‘भीमा’ और ‘नीरा’ नदी तक सिमटा-मराठा शासन युद्ध के महीने भर बाद ही ‘कृष्णा’ नदी तक फैलकर ‘मराठा साम्राज्य’ के रूप में स्थापित हो गया। 20 किलों पर कब्जे और हजारों की सेना के साथ दुगुने हुए इस साम्राज्य की पीढ़ियां आज भी उसी स्वाभिमान से जीती हैं। इसलिए ये लोग खुद को शिवाजी महाराज के ‘मावले’ यानी वंशज मानते हैं।
किसी-किसी इलाके का इतिहास ऐसा गजब का होता है कि लाख विपदाएं आने पर भी वह उसे घुटने टेकने की इजाजत नहीं देता। असम के लाचित बोरफूकन, राजस्थान के महाराणा प्रताप और महाराष्ट्र के छत्रपति शिवाजी कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपने राज्य की सीमाओं की हिफाजत में अपनी जान ही जोखिम में नहीं डाली बल्कि अपनी युद्धशैली से आने वाली पीढ़ियों का भी उनकी मिट्टी से रिश्ता अटूट रखा। शिवाजी की सेना को युद्ध के दौरान भी फसलों और जलाशयों को ध्वस्त न करने और प्रजा-किसान को परेशान न करने की हिदायत थी।

महाराष्ट्र के प्रतापगढ़ के जिस किले में उन्होंने अफजल खान का वध किया था, उस सतारा जिले के सैकड़ों गांव खुद को शिवाजी जैसा प्रतापी मानते हैं। तूफानी बारिश से इन गांवों में जबरदस्त बर्बादी हुई थी, लेकिन साल भर में ही बर्बादी से उबरने वाले ये 105 गांव आज अपने यहां खेतों को फिर लहलहाते देख रहे हैं। इसके पीछे है सामाजिक संस्थाओं का सहयोग। युवाओं के पलायन, सीमित साधन-आवागमन, कमजोर मोबाइल नेटवर्क और नेताओं की अनदेखी आदि को झेलकर भी जैविक खेती और मेलजोल वाले ये गांव आज एक मिसाल बन गए हैं।
दिल्ली की आदिलशाही सल्तनत के सेनापति अफजल खान को शिवाजी ने महाराष्ट्र के प्रतापगढ़ के जिस किले में बघनखे से चीर दिया था, वह किला सतारा जिले में है। यहीं पर प्रख्यात खूबसूरत पर्यटक स्थल है पहाड़ी पर बसा महाबलेश्वर। यहां के 105 गांव के वासी10 नवम्बर, 1659 को हुए उस ऐतिहासिक युद्ध में शिवाजी की सेना के साथ डटकर लड़े थे। इस युद्ध में जीत के बाद पूरे दक्कन से ‘स्वराज’ का नारा बुलंद हुआ था। साथ ही तब तक ‘भीमा’ और ‘नीरा’ नदी तक सिमटा-मराठा शासन युद्ध के महीने भर बाद ही ‘कृष्णा’ नदी तक फैलकर ‘मराठा साम्राज्य’ के रूप में स्थापित हो गया। 20 किलों पर कब्जे और हजारों की सेना के साथ दुगुने हुए इस साम्राज्य की पीढ़ियां आज भी उसी स्वाभिमान से जीती हैं। इसलिए ये लोग खुद को शिवाजी महाराज के ‘मावले’ यानी वंशज मानते हैं।

