भारत में मंगलवार को वह बहुप्रतीक्षित निर्णय आया, जिस पर भारत ही नहीं बल्कि विश्व की मीडिया की दृष्टि थी। और जब यह पांच न्यायाधीशों की पीठ से यह निर्णय आया तो भारतीय परम्परा एवं विवाह की पवित्रता और उद्देश्य के अनुरूप ही आया। इसे लेकर सोशल मीडिया पर भी जनता ने माननीय न्यायालय को धन्यवाद कहा। यह निर्णय था समलैंगिक विवाह का।
इस मामले पर मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ सुनवाई कर रही थी, जिसमें जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस. रविंद्र भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा सम्मिलित थे। और एकमत होकर यह निर्णय दिया कि समलैंगिकों के संबंधों को विवाह के दायरे में नहीं लाया जा सकता है!
भारत के विमर्श को विकृत करने वाली एक बहुत बड़ी लॉबी इन जोड़ों के साथ को विवाह के दायरे में लाना चाहती थी। कुछ विदेशी ताकतें इस प्रयास में थीं कि संस्कृति और परम्पराएं नष्ट हो जाएं। भारत में विवाह कोई अनुबंध नहीं है जो किसी के दो पक्षों के मध्य किया जा सकता है। विवाह के लिए एक स्त्री एवं पुरुष का होना अनिवार्य है।
समलैंगिक जोड़ों के प्रति पूर्ण संवदेना सहित इस मामले को बहुत गहराई से देखने की आवश्यकता है, जिससे कि उनकी मानवीय आवश्यकताओं एवं हितों पर कोई प्रभाव न आए और साथ ही विवाह की परम्परा भी दूषित न होने पाए। कोई भी व्यक्ति अपने मन के साथी के साथ जीवन बिताने के लिए स्वतंत्र है, परन्तु उसे विवाह के दायरे में लाना उचित नहीं है, क्योंकि एक ही लिंग के व्यक्ति विवाह करेंगे तो कौन पति होगा और कौन पत्नी, इसकी भी स्पष्टता नहीं थी।
बार-बार एक विशेष वर्ग, या कहें आजादी गैंग द्वारा यह बात उठाई जाती है जिसमें कहा जाता है कि प्यार बस प्यार होता है। वह किसी से भी हो जाता है। समलिंगी व्यक्ति से प्यार हो जाता है तो उसके साथ रहने में कैसी आपत्ति? क्या उसके साथ विवाह नहीं किया जा सकता है? क्योंकि विवाह से जुडी कई औपचारिकताएं होती हैं। यह सही है कि प्यार किसी से भी हो सकता है, परन्तु सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता जब उस वर्ग में लिंग निर्धारण (Sex-determination) की विशेषता बता रहे थे तो यह समझ से परे था कि कैसे लिंग का निर्धारण होगा क्योंकि जो सेक्सुअलिटी है वह कई कारकों पर निर्भर करती है और परिवर्तनशील है।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि जब लिंग निर्धारण ही परिवर्तनशील है तो कैसे इस बात का निर्धारण हो सकता है कि पति कौन है और पत्नी कौन है?
वहीं यह भी बात उठाई गई कि यदि पति या पत्नी न कहकर मात्र स्पाउस कहा गया तो घरेलू हिंसा या दहेज़ ह्त्या जैसे मामलों में महिलाओं को सूर्यास्त के बाद गिरफ्तार न करने के प्रावधानों को कैसे लागू किया जाएगा? बहुत सारे पहलू ऐसे हैं जिन्हें ऐसे कथित विवाह में देखा जा सकता था। और सबसे महत्वपूर्ण पति और पत्नी की यौनिक भूमिकाएं थीं।
समलैंगिक व्यक्तियों की अपनी समस्याएं हैं, और बहुत ही स्वाभाविक समस्याएं हैं क्योंकि इस वर्ग को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। और यह अपराध नहीं है, यह भी भारतीय चेतना में है। परन्तु यह पूरी तरह से स्पष्ट होना चाहिए कि उनकी समस्याओं के हल को कानूनी जामा पहनाते समय न ही विवाह की अवधारणा पर प्रहार किया जा सकत है और न ही उन अधिकारों को उन्हें कानूनी तौर पर प्रदान किया जा सकता है, जिसे लेकर समाज सहज नहीं है।
