युग निर्माण के सूत्रधार पं. श्रीराम शर्मा आचार्य भारत की संत परम्परा की ऐसी दिव्य विभूति हैं, जिन्होंने सनातन हिन्दू संस्कृति के एक वैदिक मंत्र से पूरी दुनिया को जोड़ दिया। इतिहास में विरले ही ऐसे लोग होते हैं जो लाखों के जीवन की दिशाधारा बदलने का साहस रखते हैं। पंडित श्री राम शर्मा आचार्य ऐसे युगदृष्टा थे, जिनका समूचा जीवन भारत के सांस्कृतिक पुनरोत्थान को समर्पित रहा। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के प्रणेता के रूप में विख्यात इस अप्रतिम राष्ट्रसंत ने धर्म को रूढ़ियों व आडम्बरों के संजाल से मुक्त कर उसका सहज, सरल और वैज्ञानिक स्वरूप जनसामान्य के सामने रखा। गायत्री महामंत्र की साधना को जाति, धर्म, लिंग, भेद से परे सबके लिए सुलभ बनाने वाले इस असंभव कार्य को संभव करने के कारण तद्युगीन भारत के समूचे संत समाज ने उन्हें ‘आधुनिक युग के विश्वामित्र’ की उपाधि से अलंकृत किया था।
“वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहित:” के उद्घोषक इस सच्चे राष्ट्रसंत के जीवन में लोकमंगल की कामना में सतत संलग्न अनुकरणीय पारदर्शी व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। उन्होंने अपने जीवन में “साधना से सिद्धि” का सूत्र सार्थक कर दिखाया। बीती शताब्दी की घोर विषम परिस्थितियों में “इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य” और “हम बदलेंगे-युग बदलेगा” जैसे उद्घोष करने का साहस आचार्यश्री जैसा कोई सिद्ध तपस्वी ही कर सकता था। आचार्यश्री ने अपने 80 वर्ष के जीवनकाल में खुद के बलबूते सुगढ़ मानवों को गढ़ने की टकसाल के रूप में जिस गायत्री तीर्थ शांतिकुंज की बुनियाद रखी थी; आज वह एक विशाल वट वृक्ष में करोड़ों की सदस्य संख्या वाला अखिल विश्व गायत्री परिवार बन चुका है।
धर्मतंत्र से लोक शिक्षण, ग्राम-तीर्थों की स्थापना, भेदभाव रहित धार्मिक आयोजन, लोकसेवियों को प्रशिक्षण, बाल संस्कारशालाओं द्वारा बच्चो में सुसंस्कारिता का बीजारोपण, लोक संस्कृति का पुनर्जीवन, कुटीर उद्योगों का रोजगारपरक प्रशिक्षण, पर्यावरण संरक्षण के लिए यज्ञ विज्ञान की विज्ञान सम्मत स्थापना जैसे अनेक जनकल्याणकारी योजनाओं के द्वारा अखिल विश्व गायत्री परिवार आज जिस तरह सेवापथ पर निरंतर गतिमान है, उसके मूल में मिशन के संस्थापक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य की दिव्य प्रेरणाएं ही हैं। वे सही मायने में संस्कृति पुरुष थे।
सादगी की प्रतिमूर्ति व स्नेह से परिपूर्ण अन्त:करण वाले आचार्यश्री की हर श्वांस गायत्रीमय थी। समिधा की तरह उन्होंने अपने पूरे जीवन को संस्कृति यज्ञ में होम कर डाला था। उनके जीवन के प्रारम्भिक 30 वर्ष जन्मस्थली आंवलखेड़ा व जनपद आगरा में एक नैष्ठिक गायत्री साधक, समाज सुधारक व आजादी के सेनानी के रूप में बीते और बाद के तीस वर्ष मथुरा में सच्चे कर्मयोगी व विलक्षण संगठनकर्ता के रूप में। इस अवधि में उन्होंने “युग निर्माण सत्संकल्प” के रूप में गायत्री मिशन का घोषणा पत्र जारी कर सतयुगी समाज की आधारशिला रखी। अपनी लेखनी के द्वारा उन्होंने ऐसे युग साहित्य का