105 गांवों का बंधुत्व
हर काम मिल-जुलकर करने और सभी समस्याएं आपसी सूझ-बूझ से सुलझाने के लिए इन गांवों के युवाओं और बुजुर्गों ने मिलकर 10 साल पहले एक समिति बनाई थी-‘105 गांव समाज’। हर महीने अपने गांव की समस्याओं पर बात करने और समाधान के लिए पूरा गांव मिलता-बैठता है। बंधुत्व भाव से काम करने के कारण अलग पहचान बनने लगी तो नई पीढ़ी के लिए ‘डिजिटल पढ़ाई’ का सपना भी पलने लगा। गांव का मन बना कि शहरों की ओर पलायन करने वाले गांव के युवाओं सहित करीब दस हजार लोग धीरे-धीरे ही सही, मगर शुद्ध हवा-पानी-खानपान के साथ संतोष का जीवन जीने और आत्मनिर्भर होने गांव लौट आएं।
वजह यह भी कि खेती करने के लिए इन गांवों में भी देश के बाकी हिस्सों की ही तरह बस बुजुर्ग ही बचे हैं। जंगली जानवरों के हमले और दुर्गम इलाकों में खेती करने की चुनौती लेने वाले इन गांवों में आज भी फोन पर बात करने के लिए ऊंची पहाड़ियों पर चढ़ना पड़ता है, तब नेटवर्क पकड़ में आता है। इन सबके बीच यह सोच उपजी कि खेती मुनाफे का सौदा बने, नई पद्धति से खेती हो और आने वाली पीढ़ी तकनीक में पिछड़ी ना रहे, डिजिटल भारत की दस्तक यहां भी हो।
लेकिन सब कुछ मन-मुताबिक हो, इससे पहले वक़्त पूरी परीक्षा लेता है। इस परीक्षा के कठिन सवालों और सुलझी कौम से हाल ही में जब मिलना हुआ तो लगा, सरकारों को बड़ी बसावटों को बजाय, छोटी-छोटी बस्तियों-गांव-खेड़े के व्यवस्थापन पर ज्यादा जोर देना चाहिए। जहां राष्ट्र के तौर पर देखे जा रहे तमाम सपनों की जमीन है। चाहे विषमताओं की खाई पाटने की बात हो, गांवों को आत्मनिर्भर बनाने, उत्पादन बढ़ाने, जंगलों को बचाकर रख कार्बन उत्सर्जन कम करने और कौशल या सेवा क्षेत्र में अवसर बढ़ाने की बात हो, यह सब होगा तो ग्राम स्तर पर होने वाले काम की बदौलत ही।

35 दिन का ‘अंधेरा’
सिर्फ खेती से ही गुजर करने वाले सह्याद्रि पहाड़ियों में बसे इन गांवों ने पिछले सालों में जलवायु परिवर्तन के कई झटके सहे थे। बेमौसम बारिश और बेहिसाब सूखे से पैदा आजीविका के संकट ने गुजरे वक्त में, यहां से ढाई सौ किलोमीटर दूर मुंबई और डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पुणे जैसे बड़े शहरों में बड़ी आबादी को पलायन के लिए मजबूर भी किया। फिर भी हिम्मत वाली 30 हजार से ज्यादा की आबादी, इन 105 गांवों में रहकर ही चावल, आम, स्ट्रॉबेरी आदि की खेती करती रही। अपनी मिट्टी, जंगल और जैव-संपदा बचाये रखने वाले इन गांववासियों की इस कामयाबी का बड़ा इम्तिहान अभी बाकी था। 22 जून 2021 की रात इस गांव के लिए बर्बादी लेकर आई। करीब 380 मिलीमीटर की बेहिसाब बारिश से 105 गांवों के सारे पहाड़ ढह गए। खेती चौपट हो गई। पूरे 35 दिन दुनिया से कटे रहे इन गांवों ने मुश्किल वक़्त के लिए बचाकर रखे राशन से जैसे-तैसे गुजारा किया। सबसे बड़ी त्रासदी थी, तहत-नहस हुई खेती। पहाड़ के खेत, मिट्टी बहा ले गई, और पहाड़ सी फिक्र छोड़ गई।
डूबते को ‘डीजल’
जब उम्मीद टूटती है तो गुहार उसी से लगाई जाती है जिसमें डूबती नाव को पार ले जाने का हौसला हो। गांव से पलायन कर दूर बसे अपने ही लोगों ने सबसे पहले मदद का हाथ बढ़ाया। और उसी हाथ में एक हाथ वह भी था जिससे उम्मीदें ज्यादा थीं। थोड़ा संभलने के बाद, 105 गांवों ने सबसे ज्यादा नुकसान झेल रहे झाझोळ गांव में बैठक की। वहीं इस गांव-समाज के उपाध्यक्ष और ‘कोयना एजुकेशन सोसाइटी’ के सचिव डी.के. यादव ने सुझाया कि पूरा गांव सामाजिक संस्थाओं से यह आश्वासन लिए बगैर नहीं लौटेगा कि इन गांवों को फिर से आबाद करने में उन्हें मदद मिलेगी।

