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इस्राएल-हमास संघर्ष पर बंटा विश्व

हमास के आतंकी हमले और इस्राएली नागरिकों से बर्बरता पर अरब देशों ने मिश्रित प्रतिक्रिया दी है। भारत, पश्चिमी गुट और यूरोपीय संघ इस्राइल के साथ खड़े हैं, जबकि रूस, चीन, ईरान, कतर, सीरिया और यमन ने फिलिस्तीन का समर्थन किया है

by जितेन्द्र कुमार त्रिपाठी
Oct 17, 2023, 12:59 pm IST
in विश्व, विश्लेषण
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बर्बरता के खिलाफ इस्राएल ने गाजा पट्टी को दुनिया के नक्शे से मिटा देने तक सैन्य अभियान जारी रखने का संकल्प लिया है। इस दोतरफा हमले में 3,000 से अधिक सैनिक और नागरिक मारे गए, जबकि हजारों घायल हुए हैं।

गाजा पट्टी में काबिज आतंकी संगठन हमास ने इस्राएल पर हमले कर फिर से जंग छेड़ दी है। इस सुनियोजित हमले में हमास ने लगभग 5,000 रॉकेट दागे, जिसमें कई इस्राएल के अभेद्य माने जाने वाले ‘आयरन डोम’ रक्षा कवच को भेदते हुए गिरे। हमास ने पैराग्लाइडिंग से लड़ाके भी इस्राएल में उतारे, जिन्होंने घरों में घुस कर बेरहमी से निर्दोष नागरिकों को कत्ल किया। यहां तक कि महिलाओं के शवों के साथ बलात्कार किया। इस बर्बरता के खिलाफ इस्राएल ने गाजा पट्टी को दुनिया के नक्शे से मिटा देने तक सैन्य अभियान जारी रखने का संकल्प लिया है। इस दोतरफा हमले में 3,000 से अधिक सैनिक और नागरिक मारे गए, जबकि हजारों घायल हुए हैं।

इस्राएल और फिलिस्तीन के बीच विवाद की जड़ में 2,000 वर्ष पूर्व शुरू हुआ मजहबी उन्माद है। यहूदी, ईसाई और इस्लाम, तीनों के लिए यह क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है। ये तीनों मत-मजहब अब्राहम की संतति से उत्पन्न हुए हैं। ओल्ड टेस्टामेंट के अनुसार, अब्राहम के पौत्र याकूब (जैकब) ने 12 यायावर जातियों को मिलाकर इस्राएल नाम दिया। याकूब के पुत्र यहूदा के कारण इस्राएल के लोग यहूदी कहलाए, जिनका उपासना गृह माउंट टेम्पल यरुशलम में था, जिसकी केवल एक दीवार बची है।

इस क्षेत्र में 1,000 वर्ष से अधिक समय तक यहूदियों के रहने के बाद ईसा मसीह का जन्म हुआ, जिनके नाम पर ईसाई मत बना। मसीह का जन्म इसी क्षेत्र के बेथलहम में हुआ, उन्हें यरुशलम में सूली पर लटकाया गया और वहीं उनका पुनर्वतरण हुआ। इसलिए यह क्षेत्र ईसाइयों के लिए भी आस्था का केंद्र बिंदु बन गया। बाद में ईसाइयों द्वारा छेड़े गए क्रूसेड के कारण यहूदी वहां से विस्थापित होने के लिए मजबूर हो गए, लेकिन पीढ़ियों तक मातृभूमि को नहीं भूले। इसी बीच, 7वीं सदी में इस्लाम के उदय के साथ यह क्षेत्र मुसलमानों के लिए भी पवित्र हो गया, क्योंकि वहां अल-अक्सा मस्जिद है, जो मक्का और मदीना के बाद सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।

यदि इस संघर्ष में दोनों मोर्चों (गाजा में हमास व लेबनान में हिज्बुल्लाह) पर इस्राएल जाता, तो एक बात साफ हो जाएगी कि आतंकवाद अजेय नहीं है। उस पर काबू पाया जा सकता है, भले ही उसे समूल नष्ट न किया जा सके।

