बांटो और मिटाओ

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हितेश शंकर एवं ज्ञानेंद्र बरतरिया

भगवा आतंकवाद की थ्योरी गढ़ने वाली कांग्रेस ने 136 साल के इतिहास में कभी भी इस्लामिक आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता’, जैसा हास्यास्पद नैरेटिव प्रचारित किया। जाहिर है जातिगत जनगणना का पैंतरा हो या सनातन को सीधे ललकारने और नष्ट करने का आह्वान, बार-बार लज्जित-पराजित होने के बाद हिंदुत्व विरोधी शक्तियां अब ‘हिन्दुओं का खात्मा, हिन्दुओं को लड़ाकर’ करने की राह पर बढ़ चली हैं।

बिहार में जातिगत जनगणना का कथित डेटा जारी कर दिया गया है और अब विपक्षी दल पूरे देश में जातिगत जनगणना कराने की मांग कर रहे हैं। क्या है इस जातिगत जनगणना का असल मकसद? रणनीति सीधी है- हिंदुओं का खात्मा हिंदुओं को लड़ा कर। देश में आखिरी बार जातिगत जनगणना 92 वर्ष पहले 1931 में की गई थी। आजाद भारत की पहली जनगणना (1951) के बाद से अब तक केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया है। इसके बाद से सरकारें जाति के आधार पर जनगणना कराने या इसका डेटा जारी करने से परहेज करती रहीं।

पिछड़े वर्ग की परिभाषा क्या होगी? इसे लेकर नेहरू सरकार ने काका कालेलकर समिति का गठन किया था, जिसने कुल 2,399 पिछड़ी जातियों की पहचान की थी। हालांकि समिति किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई। इसके बाद 1978 में मंडल आयोग बना। आयोग ने 1980 में रिपोर्ट दी। इसने 1931 की जनगणना का आधार बना कर ही आबादी का हिसाब लगाया और 1980 में पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की बात कही। 1990 में वीपी सिंह सरकार ने इसे लागू कर दिया। तीर निशाने पर बैठा। देश में भारी सामाजिक तनाव पैदा हुआ। हिंदू समाज आपस में लड़ रहा था या लड़ा दिया गया था। प्रदर्शन और आगजनी की घटनाएं आम थीं। खैर, 2014 और फिर 2019 में हिंदू समाज पुन: एकजुट हुआ, जिससे कई राजनीतिक दलों में बेचैनी होने लगी। जाति की राजनीति करने वाले जानते थे कि हिंदू एकता को तोड़ने का एक ही तरीका है- जाति का जिन्न फिर बोतल से निकाला जाए।

इसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जगदलपुर (छत्तीसगढ़) की रैली में किया। उन्होंने कहा, ‘‘कल से कांग्रेस नेता कह रहे हैं ‘जितनी आबादी, उतना हक’…मैं सोच रहा था कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या सोच रहे होंगे? वह कहते थे कि संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला अधिकार है, उसमें भी मुसलमानों का। लेकिन अब कांग्रेस कह रही है कि समुदाय की आबादी तय करेगी कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार किसका होगा। … तो अब क्या वे (कांग्रेस) अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कम करना चाहते हैं? अल्पसंख्यकों को हटाना चाहते हैं? तो क्या सबसे बड़ी आबादी वाले हिंदुओं को आगे आकर अपने सारे अधिकार लेने चाहिए? मैं दोहरा रहा हूं कि कांग्रेस पार्टी अब कांग्रेस के लोगों द्वारा नहीं चलाई जा रही है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मुंह बंद करके बैठे हैं, न उनसे पूछा जाता है, न ये सब देखकर बोलने की हिम्मत होती है। अब कांग्रेस को आउटसोर्स कर दिया गया है। देशविरोधी ताकतें अब कांग्रेस को चला रही हैं। कांग्रेस किसी भी कीमत पर हिंदुओं को बांटकर देश को तबाह करना चाहती है।’’

