सनातन संस्कृति में पूर्णिमा की तिथि को पूर्णत्व प्रदान करने वाली तिथि माना गया है। पुनर्जन्म, सृजन, अभिव्यक्ति और आध्यात्मिक उत्कर्ष से जुड़ी इस तिथि की महत्ता बताने वाले कई प्रसंग धर्म शास्त्रों में वर्णित हैं। आषाढ़ पूर्णिमा, ज्येष्ठ पूर्णिमा, वैशाख पूर्णिमा, फाल्गुन पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा…. एक लम्बी सूची है पूर्णिमा पर्वों की। इन्हीं पर्वों में विशिष्ट है- श्रावणी पूर्णिमा। वैदिक ऋषियों ने इस पर्व को ज्ञान पर्व की संज्ञा दी है।
प्राचीन काल में इस दिन गुरुकुलों में वैदिक आचार्यों के मार्गदर्शन में वेदाध्ययन से पूर्व नवबटुकों के ‘श्रावणी उपाकर्म’ के क्रम में दश स्नान, हेमाद्रि संकल्प, प्रायश्चित विधान व यज्ञोपवीत धारण के कर्मकांड कराये जाते थे। इसके पीछे वैदिक मनीषियों का दर्शन था कि अंतस में ब्राह्मी चेतना के अवतरण के लिए साधक में “द्विजत्व” का जागरण जरूरी होता है। द्विज यानी पापकर्मों का प्रायश्चित कर सद्ज्ञान से आलोकित मानवी काया का दूसरा जन्म। हमारे महान ऋषियों ने हमारे समक्ष यह गूढ़ तथ्य उद्घाटित किया था कि हर व्यक्ति अपने लिए एक नई सृष्टि करता है। यदि यह सृष्टि ईश्वरीय योजना के अनुकूल हुई, तब तो कल्याणकारी परिणाम निकलते हैं, अन्यथा अनर्थ का सामना करना पड़ता है। हमारे आंतरिक जगत, हमारे, कर्म, विचार यदि कहीं भी विकार आ गया हो, तो उसे हटाने व पुन: नऔयी शुरुआत करने के लिए उन्होंने इस पर्व पर श्रावणी उपाकर्म व हेमाद्रि संकल्प का विधान बनाया था। प्राचीन काल में इसी दिन से ऋषि आश्रमों वेद पारायण आरंभ होता था। वेद अर्थात ईश्वरीय ज्ञान और ऋषि अर्थात ऐसे आप्तकाम महामानव जिनकी अपार करुणा के कारण वह ज्ञान जन सामान्य को सुलभ हो सका।
प्राचीन काल में इस द्विजत्व धारण के प्रतीक रूप में इस पर्व पर यज्ञोपवीत धारण की परम्परा बनायी गयी थी। यज्ञोपवीत (जनेऊ) में नौ तार होते हैं। यह तीन लड़ें बताती हैं कि मानव जीवन तीन क्षेत्रों में बंटा है -आत्मिक, बौद्धिक और सांसारिक। इनमें से हर एक में जो तीन-तीन तार होते हैं उनका तात्पर्य उनके तीन-तीन गुणों से है। आत्मिक क्षेत्र के तीन प्रमुख गुण हैं- विवेक, पवित्रता व शान्ति। बौद्धिक क्षेत्र के साहस, स्थिरता और कर्तव्यनिष्ठा तथा सांसारिक क्षेत्र के लिए जरूरी है-स्वास्थ्य, धन व सहयोग। जरा विचार कीजिए कि जिस जनेऊ को आज की युवा पीढ़ी व तथाकथित सभ्य व उन्नत समाज दकियानूसी सोच का प्रतीक मानता है उसके पीछे कितना गहन तत्वदर्शन निहित है हमारे पूर्वजों का। यह परम्परा आज भी काशी, उज्जैन, नासिक व हरिद्वार आदि तीर्थ नगरियों के पुराने गुरुकुलों में कायम है। पुराणों के अनुसार गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर अमरनाथ की पवित्र छड़ी यात्रा का शुभारंभ होता है और यह यात्रा श्रावण पूर्णिमा को संपन्न होती है। कांवडियों द्वारा श्रावण पूर्णिमा के दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाने के साथ उनकी कांवड़ यात्रा संपन्न होती है।
“वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहित:” जैसे दिव्य सूत्र के उदघोषक हमारे महान वैदिक मनीषियों ने इस पर्व पर रक्षा सूत्र बंधन के द्वारा इंद्रियों का संयम करने एवं सदाचरण करने की प्रतिज्ञा लेने की परम्परा डाली थी। ऋषि- मुनि, आचार्य व पुरोहित वैदिक मंत्रों से अभिमंत्रित रक्षा सूत्र अपने शिष्यों-यजमानों को बांधते थे और शिष्य व अनुयायी अपने गुरुओं को चरणस्पर्श कर उनकी शिक्षाओं पर चलने का वचन देते थे।
कालान्तर में यह पर्व भाई-बहन के त्योहार के रूप में लोकप्रिय हो गया। कहा जाता है सर्वप्रथम देवी लक्ष्मी ने दानवराज बलि को रक्षासूत्र बांधा था। इसके अलावा देव-दानव युद्ध में देवों को विजय दिलाने के लिए इंद्राणी द्वारा देवराज इंद्र को तथा द्रौपदी का कृष्ण को रक्षासूत्र बाँधने के पौराणिक संदर्भ भी इस पर्व से जुड़ गये और समय के साथ बहनों द्वारा भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र बंधन की यह परम्परा देखते देखते राष्ट्रव्यापी हो गयी।
