पंकज चौहान
श्रावण मास में कांवड़ यात्रा का बहुत महत्व है, प्रति वर्ष करोड़ों श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए इस पवित्र पावन यात्रा के लिए निकलते हैं और अपने अभीष्ट संकल्पित शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं। श्रावण या सावन का महीना शिव भक्तों के लिए बेहद खास होता है।
उत्तराखंड की कुंभनगरी हरिद्वार में गंगा जल लेने आने वाले शिव भक्त अपने-अपने शहरों, गांव, कस्बों में कांवड़ लाने की तैयारियों में जुट गए हैं। एक अनुमान के अनुसार इस साल चार करोड़ शिव भक्त कांवड़िए पावन गंगा जल लेने हरिद्वार की तरफ कूच करने वाले हैं। जिनके स्वागत की तैयारियों में राज्य प्रशासन जुट गया है।
श्रावण मास में कांवड़ यात्रा का बहुत महत्व है, प्रति वर्ष करोड़ों श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए इस पवित्र पावन यात्रा के लिए निकलते हैं और अपने अभीष्ट संकल्पित शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं। श्रावण या सावन का महीना शिव भक्तों के लिए बेहद खास होता है। हिन्दू धर्म साहित्य के अनुसार सम्पूर्ण श्रावण मास भगवान शिव अपनी ससुराल राजा दक्ष की नगरी कनखल, हरिद्वार में निवास करते हैं। भगवान श्री विष्णु के शयन में जाने के कारण तीनों लोक की देखभाल भगवान शिव ही करते हैं। इस प्रचलित धार्मिक कारण से कांवड़ यात्री श्रावण मास में गंगाजल लेने हरिद्वार आते हैं। सावन में करोड़ों कांवड़ यात्री सम्पूर्ण भारत वर्ष से हरिद्वार आते हैं और गंगाजल अपने कांवड़ में भरकर पैदल यात्रा शुरू करते हैं। कांवड़ यात्री अपने कांवड़ में जो जल एकत्रित करते हैं, उस पवित्र जल से श्रावण मास की चतुर्दशी तिथि पर भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है।
यात्री की सेवा करने का फल भी यात्रा करने के समान है इसलिए उसकी सेवा अवश्य करनी चाहिए। यात्री को व जल पात्र को पूजन या नमस्कार अवश्य करना चाहिए। ऐसा कोई कर्म नहीं करना चाहिए, जिससे कावड़ यात्री को कष्ट या दुःख पहुंचे। यात्रा से व्यक्ति के जीवन में सरलता आकर उसकी संपूर्ण कामनाओं की पूर्ति होती है। यात्रा प्रारंभ करने से पूर्ण होने तक का सफर पैदल ही तय किया जाता है।
कांवड़ यात्रा के संबंध में प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से जो हलाहल नामक विष निकला था, संपूर्ण जगत कल्याण के लिए भगवान शंकर ने उसे पी लिया था। भयंकर हलाहल विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया, जिस कारण भगवान शिव नीलकंठ भी कहलाए। हलाहल विष के नकारात्मक असर ने भगवान नीलकंठ को घेर लिया। भगवान शिव के विष का सेवन करने से दुनिया तो बच गई, लेकिन भगवान शिव का शरीर गर्मी से जलने लगा। हलाहल विष के असर को कम करने के लिए देवी पार्वती समेत सभी देवी-देवताओं ने उन पर पवित्र नदियों का शीतल जल चढ़ाया। तब जाकर भगवान शंकर विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए। इसी मान्यता के आधार पर कांवड़ यात्रा की शुरूआत हुई।
हिन्दू धर्म में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवड़ यात्रा का शुभारंभ किया था। उन्होंने सर्वप्रथम कांवड़ में जल भरकर पुरा महादेव का गंगाजल से जलाभिषेक किया था। कुछ विद्वानों का मानना है कि श्रवण कुमार सबसे पहले कांवड़ यात्री थे। उन्होंने त्रेतायुग में माता-पिता को कावड़ में बैठाकर पैदल तीर्थ यात्रा की थी। जब श्रवण कुमार अपने माता-पिता को तीर्थ यात्रा करा रहे थे, तब उनके अंधे माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा जताई। माता- पिता की इस इच्छा को पूरी करने के बाद श्रवण कुमार लौटते समय अपने साथ गंगाजल ले गए, और भगवान शिव का अभिषेक किया था। यहीं से कावड़ यात्रा की शुरुआत मानी जाती है। माना जाता है कि प्रभु श्रीराम ने भी कावड यात्रा की थी, उन्होंने अपनी कांवड़ में सुल्तानगंज से जल भरा था और बाबाधाम में भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। रावण भी महान शिवभक्त था उसने भी कांवड़ में जल भरकर पुरा महादेव का अभिषेक किया था।