हिंदुओं के विरुद्ध युद्ध की घोषणा

जनजाति सुरक्षा मंच के सहसंयोजक डॉ. राजकिशोर हांसदा कहते हैं, ‘‘जाति की राजनीति जिनका आधार है, उन्हें आरक्षण के न्यायसंगत और समावेशी वितरण से सरोकार नहीं है। वे जाति की जनगणना और जाति की राजनीति पर जोर देते हैं।’’ 2010 में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने मनमोहन सरकार पर जातिगत जनगणना कराने का दबाव बनाया। मनमोहन सरकार ने 2011 में सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) कराने का फैसला किया। इसके लिए 4,389 करोड़ रुपये का बजट पास हुआ। 2013 में यह जनगणना पूरी हुई, लेकिन इसमें जातियों का डेटा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। जुलाई 2015 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में तब केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि इस डेटा में 46 लाख जातियां और उपजातियां हैं।

1931 की अंतिम जातिगत जनगणना में जातियों की कुल संख्या 4,147 थी, जबकि एसईसीसी-2011 में 46 लाख दर्ज हुई हैं। कई विश्लेषकों का कहना है कि इतनी जातियां होना असंभव है। इस वजह से आरक्षण और नीति निर्धारण में इस डेटा का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने भी 2014-15 में जाति आधारित जनगणना कराने का फैसला किया, लेकिन इसे असंवैधानिक बताया गया तो नाम बदल कर ‘सामाजिक एवं आर्थिक’ सर्वे कर दिया। इस पर 150 करोड़ रुपये खर्च हुए। 2017 के अंत में कंठराज समिति ने रिपोर्ट सरकार को सौंपी, पर सिद्धारमैया सरकार ने इसे सार्वजनिक नहीं किया। बाद की सरकारों ने भी इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। जानकारों का कहना था कि संविधान, सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित वर्गों में सुधार की वकालत करता है। लेकिन इसका मकसद सिर्फ जातियों के बीच भेद पैदा करके राजनीतिक लाभ लेना नहीं हो सकता।

फिर जाति की राजनीति का क्या फायदा? लिहाजा, अब यह जिन्न फिर बोतल से बाहर है। राहुल गांधी, जॉर्ज सोरोस या आई.एन.डी.आई. अलायंस या जो भी अन्य अदृश्य ताकतें हों, उन्होंने हिंदुओं के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी है। रणनीति स्पष्ट है- हिंदुओं को लड़ाकर हिंदुओं का खात्मा। वरिष्ठ पत्रकार सुदेश गौड़ कहते हैं, ‘‘देखिए, भारत में हिंदुओं के विरुद्ध अत्यधिक घृणा को चुनावी मुद्दा बना दिया गया है। इस चुनाव में विपक्ष की रणनीति जिस स्तर के हिंदू विरोध पर आधारित है, उसकी आहट कोई भी सुन सकता है। यह रणनीति उस हर चीज के उन्मूलन और विनाश का लक्ष्य लेकर चल रही है, जिसके साथ हिंदू और सनातन सभ्यता की पहचान जुड़ी है। इसके बावजूद, हिंदू व सनातन सभ्यता मात्र पार्श्व निशाना हैं। असली लक्ष्य है भारत, भारत की जनता व भारत की शक्ति।’’

हिंदू और सनातन सभ्यता को पहली चुनौती दी स्टालिन के पुत्र ने। दूसरा चरण शुरू किया जातिगत जनगणना के शिगूफे ने और किसी को कोई गलतफहमी न हो, इसलिए राहुल गांधी ने इस बात की सीधी घोषणा कर दी कि (वह और उनके साथी) जन्म के आधार पर, जाति व्यवस्था के नाम पर हिंदुओं को सीधे और ऊपर से नीचे तक कई खांचों में विभाजित करना चाहते हैं। यह जन्म आधारित व्यवस्था वह है, जो अंग्रेजों ने हम पर जनगणना और आपराधिक जनजाति अधिनियम के जरिए थोपी थी। हर सवाल पर राहुल गांधी के पास एक ही जवाब है-जातिगत जनगणना। जैसे माफी मांगने के पहले तक वह राफेल और अडाणी की रट लगाए रहते थे। प्रश्न यह है कि 1931 के बाद 60 वर्ष तक कांग्रेस सत्ता में रही। लेकिन उसने कभी जातिगत जनगणना नहीं कराई। क्यों? और 2024 से पहले यह अत्यावश्यक हो गई। क्यों?