ऐसा ही एक अधिकार समलैंगिकों द्वारा माँगा जा रहा था। यह अधिकार था बच्चे गोद लेने का अधिकार। इस पर राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग भी अपनी आपत्ति व्यक्त करते हुए इस मामले में हस्तक्षेप याचिका दायर कर चुका था कि यदि समलैंगिक जोड़ों को बच्चे गोद लेने का अधिकार दे दिया जाएगा तो बच्चे के सामने परम्परागत परिवार की अवधारणा या मॉडल नहीं आ पाएंगे। एनसीपीसीआर ने यह कहा था कि न ही हिन्दू विवाह अधिनियम और न ही किशोर न्याय अधिनियम समलैंगिक जोड़ों द्वारा गोद लिए जाने को मान्यता देते हैं।
यहाँ पर यह भी प्रश्न उठता है कि यदि समलैंगिक जोड़ा किसी बच्चे को गोद लेता है तो गोद लिए बच्चे पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, क्या वह कभी सामान्य जीवन जी सकेगा? क्या केवल अपने सुख के लिए आने वाली तमाम पीढ़ियों का जीवन दांव पर लगाने दिया जा सकता था? जो भी याचिकाएं थीं, कहीं न कहीं वह अपने सुख को लेकर और भारतीय अवधारणाओं पर प्रहार करने के लिए थीं।
यदि विवाह की अवधारणा में परिवर्तन किया जाता है तो वह पूरी तरह से विनाशकारी सिद्ध होता, क्योंकि इससे समलैंगिकता को बढ़ावा मिलता और विवाह का मूल उद्देश्य अर्थात संतानोत्पत्ति पर प्रभाव पड़ता। एक अजीब सी विकृति का प्रसार होता। समाज में यौनिक अराजकता का भी विस्तार होता। ऐसे में कानून के माध्यम से विवाह के दायरे में ऐसे संबंधों को लाने की इतनी लम्बी लड़ाई अंतत: किसलिए थी?
भारत में आज तक ऐसा कोई भी व्यक्ति सहज नहीं दिखाई देगा, जिसने समलैंगिक व्यक्तियों के अधिकारों के हनन की बात की हो। परन्तु उन अधिकारों के लिए दूसरे और अधिकार हैं, उन्हें तो दांव पर नहीं लगाया जा सकता है। एक गोद लिए गए बच्चे का यह मौलिक अधिकार है कि उसे माता पिता का प्यार मिले, उसे परिवार मिले और उसके समक्ष परिवार की अवधारणा एवं यौन संबंधों की अवधारणा स्पष्ट हो।
विवाह का अर्थ मात्र एक साथ रहना नहीं होता है। एक साथ तो विवाह के बिना भी रहा जा सकता है। जैसे लोग लिव इन में रहते ही हैं। किसी को उससे कोई आपत्ति नहीं होती। लिव इन में रहने वालों के भी अपने अधिकार हैं, जिनकी व्याख्या और उसके आधार भी समय समय पर माननीय न्यायालय द्वारा की जाती हैं। ऐसे ही समलैंगिक व्यक्तियों के अथिकारों की भी बात की गयी। परन्तु साथ ही न्यायालय ने यह भी सुनिश्चित किया कि कहीं विवाह की मूल अवधारणा पर आघात न हो जाए।
न्यायालय ने यह भी कहा कि क़ानून बनाना संसद का काम है, न्यायपालिका का नहीं। अत: सरकारें यह सुनिश्चित करें कि ऐसे लोगों के अधिकारों की रक्षा हो। परन्तु इस पूरे मामले से एक बात नहीं समझ आती है कि जहां एक तरफ एक बहुत बड़ा वर्ग, जिसे प्यार की आजादी चाहिए, जिसे एक साथ रहने की आजादी चाहिए, समाज के विपरीत जाकर हर कुकृत्य करने की आजादी चाहिए, फिर उसे समाज से स्वीकार्यता के लिए विवाह क्यों चाहिए? जब आप समाज के स्वीकृत कोई नियम नहीं मानते हैं तो समाज द्वारा मान्य विवाह के बंधन में बंधने की यह बाध्यता समझ नहीं आती है।
दरअसल एक बहुत बड़ा असंतुष्ट वर्ग होता है जो केवल फाल्ट लाइन खोजकर उसमें अपनी प्रसन्नता खोजता है। उसका उद्देश्य किसी व्यवस्था का निर्माण नहीं बल्कि पहले से चली आ रही व्यवस्था को नष्ट करना होता है। भारत में महिला एवं पुरुष से परे तीसरे लिंग को लेकर समाज में स्वीकार्यता रही। परन्तु उस विमर्श को एलजीबीटीक्यू में लाकर क्या उन्हें भी हानि पहुंचने का प्रयास नहीं था?
ऐसे एक सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यही है कि क्या यह सम्पूर्ण भारतीय विमर्श को विकृत करने का प्रयास था, जिसे हाल फिलहाल न्यायालय द्वारा विफल कर दिया गया है! सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को लेकर आम लोग भी कह रहे हैं कि “धन्यवाद मीलोर्ड!”, क्योंकि भारत की आम जनता आजादी गैंग की आजादी की असलियत भलीभांति जानती है और जानती है कि इस गैंग का हर कदम उनके परिवार को तोड़ने के लिए ही है!!
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