश्रण से ‘सिंगल’ (मालपुआ) तथा ‘झंगोरा’ (सांवा चावल) की खीर का भोग लगाया जाता है। साथ ही, इस दिन बनने वाले पकवानों में उड़द की दाल के वड़े, गुलगुले, पूरी-कचौरी और आलू के गुटके, भांग के भुने हुए बीज की चटनी व रायता आदि प्रमुख होते हैं। इसके बाद आतिशबाजी का दौर चलता है।
दीपावली के दूसरे दिन गो संरक्षण का संकल्प लेकर गोवर्द्धन पूजन किया जाता है। इस दिन प्रसाद के रूप में विशेष रूप से भात, बाड़ी और मड़ुए के आटे का फीका हलवा और जौ की विशेष खिचड़ी तैयार की जाती है। सबसे पहले गोवंश के पांव धोए जाते हैं। फिर माथे पर हल्दी और कुमकुम का तिलक लगा कर उनके गले में घंटी बांधी जाती है और फिर फूलों की माला पहनाकर गोमाता की आरती उतारी जाती है। तत्पश्चात गोमाता के सींगों में सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है।
यह परंपरा ‘गो ग्रास’ भेंटना कहलाती है। अगले दिन भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन विवाहित बेटियां इस पांच दिवसीय पर्व के प्रथम दिवस ‘धनतेरस’ पर तांबे के पात्र में भिगोए गए पर्वतीय लाल धान को कपड़े पर सुखाकर उसे ओखली में कूटती हैं और उसे सूप से फटक कर भाइयों का च्युड़ पूजन कर उनके सुखी, संपन्न और खुशहाल जीवन की मंगल कामना के साथ उनके माथे पर तिलक लगाती हैं। महालक्ष्मी पूजन के 11वें दिन देवोत्थान एकादशी को कुमाऊं में धूमधाम से ‘बूढ़ी दीपावली’ मनाई जाती है।
दीपावली पर सीमाओं पर तैनात सुरक्षाबलों में भी बहुत उत्साह रहता है। आईटीबीपी की चौकियों और चमोली के जोशीमठ ब्लॉक की सीमावर्ती सुरक्षा चौकियों में दीपावली पूजन की पुरानी परंपरा है। इन सैन्य चौकियों में लक्ष्मी पूजा के बाद दीये जलाए जाते हैं, आतिशबाजी की जाती है और विशेष दावत का भी आयोजन किया जाता है। दीपावली से पहले जो भी जवान छुट्टी से वापस लौटता है, वह दीये और आतिशबाजी का सामान चौकियों पर लेकर जाता है।
गढ़वाल के चार बग्वाल
गढ़वाल मंडल में प्रकाश पर्व चार बार मनाया जाता है-कार्तिक बग्वाल के अतिरिक्त इगास बग्वाल, राज बग्वाल और मार्गशीर्ष बग्वाल के रूप में। गढ़वाली में दीपावली को ‘बग्वाल’ और एकादशी को ‘इगास’ कहा जाता है। स्थानीय निवासियों की मान्यता है कि कार्तिक अमावस्या के दिन लक्ष्मी जाग्रत होती हैं, इसलिए महानिशा पर सौभाग्य एवं समृद्धि की देवी लक्ष्मी का पूजन विघ्नहर्ता गणेश के साथ किया जाता है।
इस कार्तिक बग्वाल के एक दिन पूर्व टिहरी जनपद में राज बग्वाल मनाने की अनूठी परंपरा है। इसे केवल ‘डोभाल’ जाति के लोग मनाते हैं। इसके बाद जब समूचे देशवासी दीपावली मनाते हैं, तो यहां कार्तिक बग्वाल मनाया जाता है। कार्तिक दीपावली के 11 दिन बाद आकाश दीवाली मनाई जाती है, जिसे स्थानीय बोली में ‘इगास’ कहा जाता है। इस दिन हरि प्रबोधनी इगास (एकादशी) पर श्रीहरि शयनावस्था से जागते हैं, इसलिए भगवान विष्णु के साथ माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है। दीपावली का उत्सव इसी दिन पराकाष्ठा पर पहुंचता है।
पौराणिक मान्यता है कि भगवान राम के 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटने की खबर गढ़वाल वासियों को 11 दिन बाद मिली। इसी कारण गढ़वाल में अमावस्या के लक्ष्मी पूजन के 11 दिन बाद हर्षोल्लास से इगास मनाया जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार, वनवास के बाद पांडवों में से चार भाई घर वापस लौट गए, लेकिन भीम कहीं फंस गए थे। भीम 11 दिन बाद जब घर लौटे तो इगास उत्सव मनाया गया। तब से यह परंपरा चली आ रही है। कार्तिक दीपावली के एक माह बाद गढ़वाल मंडल में मार्गशीर्ष दीपावली मनाई जाती है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘रिख बग्वाल’ कहते हैं। जनश्रुति है कि सन् 1800 की शुरुआत में गोरखाओं ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया था। उनके अत्याचारों से गढ़वाली जनता त्रस्त हो चुकी थी।