सृजन किया जिसमें आज के समय की प्रत्येक समस्या का समाधान निहित है। उन्होंने वेद, उपनिषद, स्मृति पुराण आदि समस्त आर्ष साहित्य के भाष्य कर जन सुलभ कराया। अनुयायी उन्हें चलता फिरता “एनसाइक्लोपीडिया” कहते थे। समय की मांग के अनुरूप जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अभिनव प्रेरणा व संवेदना जगाती “युग संजीवनी” के रूप में 3200 पुस्तकों का सृजन उनकी अद्वितीय लेखकीय क्षमता का द्योतक है। उन्होंने देशभर में सांस्कृतिक जनजागरण के लिए एक विशाल पुरोहित वर्ग खड़ा किया। “इक्कीसवीं सदी-नारी सदी” की घोषणा कर आचार्यवर ने उस युग के बुद्धिजीवी वर्ग में खलबली मचा दी थी क्योंकि तब किसी ने इस बात की कल्पना भी नहीं की थी। आचार्यश्री नारी शक्ति के सच्चे संरक्षक बनकर आगे आए। उन्होंने स्त्री सशक्तिकरण के लिए काफी संघर्ष किया। दहेजमुक्त विवाह से लेकर लड़का-लड़की का भेद मिटाने को आंदोलन चलाकर जागरूकता फैलायी।
वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रणेता
आचार्यश्री को वैज्ञानिक अध्यात्म का प्रणेता माना जाता है। अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय के लिए वैज्ञानिक शोध की अभिनव प्रयोगशाला “ब्रह्मवर्चस” द्वारा उन्होंने धर्म के सनातन सूत्रों की वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अभिनव व्याख्या कर देश के बुद्धिजीवी वर्ग का ध्यान आकृष्ट किया। इसी क्रम में डा. प्रणव पांड्या के नेतृत्व में आचार्यश्री के सपनों के शिक्षा केंद्र‘ देवसंस्कृति विश्वविद्यालय’ ने बीते दो दशकों में नैतिक मूल्यों पर आधारित रोजगारपरक शिक्षा देने की दिशा में राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक कीर्तिमान स्थापित किये हैं। शिक्षा व सुसंस्कारिता के समन्वय की परिकल्पना को साकार करते हुए यह अनूठा शिक्षा केन्द्र, आधुनिक शिक्षा पाठ्यक्रम के साथ सुसंस्कारिता संवर्धन की दिशा में जिस रूप में गतिमान है, वह उज्जवल भविष्य की सुखद उम्मीद जगाता है।
सतत प्रज्ज्वलित है अखंड ज्योति
हंसवाहिनी माता के प्रादुर्भाव का शुभ दिन मां गायत्री के इस सिद्ध साधक के जीवन का श्रृंगार था। 15 वर्ष की किशोरवय में इसी शुभ दिन उनका अपने जन्म जन्मांतरों की हिमालयवासी गुरुसत्ता से प्रथम साक्षात्कार हुआ था। वर्ष 1926 में स्थापित अखंड दीप जो आज भी शांतिकुंज में सतत प्रज्ज्वलित है, की स्थापना से लेकर अखंड ज्योति पत्रिका और गायत्री तपोभूमि तथा युगनिर्माण योजना, मथुरा से लेकर गायत्री तीर्थ शांतिकुंज की स्थापना तक प्रत्येक शुभ कार्य वसंत पर्व को ही शुरू हुआ था।
अपने प्रखर साधनात्मक तप से समाज को नयी दिशाधारा देने वाले मां गायत्री के इस वरद पुत्र का व्यक्तित्व इतना चुम्बकीय था, उनके संपर्क से स्वतः ही व्यक्ति का कायांतरण हो जाता था। अपने सहज स्वभाव की स्नेह संजीवनी के बलबूते लाखों व्यक्तियों को सद्ज्ञान की मशाल थमाने वाले आचार्यश्री एक ऐसी अवतारी चेतना थे जिनके द्वारा स्थापित अखिल भारतीय गायत्री परिवार समाज में सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में जुटा हुआ है।
Leave a Comment