लोकनायक श्रीराम भारतीय जनमानस के उच्चतम आदर्श हैं। श्रीराम के आदर्शों की लीलाएं आज भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के कोने-कोने में लोकप्रिय हैं। जिन्हें अक्षरों का ज्ञान नहीं है, वे भी रामलीलाओं से वह ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं जो पढ़े-लिखे लोग पचासों पुस्तकें पढ़ने के बाद भी प्राप्त नहीं कर पाते। शायद यही वजह है कि आज भी ग्राम्य अंचलों में “राम! राम!”, जय रामजी की और जय जय सीताराम के साथ अभिवादन की परम्परा बनी हुई है। वाकई ये रामलीलाएं ही हैं जो तमाम तकनीकी प्रगति के बावजूद हमारे मूल्यों को जीवित रखे हुई हैं। हमारे समाज में सदियों पुरानी इन रामलीलाओं का आकर्षण जरा भी कम नहीं हुआ है। माना जाता है कि रामलीलाओं के मंचन की शुरुआत गोस्वामी तुलसीदास ने सत्रहवीं शताब्दी में अवध, काशी और चित्रकूट की रामलीला के साथ की थी। इन दिनों समूचे देश में दुर्गोत्सव और रामलीला की धूम है तो आइए इस अवसर पर चर्चा करते हैं यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल देश की सुविख्यात रामलीलाओं की –
रामनगर की रामलीला
रामनगर (बनारस) की रामलीला की सबसे बड़ी विशेषता वर्तमान के घोर यांत्रिक युग में पुरातन विधि निषेधों की परम्परा का अक्षरश: पालन करना है। एक माह तक चलने वाले ऐसे अनूठे सांस्कृतिक अनुष्ठान का आयोजन विश्व में शायद ही अन्यत्र कहीं होता हो। सूचना क्रांति के वर्तमान युग में भी रामनगर की रामलीला का मंचन जरा भी नहीं बदला है। लीला का अनुशासन ज्यों का त्यों बरकरार है। पात्रों की वेशभूषा, मंचीय साज-सज्जा तथा संवाद अदायगी आदि सभी कुछ त्रेतायुगीन सामाजिक संस्कृति का बोध कराते प्रतीत होते हैं। विशाल मुक्ताकाश के नीचे मेहताब की रोशनी में मानस की चौपाइयों व दोहों का ढोल की थाप पर रामायणी जब सप्रसंग गीतमय गायन करते हैं तो दर्शक एक अलग ही दिव्य लोक में पहुंच जाते हैं।
जनश्रुति है कि शिवनगरी में इस विश्व प्रसिद्ध रामलीला का शुभारम्भ गोस्वामी तुलसीदास ने किया था। उनके पश्चात उनके शिष्य मेधा भगत ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया; किन्तु वर्तमान समय में यह रामलीला जिस रूप-स्वरूप में लोकप्रिय है, उसका श्रेय काशी नरेश महाराज ईश्वरी नारायण सिंह और उनके गुरु स्वामी काष्ठजिह्वा को जाता है। अठारहवी सदी के उत्तरार्ध में वर्ष 1783 में काशिराज ईश्वरी नारायण सिंह के संरक्षण व प्रोत्साहन से तुलसी कृत मानस के मर्मज्ञ विद्वान स्वामी काष्ठजिह्वा के अनूठे संपादन, संशोधन, संवाद कौशल एवं मुक्ताकाश मंचन के सौन्दर्य से सजी रामनगर की यह रामलीला आज सुदूर देशों तक विख्यात हो चुकी है। यह रामलीला आज भी उसी अंदाज़ में होती है जैसी काशी नरेश ईश्वरी नारायण सिंह के समय में शुरू हुई थी। यही अंदाज इस रामलीला को अन्य रामलीला से अलग करता है। पूरा मंचन रामचरितमानस के आधार पर अवधी भाषा में होता है। इस रामलीला में आज भी 650 साल पुरानी जीवनशैली, संस्कृति व परिवेश की झलक मिलती है। रामनगर दुर्ग के द्वारपालों के उद्घोष के साथ किले से निकलने वाली शाही सवारी की झलक पाने को नगरवासी व दर्शनार्थी जब सड़क के दोनों किनारों पर खड़े होकर हर-हर महादेव के उद्घोष के साथ काशी नरेश का अभिवादन करते हैं तो मानो पुरातन भारतीय समाज का दृश्य साकार हो उठता है। इस लीला को देखने के लिए काशी ही नहीं, देश-विदेश से श्रद्धालु आज भी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। रामनगर की इस रामलीला का मंचन पांच किलोमीटर में फैले प्राकृतिक मंचों पर प्रसंग के मुताबिक होता है। इन स्थलों को देखने पर उनके वास्तविक रूप का भान होता है। जैसे- अयोध्या, लंका, पंचवटी, अशोकवन, जनकपुर आदि सभी स्थल उसी की तरह प्रतीत होते हैं जैसा रामचरित मानस में वर्णित हैं।