कारण सीधा सा है। दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोेफेसर श्रीप्रकाश सिंह कहते हैं,‘‘2024 का चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं है। यह युद्ध है। इसमें हिंदुओं और सनातन धर्म के भाग्य का फैसला होना है। रहेंगे या मिटेंगे? कांग्रेस 60 वर्ष तक सत्ता में रही। इस दौरान देश और संस्कृति का जितना नुकसान किया जा सकता था, वह किया जा चुका है। सारा प्रतिरोध उसे सुधारने के प्रयासों का है।’’ विश्लेषकों का कहना है कि आलोचना का एक आधार यह कि जो काम 60 वर्ष में बिगाड़ा गया, उसे 9 वर्ष में सुधार लिया जाना चाहिए था। सही है कि इन आलोचनात्मक आवाजों के कुतर्कों का स्रोत भी हम नहीं पहचानते। लेकिन वे आलोचना का हर सुर दबाने में सक्षम नजर आते हैं।

सोशल मीडिया पर चल रहे अभियानों को गौर से देखें। मूल उद्देश्य भ्रम पैदा करना है। एक बड़ा हथियार बना है या बनाया गया है-जाति। प्रत्येक टूलकिट में किन लोगों को कौन-कौन भुगतान कर रहा है, हम नहीं जानते। लेकिन यह स्पष्ट है कि यह भारत की जनता को मूर्खता, संकीर्णता और अन्यायपरक नैरेटिव्स से भ्रमित करने का अभियान है। सोशल मीडिया के जानकार कहते हैं, ‘‘हर व्यक्ति के पास सभी तथ्य हर समय नहीं हो सकते। कोई पत्र-पत्रिका उन्हें पूरा नहीं छाप सकती। इसलिए हर किसी के मन में संदेह पैदा करना, उसके लिए नैरेटिव गढ़ना सरल हो जाता है।’’

यह टूलकिट हिंदुओं को बांटने के लिए सक्रिय हुई है। सामान्य श्रेणी कही जाने वाली जातियों को ओबीसी के खिलाफ खड़ा करना। और जिस ओबीसी समुदाय में सौ से अधिक जातियां शामिल हैं, उन्हें विभाजित करने के लिए आरक्षण के मुद्दे को हवा देना। और यह भान कब हुआ? टाइमिंग महत्वपूर्ण है। यह हुआ ‘उनकी’ बेल्जियम यात्रा के बाद। बहुत सावधानीपूर्वक बनाई गई योजना के साथ। क्या रहस्य है? लेकिन जो रहस्य नहीं है, वह यह कि यह चुनाव की नहीं, हिन्दू विनाश की तैयारी है। ललित नारायण विश्वविद्यालय, दरभंगा में इतिहास की सहायक प्रोफेसर डॉ. बबीता कुमारी कहती हैं, ‘इतिहास और समाज विज्ञान की दृष्टि से देखें कि किसी ‘जातीय विनाश’ का अभियान कैसा होता है? पहले चरण में जातीय विनाश का अभियान ऐसी घृणा और दुष्प्रचार से शुरू होता है, जिसमें घृणा किया जाना बिल्कुल जायज और सामान्य बात बन जाए। एक बार जब आप घृणा करने योग्य व्यक्ति के रूप में स्थापित हो जाते हैं, फिर आपके खिलाफ हिंसा एक ‘पवित्र कार्य’ बन जाती है। इसके बाद आपका विनाश या नरसंहार‘ एक स्वाभाविक और महान कार्य’ हो जाता है। यह घृणा आपके किसी कार्य के कारण नहीं, बल्कि आपके अस्तित्व के कारण है।’’