20वीं सदी में द्वितीय युद्ध के उपरांत हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार के बाद ब्रिटेन इस क्षेत्र पर काबिज हुआ और संयुक्त राष्ट्र संघ की सहमति से मजहब के आधार पर उसने इस क्षेत्र को बांटा तथा इस्राएल-फिलिस्तीन को स्वतंत्र देश की मान्यता दी। लेकिन इस बंटवारे को अनुचित बताते हुए अरब देशों ने फिलिस्तीन के साथ मिलकर इस्राएल के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। उनसे लड़ते हुए इस्राएल अपना विस्तार करता रहा।

पिछली सदी के सातवें दशक में मिस्र-इस्राएल के बीच कैम्प डेविड समझौते से क्षेत्र में स्थायी शांति की कुछ उम्मीद बनी, जो अंतिम दशक में इस्राएल और फिलिस्तीन के बीच ओस्लो समझौतों के रूप में फलित हुई। लेकिन किसी भी पक्ष ने दोनों समझौतों का पूरी तरह पालन नहीं किया। परिणामत: फिलिस्तीनी अधिकरण का गठन हुआ, जिसे वेस्ट बैंक और गाजा की सत्ता मिली। लेकिन 2007 में आतंकी समूह हमास ने गाजा पट्टी पर कब्जा कर लिया। तब से न तो गाजा में और न ही फिलिस्तीनी प्राधिकरण में चुनाव हुए। 16 वर्ष में हमास ने इस्राएल पर 12 बार हमले की कोशिश की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। वर्तमान हमला उसकी लंबी तैयारी और सुनियोजित साजिश का ही परिणाम है।

बहरहाल, हमास के हमले और इस्राएल की जवाबी कार्रवाई पर दुनियाभर के देशों ने मिली-जुली प्रतिक्रिया दी है, जिसमें भविष्य के समीकरणों के निहितार्थ छुपे हैं। हमास के हमले और इस्राएली नागरिकों से बर्बर बर्ताव पर पश्चिमी देशों ने कड़ी निंदा की है, जबकि यूरोपीय संघ ने तो गाजा पट्टी को दी जाने वाली मानवीय सहायता रोकने की घोषणा की है। हालांकि रूस और चीन ने फिलिस्तीन का समर्थन किया है।

रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव का कहना है कि इस क्षेत्र में स्थायी शांति केवल तभी संभव है, जब फिलिस्तीन को स्वतंत्र राष्ट्र की मान्यता दी जाए। पश्चिमी गुट के विरोध की नीति के कारण चीन का भी रवैया रूस की ही भांति रहा। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट कहा है कि इस्राएल पर हुए आतंकी हमले में भारत उसके साथ खड़ा है। लेकिन विपक्ष, खासतौर से कांग्रेस, सपा और असदुद्दीन ओवैसी ने विरोध किया और सरकार की आलोचना की है।

कई नेता और विपक्षी दल फिलिस्तीनी प्राधिकरण और हमास को भ्रमवश एक मान लेते हैं। फिलिस्तीनी प्राधिकरण देश की एक वैधानिक सरकार है, जबकि हमास उसके विरोध में खड़ा एक आतंकी संगठन है। सैद्धांतिक रूप से भारत हमेशा से फिलिस्तीन के साथ खड़ा रहा है। कई अवसरों पर दोनों पक्षों को स्पष्ट भी किया है कि भारत-फिलिस्तीन और भारत-इस्राइल संबंध एक-दूसरे से जुड़े नहीं हैं। भारत जहां फिलिस्तीन का समर्थन उसकी स्वायत्तता तथा मानवाधिकार बहाल करने के लिए करता है, वहीं इस्राएल के साथ हमारे संबंध कृषि, विज्ञान, सुरक्षा आदि क्षेत्रों में सहयोग पर आधारित हैं। शायद अमेरिका भी हमारी भी तरह फिलिस्तीनी प्राधिकरण और हमास को दो अलग और विपरीत संगठन मानता है, इसीलिए अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास से भी मिल रहे हैं।

