आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के लिए लाए गए अध्यादेश के विरोध में सारे दलों की सहमति की शर्त रखी। तुरंत उमर अब्दुल्ला ने सवाल किया कि जब अनुच्छेद-370 हटाने की बात थी, तब यही दल शांत थे। उमर अब्दुल्ला की आधी-अधूरी बात को असदुद्दीन ओवैसी ने यह कह कर साफ कर दिया कि जो दल अनुच्छेद-370 हटाने पर चुप रहे, वे सेकुलर कैसे हो सकते हैं?
भारत की राजनीति में भाजपा विरोध को मुद्दा बनाया जाना कोई नई बात नहीं है। अनेक राजनीतिक प्रयोग भाजपा विरोध के नाम पर होते रहे हैं, जिसे सुविधा के दृष्टिकोण से सेकुलर दलों की एकजुटता कहा जाता रहा है। ताजा प्रयोग में अभी भले ही ऐसा लगता हो कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच में कुछ तनातनी है, लेकिन बात इससे गहरी है।
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के लिए लाए गए अध्यादेश के विरोध में सारे दलों की सहमति की शर्त रखी। तुरंत उमर अब्दुल्ला ने सवाल किया कि जब अनुच्छेद-370 हटाने की बात थी, तब यही दल शांत थे। उमर अब्दुल्ला की आधी-अधूरी बात को असदुद्दीन ओवैसी ने यह कह कर साफ कर दिया कि जो दल अनुच्छेद-370 हटाने पर चुप रहे, वे सेकुलर कैसे हो सकते हैं? इसका अर्थ हुआ अनुच्छेद-370 की पक्षधरता सेकुलर होने की कसौटी है।
यह वह असदुद्दीन ओवैसी मानते हैं, जो स्वयं मुस्लिम लीग की एक शाखा हैं। और यह वह मुस्लिम लीग है, जिसे हाल ही में कांग्रेस के पूर्व सांसद राहुल गांधी ने सेकुलर होने का प्रमाण-पत्र दिया था। माने जो चीज राहुल गांधी की दृष्टि में सेकुलर है, खुद उसकी दृष्टि में राहुल गांधी सेकुलर नहीं हैं। इस सेकुलरिज्म की बारीक मीमांसा जरूरी है।अनुच्छेद-370 का व्यावहारिक अर्थ ऐसे समझा जा सकता है कि अगर कश्मीर की कोई महिला किसी पाकिस्तानी से विवाह कर लेती, तो उसकी कश्मीर की नागरिकता बनी रहती, लेकिन अगर वह शेष भारत के किसी पुरुष से विवाह कर लेती, तो उसकी कश्मीर की नागरिकता समाप्त हो जाती। माने अनुच्छेद-370 पाकिस्तान के विचार का विस्तार करने वाली डोर थी।
इस राजनीति ने पाकिस्तान के विचार का विस्तार सेकुलरिज्म के नाते पूरे तंत्र तक करने का प्रयास किया है। और बारीकी से देखें तो सेकुलरिज्म से यही आशय सामने आता है कि हिंदू विरोध जहां तक हो सके, वहां तक किया जाए और इस्लाम का तुष्टिकरण जहां तक हो सके, वहां तक किया जाए।
किस इस्लाम का तुष्टिकरण? सिर्फ वोट बैंक का तुष्टिकरण नहीं, सिर्फ अपराधियों का तुष्टिकरण नहीं, सिर्फ पैन इस्लाम का तुष्टिकरण नहीं, सिर्फ आतंकवाद का तुष्टिकरण नहीं, बल्कि इस धारणा का तुष्टिकरण कि जिस व्यक्ति, स्थान, इमारत पर एक बार इस्लाम को मानने वालों का कब्जा हो जाए, सेकुलरिज्म के नाम पर उसे हमेशा के लिए इस्लामी बनाए रखा जाए।
देश की जनता को, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, इन प्रयासों से सावधान रहना बहुत आवश्यक है। अगर भविष्य में पता चलता है कि सारी कवायद किसी बाहरी ताकत के इशारे पर हो रही है, तो भी इसमें आश्चर्यजनक कुछ नहीं होगा। लेकिन तब शायद उसमें सुधार करने का अवसर जनता के हाथों से निकल चुका होगा, ठीक वैसे ही जैसे कर्नाटक में आम लोग आज ठगा गया महसूस कर रहे हैं।
इस्लाम के भारत में विस्तारवाद की यह धारणा सेकुलरिज्म की उसी परिभाषा की पुष्टि करती है, जो अरुण शौरी ने कभी दी थी कि भारत में सेकुलर होने का अर्थ है कि अगर मुसलमान अपने मजहब पर 200 प्रतिशत कायम रहते हैं, तो वह सेकुलर हैं और अगर हिंदू अपने धर्म को शत प्रतिशत नकार देते हैं, तो वह सेकुलर हैं।
इसकी प्रतिच्छाया कई ढंग से देखने को मिलती रही है। स्थिति यह है जब रा.स्व.संघ के सरसंघचालक कहते हैं कि भारत में रहने वाले चाहे हिंदू हों या मुसलमान सबका डीएनए एक है, तो तमाम सेकुलर तत्वों को यह भी बेहद आपत्तिजनक लगने लगता है। जैसे कि यह धारणा भी सेकुलरिज्म के लिए जरूरी हो कि भारत में रहने वाले मुसलमान तो दूसरे देशों से आए हैं और उनका बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ किसी तरह का कोई तालमेल हो ही नहीं सकता।
कथित विपक्ष की कथित एकता भले ही फौरी तौर पर अपने-अपने स्थानीय व छुटभैये नेताओं का कद और महत्व बनाए रखने, उनके परिवारों के राजनीतिक-आर्थिक हितों की रक्षा करने, उनको भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही से बचाने जैसे तात्कालिक (और वास्तव में आपराधिक) मुद्दों तक सीमित हो। लेकिन इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि इस विपक्षी एकता का मूल उसी हिंदू विरोध में है, जिसे सेकुलरिज्म कहा जाता है।
जिसके नाम पर कर्नाटक में सरकार में आते ही कांग्रेस कन्वर्जन विरोधी अधिनियम समाप्त करने और गौ हत्या को मंजूरी देने की बात कहती है। इससे सेकुलरिज्म के मानदंड पर कांग्रेस का कद बढ़ जाता है। जाहिर तौर पर ऐसे में बड़ी लकीर खींचने के लिए बाकी दलों को कुछ करना पड़ेगा और फिर हिंदू विरोध की प्रतियोगिता शुरू हो जाएगी। यह बहुआयामी प्रतियोगिता किसी भी स्तर पर जा सकती है।
देश की जनता को, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, इन प्रयासों से सावधान रहना बहुत आवश्यक है। अगर भविष्य में पता चलता है कि सारी कवायद किसी बाहरी ताकत के इशारे पर हो रही है, तो भी इसमें आश्चर्यजनक कुछ नहीं होगा। लेकिन तब शायद उसमें सुधार करने का अवसर जनता के हाथों से निकल चुका होगा, ठीक वैसे ही जैसे कर्नाटक में आम लोग आज ठगा गया महसूस कर रहे हैं।
@hiteshshankar
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