घृणा और सत्ता के संबंधों का इतिहास

सनातन धर्म के शत्रु: उदयनिधि स्टालिन और ए. राजा

‘‘एक पाकिस्तान हो, इस्लाम का एक अलग केंद्र। पाकिस्तान होगा तो हमें गैर-मुसलमानों का मुंह नहीं देखना पड़ेगा। मुस्लिम राष्ट्र का किला तभी रोशन होगा, जब पाकिस्तान में कोई मूर्तिपूजक कांटा नहीं रहेगा।’’ यह गाना (अनुवादित) 1945 में सुल्तानकोट में मुस्लिम लीग सम्मेलन में गाया गया था। (स्रोत: ‘हाउ जिन्ना डिवाइडेड मुस्लिम्स’ (इन थ्री कंट्रीज) एम.जे. अकबर/ओपन मैगजीन)
वास्तव में इसमें नया कुछ नहीं था। अमीर खुसरो ने अपनी पुस्तक ‘आशिका’ में लिखा है, ‘‘मुबारक हिंदुस्तान, वैभवपूर्ण धर्म, जहां कानून को पूर्ण सम्मान और सुरक्षा मिलती है। पूरा देश, हमारे पवित्र योद्धाओं की तलवार के कारण, आग से मिटाए गए कांटों से रहित जंगल जैसा बन गया है… इस्लाम विजेता है, मूर्तिपूजा पर काबू पा लिया गया है। यदि शरीयत कानून ने जजिया के भुगतान के जरिए मौत से छूट न दी होती, तो हिंद का नाम, जड़ और टहनियां, सब समाप्त हो गई होतीं।’’ (एंड्रयू बोस्टोम की पुस्तक ‘द लीगेसी आफ जिहाद’ से उद्धरण)। गौर कीजिए, अमीर खुसरो ने ‘आशिका’ में हिंदुओं की तुलना ‘हिंदुस्तान के कांटों’ से की है। वास्तव में इस्लामी आक्रमणकारियों से लेकर यूरोपीय उपनिवेशवादियों तक का एकसूत्रीय लक्ष्य हिंदुस्तान के इन्हीं ‘कांटों’ को साफ करना रहा है। भारत की आबादी और भारत की संस्कृति को समाप्त करने के इस इरादे को घृणा, बंटवारे और हिंसा की अपनी-अपनी विचारधाराओं के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह वही भावना, मिशन और लक्ष्य था, जिसका सफल प्रयोग मुस्लिम लीग ने किया था। सनातन धर्म के प्रति घृणा, हिंसा और शत्रुता को एक तरह की वैधता देने का कार्य चुनाव के इस मौसम में उन लोगों द्वारा शुरू किया गया है, जो सत्ता के लिए कुछ भी करेंगे। कुछ भी!

यह कैसे होता है? अगर किसी सड़कछाप विवाद में किसी मुसलमान की मौत या हत्या हो जाती है, तो मानो पूरी व्यवस्था पर वज्रपात हो जाता है। उसके लिए पूरी सत्ता माफी मांगने लगती है। उसके घर-परिवार के लोगों तक राजनीतिक पर्यटन होने लगता है। लाखों का मुआवजा, सरकारी नौकरी, सरकारी जमीन, यह-वह, जो भी हो-सब। लेकिन राजस्थान के उदयपुर में जब कपड़े सिलवाने के बहाने आए लोग एक दर्जी का गला काट देते हैं, तो उसी वहां की सरकार ऐसे व्यवहार करती है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। यह तो होता रहता है। यह तो सामान्य बात है। सामान्यीकरण ऐसे ही होता है।

यूपीए-3 ने अपना नाम बदलने के साथ ही हिंदुओं के प्रति नफरत को इस तरीके से एक धार्मिक (और राजनीतिक) अधिकार के रूप में वैध ठहराया। हाल के घटनाक्रम पर एक सरसरी दृष्टि डालें। सबसे बड़ा हमला डीएमके नेता और तमिलनाडु सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने किया। उन्होंने सनातन धर्म की तुलना मच्छरों, डेंगू और मलेरिया से की और अपने अनुयायियों से इसे मिटाने का आह्वान किया। इसी उदयनिधि ने नवंबर 2022 में घोषणा की थी कि वह एक गौरवान्वित ईसाई हैं। किस बात का गर्व? उस चर्च के इतिहास पर गर्व, जिसने भारत सहित ईसा मसीह के नाम पर लाखों लोगों की हत्या की? या उस सिद्धांत पर गर्व है, जो दावा करता है कि सच्चा ईश्वर केवल ईसाइयों को स्वर्ग में जाने की अनुमति देता है और हिंदुओं को हमेशा के लिए नरक में भेज देता है?