कांवड़ की कुछ प्रमुख यात्राएं नर्मदा से महाकाल तक, गंगाजी से नीलकंठ महादेव तक, गंगाजी से बैजनाथ धाम तक, गोदावरी से त्र्यम्बक तक, गंगाजी से केदारेश्वर तक इन प्रमुख स्थानों के अतिरिक्त असंख्य यात्राएं स्थानीय स्तर से प्राचीन समय से की जाती रही हैं।
कांवड़ यात्रा बहुत हिम्मत का काम है, गंगाजल भरने से लेकर उसे शिवलिंग पर अभिषेक करने तक का पूरा सफर भक्त पैदल, नंगे पांव करते हैं। चलते-चलते कई बार पैरों में छाले भी पड़ जाते हैं, लेकिन शिवभक्त हार नहीं मानते हैं।
यात्रा के दौरान किसी भी तरह के नशे या मांसाहार की मनाही होती है। किसी को अपशब्द भी नहीं बोला जाता। स्नान किए बगैर कोई भी भक्त कांवड़ को छूता नहीं है। यात्रा के दौरान कंघा, तेल, साबुन आदि का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। यात्रा के समय चमड़े की किसी चीज का स्पर्श, गाड़ियों का इस्तेमाल, चारपाई पर बैठना, ये सब कावड़ियों के लिए वर्जित होता है। कांवड़ को किसी पेड़ के नीचे भी नहीं रखते। शिवभक्त अपने पूरे सफर के दौरान बोल बम या जय-जय शिव शंकर महादेव का उच्चारण करते हुए आगे बढ़ते हैं।
कांवड़ की कुछ प्रमुख यात्राएं नर्मदा से महाकाल तक, गंगाजी से नीलकंठ महादेव तक, गंगाजी से बैजनाथ धाम तक, गोदावरी से त्र्यम्बक तक, गंगाजी से केदारेश्वर तक इन प्रमुख स्थानों के अतिरिक्त असंख्य यात्राएं स्थानीय स्तर से प्राचीन समय से की जाती रही हैं। कांवड़ यात्रा बहुत हिम्मत का काम है, गंगाजल भरने से लेकर उसे शिवलिंग पर अभिषेक करने तक का पूरा सफर भक्त पैदल, नंगे पांव करते हैं। चलते-चलते कई बार पैरों में छाले भी पड़ जाते हैं, लेकिन शिवभक्त हार नहीं मानते हैं।
कांवड़ को कंधे से अपने सिर के ऊपर से पार कराना भी गलत माना जाता है। संतान की बाधा व उनके विकास के लिए, मानसिक प्रसन्नता हेतु, मनोरोग के निवारण के लिए, आर्थिक समस्या के समाधान हेतु कावड़ यात्रा शीघ्र व उत्तम फलदायी है। कावड़ यात्रा किसी भी जलस्रोत से किसी भी शिवधाम तक की जाती है। कावड़ यात्रा एक भाविक अनुष्ठान है, जिसमें कर्मकांड के जटिल नियम के स्थान पर भावना की प्रधानता है, जिसके फलस्वरूप इस श्रद्धा कर्म के कारण महादेव की कृपा शीघ्र मिलने की स्थिति बनती है। यह प्रवास कर्म व्यक्ति को स्वयं से, देश से व देशवासियों से परिचित करवाता है।
कांवड़ यात्रा के समय यात्री को सुगमता रहे, इस तरह की मार्ग में व्यवस्था करना चाहिए। यात्राकर्ता को साधारण नहीं समझ करके विशेष भक्त समझकर उसके प्रति सम्मान व आस्था रखनी चाहिए। यात्री की सेवा करने का फल भी यात्रा करने के समान है इसलिए उसकी सेवा अवश्य करनी चाहिए। यात्री को व जल पात्र को पूजन या नमस्कार अवश्य करना चाहिए। ऐसा कोई कर्म नहीं करना चाहिए, जिससे कावड़ यात्री को कष्ट या दुःख पहुंचे। यात्रा से व्यक्ति के जीवन में सरलता आकर उसकी संपूर्ण कामनाओं की पूर्ति होती है। यात्रा प्रारंभ करने से पूर्ण होने तक का सफर पैदल ही तय किया जाता है। इसके पूर्व व पश्चात का सफर वाहन आदि से किया जा सकता है। इस यात्रा के लिए श्रद्धा विश्वास के अतिरिक्त पैदल चलने की आवश्यकता है। यात्रा की दूरी व्यक्ति की आस्था के कारण समाप्त हो जाती है और भक्त की यही आशा शिवजी पर जल अर्पण करते समय रहती है कि यह अवसर जीवन में बार-बार आता रहे, यही वर भगवान भोला भंडारी से सबको प्राप्त हो।
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