पूरे विश्व में इतने बड़े प्राकृतिक मंच पर मंचित होने वाली रामलीला की दूसरी बड़ी विशेषता यह है कि यहां संवाद-कथन में ध्वनि विस्तारक का प्रयोग नहीं होता। बावजूद इसके, हजारों की भीड़ इन संवादों को मंत्रमुग्ध होकर पूरी स्पष्टता से सुनती है। सैकड़ों साल पुरानी यह रामलीला आज भी पेट्रोमेक्स और मशाल की रोशनी में ही होती है। यह लीला देखने हजारों की भीड़ जुटती है फिर भी किसी माइक का इस्तेमाल नहीं होता। बीच-बीच में ख़ास घटनाओं के वक़्त आतिशबाज़ी ज़रूर होती है। यही नहीं, इस रामलीला की एक और खासियत है जो कहीं देखने को नहीं मिलती। यह रामलीला किसी एक मंच पर नहीं होती। करीब चार किलोमीटर के दायरे में एक दर्जन कच्चे-पक्के मंचों में इसका मंचन होता है। इन मंचों को ही अयोध्या, जनकपुर, चित्रकूट, पंचवटी, लंका और रामबाग का रूप दिया जाता है। परम्पगत रूप में इस रामलीला के मंचन का शुभारम्भ भले ही अनंत चतुर्दशी से होता है लेकिन इसकी तैयारियों का शुभारम्भ श्रावण कृष्ण चतुर्थी को प्रथम गणेश पूजन के बाद श्रीराम-सीता व भाइयों के एकांतवासीय प्रशिक्षण से हो जाता है। सर्वप्रथम नवग्रहों की पूजा-आराधना के साथ काशीनरेश के शस्त्रागार में रखे राम धनुष व अन्य दिव्य अस्त्र शस्त्रों का पूजन किया जाता है, फिर पंच स्वरूपों के तिलक वंदन के बाद समूचा रामायणी दल रामलीला स्थल पर विराजता है।
गणेश पूजन के बाद पंचस्वरूप की भूमिका निभाने वाले पात्र गंगा किनारे बलुआ घाट स्थित धर्मशाला में मानस के सुप्रसिद्ध विद्वानों के निर्देशन में रामलीला का पाठ सीखते हैं। इस दौरान पात्रों को संस्कृत के श्लोक व अभिनय मंचन का भाव सिखाया जाता है। इस दौरान इनकी आचार व विचार शुद्धि का पूरा ध्यान रखा जाता है। यहां वह अपने घर-परिवार से दूर संन्यासी की तरह सात्विक जीवन बिताते हैं, संवाद और भावों की प्रस्तुतिकरण में पारंगत होने का अभ्यास करते हैं। इस दौरान उन्हें सांसारिक नाम की बजाय श्रद्धापूर्वक श्रीराम, सीता, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न पुकारा जाता है। आश्विन शुक्ल पूर्णिमा पर लीला के समापन के बाद ही ये पांचों स्वरूप अपने घर लौट सकते हैं। अनंत चतुर्दशी (रामलीला आरंभ) के एक दिन पहले तक उन 175 दोहों का पाठ किया जाता है जिनका प्रयोग रामलीला के मंचन में नहीं किया जाता। एक माह तक चलने वाली इस लीला के मंचन का समापन उत्तरकांड के 91वें दोहे पर सनकादिक मिलन के साथ होता है। तत्पश्चात कोट विदाई के दौरान शेष दोहे का गायन कर रामायणी दल लीला को पूर्णता देते हैं। ज्ञात हो कि रामलीला के किशोरवय पात्र उन्हीं परम्परागत ब्राह्मण परिवारों के होते हैं जो पुश्तैनी रूप से अभिनय करते आ रहे हैं। रामलीला के विभिन्न पात्रों का संवाद कथन खड़ी बोली में किया जाता है तथा ये समस्त संवाद काष्ठ जिह्वा स्वामी द्वारा लिखित हैं और इन संवादों की खासियत यह कि इसमें न कुछ जोड़ा जा सकता है और न ही कुछ घटाया।
पौड़ी की ऐतिहासिक रामलीला
119 साल पुरानी इस रामलीला की लोकप्रियता भी यूनेस्को तक है। इस रामलीला की शुरुआत साल 1897 में कंडाई गांव में हुई थी लेकिन इसे शहर में लाने का श्रेय क्षेत्रीय अखबार “वीर” के सम्पादक कोतवाल सिंह नेगी एवं साहित्यकार तारादत्त गैरोला को जाता है। इनके प्रयासों से इस रामलीला का मंचन साल 1908 से लगातार होता आ रहा है। खास बात यह है कि इसमें महिला किरदार की भूमिकाएं महिलाएं ही निभाती हैं। वहीं कुमाऊं की रामलीला भीमताल के एक स्थानीय ज्योतिषी पण्डित रामदत्त के लिखे रामचरित मानस के नाटक पर खेली जाती है। इसमें शास्त्रीय संगीत पर आधारित रागों और धुनों पर अनूठी संवाद अदायगी एक अलग ही समां बांध देती है। कुमायूं में रामलीला का मंचन ब्रज के लोक गीतों पर आधारित नाट्य शैली में किया जाता है। इस रामलीला में बोले जाने वाले संवादों में धुन, लय, ताल और सुरों में पारसी थियेटर की छाप दिखाई देती है। स्थानीय बुजुर्ग लोगों की मानें तो कुमांयू में रामलीला के मंचन की शुरुआत 18वीं सदी के मध्यकाल में हुई थी।
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