उदयनिधि स्टालिन ने नया क्या कहा? यह तो ठीक वही है, जिसका सपना चर्च, इस्लामिक पादरी और वामपंथी सदियों से देखते आ रहे हैं। ‘विपक्ष’ के पूरे पारिस्थितिक तंत्र ने इसका संरक्षण किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इसका स्वत: संज्ञान लेने की अपील को अनदेखा कर दिया। इस ‘कवर फायर’ से उत्साहित होकर एक दागी और भ्रष्ट नेता ए. राजा ने एक कदम आगे बढ़कर कहा कि उनके नेता (उदयनिधि) हिंदुओं (सनातन धर्म अनुयायियों) के प्रति ‘बहुत नरम’ थे। उन्होंने तर्क दिया कि सनातन धर्म की तुलना ‘एचआईवी’ से की जानी चाहिए न कि केवल डेंगू से। डीएमके के एक अन्य मंत्री पोनमुडी ने आई.एन.डी.आई अलायंस का राजनीतिक और चुनावी मुद्दा बहुत स्पष्ट रूप से परिभाषित किया- ‘सनातन धर्म के खिलाफ युद्ध।’ पोनमुडी के शब्दों में ‘‘इंडिया गठबंधन का गठन सनातन धर्म के सिद्धांतों के खिलाफ लड़ने के लिए किया गया है। हमारे बीच मतभेद हो सकते हैं, लेकिन गठबंधन में 26 पार्टियां सनातन धर्म के खिलाफ लड़ाई में एकजुट हैं, लेकिन हमें इसके लिए राजनीतिक सत्ता की जरूरत है।’’

इनकी इतनी हिम्मत इसलिए हो सकी, क्योंकि ‘हिंदू धर्म उन्मूलन’ को वैधता प्रदान की जा चुकी है। आई.एन.डी.आई अलायंस को हिंदू धर्म का पूर्ण विनाश सुनिश्चित करने के लिए सिर्फ सत्ता की आवश्यकता है और इसे एक तर्क के रूप में पेश किया गया है। यह धारणा अपने स्वरूप में भयावह है, इसका अर्थ नरसंहार है। किसी भी समूह के खिलाफ इस प्रकार की घृणा किसी भी समाज में अस्वीकार्य होगी। लेकिन आज के भारत में जिन्ना के समय की तरह, इसे अभिव्यक्ति का एक सामान्यीकृत रूप बना दिया गया है।