जनता का दर्द देख गढ़वाल नरेश महाराज प्रद्युम्न शाह ने 1803 में गोरखाओं से लोहा लिया। बताया जाता है कि महाराज कार्तिक अमावस्या यानी दीपावली के दिन रणक्षेत्र में गए थे, इस कारण टिहरी रियासत की जनता दीपावली नहीं मना सकी। एक माह बाद जब महाराज युद्ध में विजय प्राप्त कर वापस लौटे, तो राज्य के निवासियों ने मार्गशीर्ष माह की अमावस्या को उनके स्वागत में दीपोत्सव मनाया। तभी से यह परंपरा शुरू हो गई।
मेले में बड़ी दीपावली के दिन जंगल से एक सूखा पेड़ काट कर लाया जाता है और उसे गांव के नजदीक रखकर उसकी निगरानी करते हुए ग्रामीण रातभर कीर्तन-भजन करते हैं। अगली सुबह देवताओं की डोली के साथ इस पेड़ पर छिलके बांध कर तीन गांवों की रस्सी को बांधकर छिलकों को जलाकर पेड़ को खड़ा कर दिया जाता है। बाद में रस्सी को जलने से बचाने के लिए गांव का एक व्यक्ति पेड़ पर चढ़ता है। मान्यता है कि यदि रस्सी जल गई या पेड़ जिस गांव की तरफ झुका, तो उस गांव में नुकसान होता है। इसलिए देवलांग मेला बहुत सावधानी से मनाया जाता है।
देवलांग की पूजा
गढ़वाल की बनाल पट्टी के गैर गांव में दीपावली के दिन देवलांग पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व पर अमावस्या की रात क्षेत्र के 66 गांव के हजारों लोग देवदार की टहनियां लेकर मंदिर आते हैं और देव स्वरूप वृक्ष देवलांग की परिक्रमा कर पूजा-अर्चना करते हैं। इसके बाद वे रात भर नृत्य करते हुए उत्सव मनाते हैं।
उत्तरकाशी के डुण्डा ब्लॉक के धनारी पट्टी के पुजार गांव में स्थित सिद्धेश्वर मंदिर के प्रांगण में दीपावली मेले का आयोजन किया जाता है। मेले में बड़ी दीपावली के दिन जंगल से एक सूखा पेड़ काट कर लाया जाता है और उसे गांव के नजदीक रखकर उसकी निगरानी करते हुए ग्रामीण रातभर कीर्तन-भजन करते हैं। अगली सुबह देवताओं की डोली के साथ इस पेड़ पर छिलके बांध कर तीन गांवों की रस्सी को बांधकर छिलकों को जलाकर पेड़ को खड़ा कर दिया जाता है। बाद में रस्सी को जलने से बचाने के लिए गांव का एक व्यक्ति पेड़ पर चढ़ता है। मान्यता है कि यदि रस्सी जल गई या पेड़ जिस गांव की तरफ झुका, तो उस गांव में नुकसान होता है। इसलिए देवलांग मेला बहुत सावधानी से मनाया जाता है।
‘भैलो’ खेलने का रिवाज
उत्तराखंड में दीपावली पर दीप जलाने के साथ ‘भैलो’ खेला जाता है, जो यहां का स्थानीय खेल है। भैलो पेड़ों की छाल से बनी रस्सी होती है। दीपावली के दिन लोग इस रस्सी के दोनों सिरों पर आग लगा कर इसे सिर के ऊपर गोल गोल घुमाकर रात भर पूरे गांव में नाचते-गाते हैं। भैलो खेलते समय लोग ढोल, दमाऊ की थाप पर ‘झिलमिल झिलमिल, दिवा जगी गैनि, फिर बौड़ी ऐ ग्ये बग्वाल’ जैसे गढ़वाली लोकगीत गाते हैं, जो उत्सवी माहौल में चार चांद लगा देते हैं। गढ़वाल में दीपपर्व के अवसर पर स्थानीय फसलों के पकवान तैयार किए जाते हैं। इस दिन गेहूं, चावल, जौ व मड़ुए के आटे से स्वाले, अरसा, रूटाना आदि पकवान बनाए जाते हैं। इसके अलावा, उड़द की दाल का वड़ा, झिंगोरा खीर, आटे के लड्डू व हलवा आदि पकवान को एक बड़ी थाली या परात में सजा कर प्रसाद रूप में अर्पित किया जाता है।
दीपावली पर सीमाओं पर तैनात सुरक्षाबलों में भी बहुत उत्साह रहता है। आईटीबीपी की चौकियों और चमोली के जोशीमठ ब्लॉक की सीमावर्ती सुरक्षा चौकियों में दीपावली पूजन की पुरानी परंपरा है। इन सैन्य चौकियों में लक्ष्मी पूजा के बाद दीये जलाए जाते हैं, आतिशबाजी की जाती है और विशेष दावत का भी आयोजन किया जाता है। दीपावली से पहले जो भी जवान छुट्टी से वापस लौटता है, वह दीये और आतिशबाजी का सामान चौकियों पर लेकर जाता है।
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