इधर, अरब देशों की प्रतिक्रियाएं मिश्रित रही हैं। हालांकि ईरान, कतर, सीरिया और यमन ने सीधे-सीधे इस्राएल को आक्रमणकारी कहा है, जबकि संयुक्त अरब अमीरात ने तो इस्राएल का पक्ष लेते हुए सीरिया को युद्ध में नहीं कूदने की चेतावनी दे दी है। मिस्र ने भी कह दिया है कि भले ही मानवीय आधार पर वह गाजा पट्टी में राहत सामग्री आने दे, पर इस काम के लिए अपने यहां से कोई गलियारा नहीं बनाने देगा, जिससे हमास आतंकी मिस्र आ सकें। वहीं, अरब लीग के विदेश मंत्रियों की आपात बैठक में इस्राएल से आग्रह किया गया कि वह अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार द्विराष्ट्र सिद्धांत को मान्यता दे और शीघ्र शांति बहाली सुनिश्चित करे।

हमास ने हमला तो कर दिया, लेकिन उसके पास गोला-बारूद का भंडार जल्दी ही समाप्त हो सकता है, क्योंकि इस्राएल की नाकाबंदी के बाद हमास को इसकी आपूर्ति नहीं हो पाएगी। हमास के पास संभावित 20,000 रॉकेट हैं, जिसमें से लगभग 5,000 उसने पहले ही दिन दाग दिए। वही अभी जिस गति से इस्राएल पर रॉकेट दाग रहा है, उसका भंडार अधिक से अधिक दस दिन में खत्म हो जाएगा।

इस संघर्ष का सबसे बड़ा प्रभाव सऊदी अरब पर पड़ा है। इस्राएल के साथ उसका समझौता कुछ समय के लिए टल सा गया है। इस्लामी देशों में अपनी साख बचाए रखने के लिए सऊदी अरब हमास की खुली निंदा नहीं की है, जिसके कारण अमेरिका उससे नाराज है। सऊदी अरब की इस द्विविधा का लाभ उठाने की फिराक में है तुर्किये। इसलिए वह हमास से इस्राएली बंधकों को छुड़ाने के लिए बातचीत कर रहा है। यदि वह इसमें सफल हो गया, तो मुस्लिम बिरादरी में अधिक ताकतवर और समन्वयकारी नेता के रूप में सामने आ सकता है।

प्रश्न है कि इस संग्राम का अंत क्या, कब और कैसा होगा? हमास ने हमला तो कर दिया, लेकिन उसके पास गोला-बारूद का भंडार जल्दी ही समाप्त हो सकता है, क्योंकि इस्राएल की नाकाबंदी के बाद हमास को इसकी आपूर्ति नहीं हो पाएगी। हमास के पास संभावित 20,000 रॉकेट हैं, जिसमें से लगभग 5,000 उसने पहले ही दिन दाग दिए। वही अभी जिस गति से इस्राएल पर रॉकेट दाग रहा है, उसका भंडार अधिक से अधिक दस दिन में खत्म हो जाएगा।

इधर, गाजा में बिजली, पानी, खाद्य सामग्री, ईंधन और दवाओं की बढ़ती किल्लत बढ़ गई है।लिहाजा, इस्राएल को मानवीय त्रासदी के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए विरोध के स्वर भी उभरने लगे हैं। इससे पहले कि ये इस्राएल व्यापक दबाव बनाएं, वह हमले तेज कर हमास को मिटा देना चाहता है। भले ही इस्राएल कहे कि यह लड़ाई तब तक चलेगी, जब तक अंतिम हमास आतंकी नहीं मारा जाता, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह संभव नहीं है। जनसंकुल गाजा क्षेत्र पर कब्जा करने के बाद घर-घर घुस कर तलाशी अभियान चलाना इस्राएल के लिए दुरूह और लंबा काम होगा।

इतिहास गवाह है, आतंकवाद शुरू तो जल्दी होता है, पर इसका समूल नाश करने में बहुत समय लगता है, खासकर तब जब पांथिक और जातिगत नफरत शताब्दियों से पल रही हों। यदि इस संघर्ष में दोनों मोर्चों (गाजा में हमास और लेबनान में हिज्बुल्लाह) पर इस्राएल विजयी होता है, तो एक बात साफ हो जाएगी कि आतंकवाद अजेय नहीं है। उस पर काबू पाया जा सकता है, भले ही उसे समूल नष्ट न किया जा सके। इससे आतंकवादी संगठनों में डर और उनसे लड़ रहे देशों में उत्साह और साहस का संचार होगा। साथ ही, यह भी साबित हो गया कि कोई भी शक्तिशाली देश या उसका गुप्तचर संगठन अभेद्य नहीं होता।
(लेखक पूर्व राजदूत हैं)

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