उस सत्ता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा (या कांटा, जैसा ऊपर उल्लेख हुआ है) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। कांग्रेस के नेतृत्व ने, वास्तव में उस पार्टी के अध्यक्ष ने, प्रधानमंत्री मोदी को सनातन धर्म और हिंदू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया है कि वह सनातन धर्म के पर्याय हैं और उनकी शक्ति सनातन धर्म की शक्ति है। अत: मोदी का पतन ही सनातन धर्म का भी विनाश है। जो कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के अनुसार, एक ‘वैध प्रयास’ है। याद कीजिए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के शब्द- ‘‘मोदी को अधिक शक्ति का मतलब सनातन धर्म और आरएसएस को अधिक शक्ति है।’’ उनके बेटे व कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खड़गे भी हिंदुओं के प्रति पिता की नफरत को दोहरा चुके हैं। यह उन लोगों की प्रवृत्ति है, जो घृणा की वकालत करते हैं और घृणा की अभिव्यक्ति की किसी भी सीमा को नहीं मानते हैं। जैसे ‘यह तो सिर्फ शब्द हैं’, ‘यह तो निजी राय है’, यह तो ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ है। नहीं, यह इनमें से कुछ भी नहीं है। यह घृणा है, जिसे अमीर खुसरो और जिन्ना की तरह अमल में लाया जाता है। डीएमके सांसद टीआर बालू के भाषण का एक अंश है- ‘‘मैंने 100 वर्ष पुराने मंदिरों को ध्वस्त कर दिया है- एक सरस्वती मंदिर, एक लक्ष्मी मंदिर और एक पार्वती मंदिर। तीनों मंदिर मेरे निर्वाचन क्षेत्र में थे। मैंने यह जानते हुए उन्हें ध्वस्त किया कि मुझे वोट नहीं मिलेंगे। लेकिन मुझे यह भी पता था कि वोट कैसे हासिल किए जाते हैं।’’ इसका वीडियो क्लिप आसानी से देखा जा सकता है। क्या तमिलनाडु की डीएमके सरकार द्वारा मंदिरों को ध्वस्त करने की ललक में आपको मुस्लिम आक्रांताओं और ईसाई मिशनरियों की झलक नहीं दिखती? वास्तव में तमिलनाडु सरकार उन आम लोगों को निशाना बना रही है, जो या तो हिंदू देवताओं की मूर्तियां बनाते हैं या उन्हें मंदिरों में स्थापित करने वालों में शामिल हैं। इनमें महिलाएं भी हैं। इनमें गणेश चतुर्थी का उत्सव मनाने वाले भक्त भी हैं।

घृणा और जाति : डीएमके का डीएनए

अंग्रेजों या उसके भी पहले से हिंदुओं के प्रति घृणा को वैध बनाने के लिए ‘जाति’ का पूर्वाग्रहपूर्ण चरित्र-चित्रण किया गया था। एक फ्रांसीसी कैथोलिक मिशनरी था जीन एंटनी डुबॉइस, जिसे एब्बे डुबॉइस भी कहा जाता है। 1792 में इसे एक मिशनरी के तौर पर भारत भेजा गया था। उसका लक्ष्य हिंदुओं को रोमन कैथोलिक मत में कन्वर्ट कराना था। उसने अपने लेखन से हिंदुओं के प्रति घृणा फैलाने को वैध ठहराने की मुहिम शुरू की। (स्रोत: कास्ट्स आफ माइंड: कॉलोनियलिज्म एंड द मेकिंग आफ मॉडर्न इंडिया, निकोलस डर्क )।
डीएमके का डीएनए यहां है। इरोड वेंकटप्पा रामास्वामी उर्फ पेरियार को द्रविड़ आंदोलन का जनक माना जाता है। उन्होंने द्रविड़ कड़गम आंदोलन की शुरुआत की थी। पेरियार के नंबर दो थे कांजीवरम नटराजन अन्नादुरई, जिन्होंने 1949 में एक अलग संगठन बनाया- द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके), जिसका अर्थ होता है प्रगतिशील द्रविड़ महासंघ। पेरियार और अन्नादुरई में एकमात्र मतभेद भारतीय संघ के भीतर रहने या अलग तमिल राज्य को लेकर था। पेरियार अलग तमिल राज्य चाहते थे। वह भारत की स्वतंत्रता के समय भारत के विरुद्ध पहला अलगाववादी आंदोलन शुरू करने वाले व्यक्ति थे।

आज की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इन्हीं को अपना आदरणीय मानती है। पेरियार ने 27 मई, 1953 को तिरुचिरापल्ली के टाउन हॉल मैदान में सार्वजनिक तौर पर भगवान गणेश की एक प्रतिमा को नष्ट करने से पहले एक लंबा भाषण दिया था। एक भक्त वीरभद्रन चेट्टियार ने रामास्वामी के खिलाफ धारा 295 और 295-ए के तहत मामला दर्ज कराया था। इस पर सुनवाई के दौरान मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सोमसुंदरम की पीठ ने कहा था कि गणेश प्रतिमा एक ‘गुड़िया’ से अधिक कुछ नहीं थी। भले ही रामास्वामी का उद्देश्य हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का अपमान करना रहा हो, लेकिन यह कृत्य आईपीसी की धारा के अंतर्गत नहीं माना गया। (स्रोत: ए. वीरभद्रन चेट्टियार बनाम ई.वी. रामास्वामी नायकर और अन्य)