आत्महत्या करने वाले किसानों के लिए 2015 से सक्रिय और जल-प्रबंधन के काम से खास पहचान वाली संस्था ‘नाम’ के पुणे स्थित दफ़्तर से एक साथी अभिलाष को लेकर झाझोळ गांव के सरपंच किशोर जाधव ने बारिश से बर्बाद पूरे इलाके का दौरा किया। संस्था साथ देने आई, तो गांवों ने यह भी तय किया कि सरकार ने फसलों का जो भी मुआवजा दिया, वह पूरा संस्था की दी मशीनों में डीजल भरवाने के लिए खर्च होगा। रात-रात भर, 14-16 घंटे मशीनें चलीं, और हर एक गांव ने 5-6 लाख रु. तक की राशि डीजल के लिए खर्च की। आस की बाती जलाये ये गांव रातों में फिर जागे और दिन में श्रम के उजास से एक दूसरे का ढाढस बंधाते रहे।
जी उठे जैविक ‘खेत’
पसीने और हौसले की कमाई अब हाथ आने लगी। डेढ़ साल में ही कुल 85 गांव के 900 किसानों की, 800 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन खेती के लिए फिर तैयार हो गई। साल 2022 में हुई फसल से हर किसान-परिवार के गुजारे लायक पैदावार हो गई। सरपंच किशोर कहते हैं कि इस बार की फसल फिर से मुनाफा देने लगेगी। किसानों ने हाल ही 5 एकड़ में फैले ‘कोयना एजुकेशन सोसाइटी’ के आवासीय स्कूल में पढ़ने वाले 1500 बच्चों के लिए ‘डिजिटल क्लास’ तैयार करवाने के लिए भी संस्थाओं की मदद ली। आने वाले समय में अब गहरी डूबी जमीन को संभालने के साथ नये तालाब और नये बंधारे बांधने की तैयारी हो रही है।
आगे का लक्ष्य और भी बड़ा है, शहरों को गांव के आकर्षण से बांधकर ले आना। इसके लिए कई जागरूक किसान, जैविक खेती के प्रयोग करने और बाजार में उसके अच्छे दाम हासिल करने में भी सफल हुए हैं। सरकार के डिजिटल और जैविक खेती, दोनों मिशनों के बारे में सचेत युवा सरपंच एक हेक्टेयर में हजार किलो हल्दी उगाकर पूरे इलाके को कुदरती खेती के प्रण से भी जोड़ रहे हैं। दशक भर की कोशिशों से उनके गांव के पांच युवाओं के शहर छोड़कर गांव लौट आने को अपनी उपलब्धि मानने वाले किशोर ‘जल प्रबंधन’ को गांव की अर्थव्यवस्था की धुरी मानते हैं। गांव की महिलाएं चाहती हैं, यहां ‘बचत समूह’ तैयार हों।

ये मेहनतकश लोग सरकारी काम या सुविधाओं के लिए 10-12 किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़कर ही महाबलेश्वर तक पहुंच पाते हैं। मुआवजों, सरकारी नीतियों का लाभ लेने के लिए कागजों में उलझने का हुनर और समय यहां किसी के पास नहीं है।
सवाल वाला ‘बचपन’
स्कूल के डिजिटल कक्षों और विज्ञान की आधुनिक प्रयोगशालाओं के उद्घाटन और मायूसी से उबरे, उल्लास भरे खेतों के किसान-परिवारों से खुले संवाद के मौके पर ‘नाम फाउंडेशन’ के संस्थापक पद्मश्री नाना पाटेकर से एक बच्चे अथर्व उत्तेकर ने सवाल किया-अगर नेटवर्क ही नहीं होगा तो स्कूल में कंप्यूटर का क्या करेंगे? आधुनिक खेती और कारोबार, सबके लिए ‘टावर कनेक्टिविटी’ तो चाहिए ही, जो इन गांवों में नहीं है। साथ ही उदाहरण देकर बताया कि अपने ही देश में ऐसा यंत्र तैयार किया गया है जो बिना सैटेलाइट भी ‘डोंगरे’ यानी ऊंचे पहाड़ों पर बसे गांवों तक नेटवर्क पहुंचा देता है।
अथर्व की इस समझदारी वाली बात ने समारोह में मौजूद सतारा के सांसद श्रीनिवास पाटिल को झकझोरा। उन्होंने उसी वक़्त घोषणा की कि दूसरे इलाकों के लिए आवंटित टावर इन 105 गांवों को लगाये जाएंगे। मगर वादों को जमीन पर लाने के लिए, ऐसी ही बेबाक पीढ़ी और साथ खड़े होने वाले बड़े नाम भी चाहिए, जो सामुदायिक खेती के साथ समरस समाज की बात खुलकर कर रहे हैं। ऐसा ही कुलबुलाहट वाला समाज भारत का गुणसूत्र रहा है, जिसकी बानगी यहां देखने को मिली।
आधारभूत जरूरतें तो और भी हैं इस इलाके की, जिन्हें पूरा करने के लिए शासन तंत्र को कागजों के कारागारों से निकालना होगा। ये मेहनतकश लोग सरकारी काम या सुविधाओं के लिये 10-12 किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़कर ही महाबलेश्वर तक पहुंच पाते हैं। मुआवजों और सरकारी नीतियों का लाभ लेने के लिये कागजों में उलझने का हुनर और समय यहां किसी के पास नहीं हैं। इन्हें नेतागण, वोट बैंक की तरह नहीं, अपने इलाके के गौरव की तरह देखेंगे तो शिवाजी का यह प्रतापी वंश और फलेगा-फूलेगा।
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