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में पेशवा नाना साहब और और रानी लक्ष्मीबाई के मध्य राखी का ही बंधन था। रानी लक्ष्मीबाई ने पेशवा को रक्षासूत्र भिजवा कर यह वचन लिया था कि वे देश को अंग्रेजों से स्वतंत्र करायेंगे। जानना दिलचस्प होगा कि बीती सदी में कुछ पर्यावरण प्रेमी अग्रदूतों द्वारा पेड़ों की रक्षा के लिए उनको रक्षासूत्र बांधने की भी परम्परा शुरू की गयी थी जो आज भी कायम है। वृक्ष-वनस्पतियों को रक्षा सूत्र बांधने के पीछे पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं की रक्षा का दिव्य भाव निहित है; ताकि हम सब प्रकृति का संरक्षण कर अपने कल्याण व सुख तथा शांति-सद्भभाव की राह पर चल सकें। सार रूप में कहें तो वैदिक युग से प्रचलित यह पर्व हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का पुन:स्मरण कराता है। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ने इस पर्व पर बंगभंग के विरोध में जनजागरण किया था और इस पर्व को एकता और भाईचारे का प्रतीक बनाया था। कहने की आवश्यकता नहीं है कि देश की सीमाओं पर तैनात हमारे जांबाज सैनिकों की कलाइयों पर सजी राखियां उनके भीतर नवऊर्जा भर देती हैं। आइए, इस पर्व के मूल तत्व को समझें और नारी रक्षा, पर्यावरण रक्षा और राष्ट्ररक्षा के पथ पर अग्रसर हों।
श्रावण पूर्णिमा के विविध रंग
हम भारतवासी एक ही पर्व त्योहार को अलग-अगल तरीके से मनाते हैं। श्रावण पूर्णिमा का पर्व भी इस विविधता से अछूता नहीं है। इसे भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक नामों से जाना जाता है और उसी अनुसार पर्व को विविध रूपों में मनाया जाता है। उत्तर भारत में इसे ‘रक्षाबंधन’ पर्व के रूप में, दक्षिण भारत में ‘अवनी अवित्तम’ पर्व, महाराष्ट्र में ‘नारयली पूर्णिमा’, मध्य भारत में ‘कजरी पूर्णिमा’ तथा गुजरात में ‘पवित्रोपना’ के रूप में मनाया जाता है। दक्षिण भारत में श्रावण पूर्णिमा के दिन नया जनेऊ धारण करने की परंपरा है। माना जाता है कि इससे भगवान और पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है और बुरे कर्मों से मुक्ति मिलती है।
उड़ीसा में रक्षाबंधन एकदम अलग तरीके से मनाया जाता है। यहां पर यह त्योहार भाई-बहनों का नहीं बल्कि गाय-बैलों को सजाकर मनाया जाता है। यहां गाय और बैलों की इस दिन पूजा की जाती है। इस दिन यहां पर प्रसिद्ध मिठाई पीठा तैयार की जाती है। चावल के आटे में नारियल भरकर यह मिठाई तैयार की जाती है। महाराष्ट्र में श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन के साथ-साथ ‘नारयली पूर्णिमा’ मनायी जाती है। यहां के मछुआरों के लिए यह त्योहार खास होता है। परिवार को संकट से दूर रखने की प्रार्थना के साथ ये लोग समुद्र में नारियल चढ़ाते हैं और प्रसाद के रूप में भी नारियल बांटते हैं।
गुजरात में इस त्योहार का स्वरूप ‘पवित्रोपना’ का होता है। श्रावण मास की पूर्णिमा पर यहां शिवजी की धूमधाम से पूजा की जाती है। यहां सावन के आखिरी दिन पर शिवजी का अभिषेक करने की खास मान्यता है। इसी तरह बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में कुछ जगहों पर यह पर्व ‘कजरी पूर्णिमा’ के रूप में मनाया जाता है। श्रावण अमावस्या के दिन से इस उत्सव की तैयारी आरंभ हो जाती है। ‘कजरी नवमी’ के दिन महिलाएँ पेड़ के पत्तों के पात्रों में मिट्टी भरकर लाती हैं, जिसमें जौ बोया जाता है। कजरी पूर्णिमा के दिन महिलाएं देवी गीत गाते हुए इन जौ पात्रों को सिर पर रखकर पास के किसी तालाब या नदी में विसर्जित करने के लिए ले जाती हैं।
उत्तराखंड के लोगों के बीच यह त्योहार जनेऊ पूर्णिमा के नाम से भी प्रचलित है। राजस्था्न में रक्षाबंधन लुंबा राखी के नाम से मनाया जाता है। यहां बहनें भाई के साथ-साथ भाभी की कलाई पर भी राखी बांधती हैं। पश्चिम बंगाल में यह त्योहार सावन मास शुक्ल एकादशी से शुरू होता है और रक्षाबंधन इसका आखिरी दिन होता है। इसे यहां झूलन पूर्णिमा के नाम से भी मनाया जाता है क्योंकि यहां पर राधा और कृष्ण को इस पर्व पर झूला झुलाने की परम्परा है।
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