13 अक्तूबर, 1954 को जब मद्रास उच्च न्यायालय की व्याख्या के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गई, तो न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 295 की उच्च न्यायालय की व्याख्या दोषपूर्ण थी। फिर भी, इसने याचिका खारिज कर दी क्योंकि ‘आरोपी की कार्रवाई मूर्खतापूर्ण थी’ और ‘अगर ऐसे मूर्खतापूर्ण व्यवहार की पुनरावृत्ति होती है तो’ कार्रवाई की जानी चाहिए। (स्रोत: एस. वीरभद्रन चेट्टियार बनाम ई.वी. रामास्वामी नायकर और अन्य, 25 अगस्त, 1958)

मात्र मूर्खतापूर्ण व्यवहार? घृणा नहीं?

माने सत्ता के भूखे, घृणा से भरे नेताओं की तीव्र घृणा और आक्रामकता को केवल मूर्खतापूर्ण या मूर्खतापूर्ण बताया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने जिसे ‘मूर्खतापूर्ण’ कहा, वह अभी भी चल रही है। उसे राजनीतिक वैधता मिली हुई है। संक्षेप में यह उल्लेख जरूरी है कि जिन्ना ने गठबंधन के लिए ईवीआर से संपर्क किया था। वे तीन राष्ट्र चाहते थे- क्रमश: हिंदुओं, मुसलमानों व द्रविड़ों के लिए हिंदुस्तान, पाकिस्तान व द्रविड़स्तान। (स्रोत: रियल फेस आफ जिन्ना व ट्रेसिंग द जिन्ना कनेक्शन)। इस प्रकार, भारत में द्रविड़ आंदोलन व इस्लामिस्टों के बीच घालमेल शुरू हुआ, जो आज तक जारी है।

वास्तव में, पेरियार-जिन्ना गठबंधन एक तरह का आई.एन.डी.आई अलायंस ही था, क्योंकि यह अलायंस भी इसी तरह विभिन्न तरीकों की घृणा से भरे हिंदू विरोधी लोगों भीड़ मात्र है। वे सनातन धर्म के विरोधी हैं, क्योंकि मोदी सनातनधर्मी हैं। यह कोई राजनीतिक लड़ाई नहीं है। यह सभ्यतागत लड़ाई है। आध्यात्मिक नेता, शिक्षक और संस्कृत विद्वान जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य ने बहुत स्पष्ट रूप से कहा है कि यह अब भाजपा बनाम विपक्ष की लड़ाई नहीं है। यह धर्म बनाम अधर्म की लड़ाई है।

आप आई.एन.डी.आई अलायंस को गौर से देखें। हर वह दल इसमें शामिल है, जो मुस्लिम वोटबैंक पर निर्भर है या उसके लिए प्रयासरत है। मुस्लिम वोट बैंक का उपयोग करना और इसे हिंदू समुदाय को खतरे में डालने के लिए इस्तेमाल करना ही इसका सिद्धांत है। तो क्यों न माना जाए कि 2024 का दौर 1946 शैली के नरसंहार के दौर जैसा है? चुनावी मुद्दे के रूप में सनातन धर्म के प्रति घृणा विपक्षी गठबंधन की एक सोची-समझी चाल है। इस गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस कर रही है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। अब देखिए कांग्रेस की करतूतें।

