बिरसा मुंडा का आंदोलन 1895-1900 तक चला। यह आंदोलन दो कारणों से हुआ- एक, अपनी छीनी जमीन वापस पाना और दूसरा, ईसाई मिशनरियों का विरोध। मुंडा समुदाय अपने सरदारों के नेतृत्व में 15 साल से जमीन वापस पाने के लिए लड़ रहे थे, पर कोई नतीजा नहीं निकल रहा था।
रांची से शुरू हुआ यह आंदोलन समूचे मुंडा क्षेत्र में फैला हुआ था। लालच देकर ईसाई मिशनरियों ने बड़ी संख्या में उनका कन्वर्जन किया, पर उनकी स्थिति जस की तस रही। 1895 में बिरसा नामक नौजवान के करिश्माई व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मुंडों ने उन्हें अपना सरदार मान लिया। बिरसा ने वनवासियों की जमीन हड़पने और उनकी संस्कृति पर हमले के खिलाफ तीव्र संघर्ष छेड़ दिया।
24 अगस्त, 1895 को 15 समर्थकों को उन्हें गिरफ्तार कर राजद्रोह के आरोप में साल की कैद की सजा दी गई। जेल से छूटने के बाद फिर उन्होंने जमींदारों, ठेकेदारों और सरकार के खिलाफ वनवासियों को संगठित किया और 1899 के क्रिसमस के दिन रांची के आसपास क्रांति शुरू की। 7 जनवरी, 1900 तक समूचे मुंडा अंचल में क्रांति फैल गई।
अंग्रेजों ने प्रभावित क्षेत्रों में सेना उतार दी जो बिरसा की सेना पर भारी साबित हुई। फिर भी बिरसा के अनुयायी डटे रहे। 3 फरवरी, 1900 को बिरसा को सिंहभूम में कैद कर लिया गया। बिरसा एवं उनके करीब 500 साथियों पर मुकदमा चलाया गया। इसी बीच, 9 जून, 1900 को रांची जेल में बिरसा की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई ।
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