कांग्रेस और हिंदुत्व

अनुच्छेद-25, 28, 30 (1950), अनुच्छेद-25 द्वारा कांग्रेस ने कन्वर्जन को वैधता दिलाई और अनुच्छेद-28, 30 के जरिए अल्पसंख्यकों को हिंदुओं पर वरीयता स्थापित कराई। अनुच्छेद-28 के माध्यम से हिंदुओं से धार्मिक शिक्षा छीन ली गई और अनुच्छेद-30 में मुसलमानों और ईसाइयों को पांथिक शिक्षा की अनुमति दी। कांग्रेस फिर हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम (एचआरसीई अधिनियम) (1951) लाई, जो अन्य कानूनों के साथ मंदिरों को राज्य सरकारों के हाथों में सौंप देता है। कानून के तहत चर्च और मस्जिदें राज्य नियंत्रण से मुक्त हैं, मंदिर नहीं। एचआरसीई अधिनियम की आड़ में तमिलनाडु में चिदंबरम मंदिर के संरक्षक दीक्षितों को ऐसे सरकारी आदेशों का पालन करने के लिए मजबूर किया गया, जो उनकी धार्मिक मान्यताओं के सीधे विपरीत थे।

इसके आधार पर पुजारियों के साथ दुर्व्यवहार हुआ, हिंदू अनुष्ठानों में व्यवधान हुआ और अंतत: पुजारियों को गिरफ्तार किया गया। इसी के तहत तमिलनाडु सरकार ने श्री सुब्रमण्यम स्वामी मंदिर के स्वामित्व वाली थिरुपरनकुंड्रम पहाड़ी पर नमाज की अनुमति दी। कांग्रेस ने हिंदू कोड बिल के तहत तलाक कानून, दहेज कानून द्वारा हिंदू परिवारों को नष्ट कर दिया, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ को नहीं छुआ। उन्हें बहुविवाह की अनुमति दी। 1954 में विशेष विवाह अधिनियम लाया गया, ताकि मुस्लिम लड़के आसानी से हिंदू लड़कियों से शादी कर सकें।

इसी तरह, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम-1956, जिसमें 2005 में बदलाव किया गया। संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा जाना (1975), राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम-1992, प्लेस आफ वर्शिप एक्ट-1991, वक्फ कानून-1995 जिसके तहत वक्फ बोर्ड को असीमित शक्तियां दे दी गईं- सब कांग्रेस की देन हैं। अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम ने मुसलमानों को ‘अल्पसंख्यक’ घोषित कर दिया, जबकि पंथनिरपेक्ष देश में बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक नहीं हो सकते। लेकिन अल्पसंख्यक अधिनियम के तहत मुसलमानों को विशेष अधिकार और विशेष लाभ दिए गए। इसी प्रकार, वक्फ कानून कहता है कि यदि वक्फ बोर्ड किसी संपत्ति पर अपना दावा कर दे, तो उसे उसकी संपत्ति माना जाएगा। यदि दावा गलत है तो संपत्ति के मालिक को इसे सिद्ध करना होगा।

2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का होने का ‘दिव्य विचार’ लेकर प्रकट हुए। फिर रामसेतु शपथ पत्र (2007) में यूपीए सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक हलफनामा दाखिल कर रामसेतु को काल्पनिक करार दिया। 2009 में कांग्रेस भगवा आतंकवाद की थ्योरी के साथ पेश हुई। फिर 2011 में कांग्रेस सांप्रदायिक हिंसा विधेयक लेकर आई, जिसके निहितार्थ सब जानते हैं। मोदी सरकार आने के बाद कांग्रेस ने अनुच्छेद-35ए और अनुच्छेद-370 में संशोधनों का कड़ा विरोध किया।

भगवा आतंकवाद की थ्योरी गढ़ने वाली कांग्रेस ने 136 साल के इतिहास में कभी भी इस्लामिक आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता’, जैसा हास्यास्पद नैरेटिव प्रचारित किया। जाहिर है जातिगत जनगणना का पैंतरा हो या सनातन को सीधे ललकारने और नष्ट करने का आह्वान, बार-बार लज्जित-पराजित होने के बाद हिंदुत्व विरोधी शक्तियां अब ‘हिन्दुओं का खात्मा, हिन्दुओं को लड़ाकर’ करने की राह पर बढ़ चली हैं।
सियासत से बड़ा प्रश्न सभ्यता और अस्तित्व का है।

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