लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ यानी मीडिया का गला घोंट दिया गया। जिन मीडिया संस्थानों ने इसका विरोध किया, उसका उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। मीडिया पर पूरी तरह से ‘सेंसरशिप’ लगा दी गई थी। अगर कुछ भी छापना होता तो उसे भी पहले सेंसर किया जाता था। मैं सचाई जानता हूं कि इस देश में लोकतंत्र की ताकत को कोई कमजोर नहीं कर सकता।
आपातकाल जिस तरीके से रातोंरात लगाया गया, वह तानाशाही का जीता-जागता प्रमाण था। तमाम विपक्षी नेताओं को उठाकर जेल में ठूंस दिया गया। लोगों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए। ऐसी कोई संवैधानिक संस्था नहीं बची थी, जिसका गलत तरीके से इस्तेमाल न किया गया हो। मुझे याद है कि भारतीय जनसंघ के जो भी सशक्त नेता थे, उन सभी को जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया।
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ यानी मीडिया का गला घोंट दिया गया। जिन मीडिया संस्थानों ने इसका विरोध किया, उसका उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। मीडिया पर पूरी तरह से ‘सेंसरशिप’ लगा दी गई थी। अगर कुछ भी छापना होता तो उसे भी पहले सेंसर किया जाता था। मैं सचाई जानता हूं कि इस देश में लोकतंत्र की ताकत को कोई कमजोर नहीं कर सकता।
आपातकाल में भी एक नहीं, अनेक संगठन परोक्ष रूप से लोकतंत्र की रक्षा के लिए काम करते रहे। इसमें सबसे प्रमुख भूमिका थी रा.स्व.संघ के स्वयंसेवकों की। ग्रामीण स्तर से लेकर शहर तक आपातकाल के खिलाफ जनमत तैयार करने में स्वयंसेवकों ने बड़ी भूमिका निभाई। लेकिन इस दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। तब लोक संघर्ष समिति ने गांव-गांव जाकर लोगों को जगाने का काम किया था।
12 जुलाई,1975 को मेरी गिरफ्तारी हुई थी। उस समय मैं जेपी आंदोलन में मिर्जापुर में संयोजक के रूप में काम कर रहा था। मुझे रात 12 बजे गिरफ्तार किया गया और एकांत कोठरी में रखा गया। लगभग दो महीने मैं ऐसे ही रहा। उसके बाद केंद्रीय कारागार, नैनी में 8 जनवरी, 1977 तक रखा गया। उसी दौरान मेरी माता जी का भी निधन हो गया। जब मेरी गिरफ्तारी का एक साल पूरा हुआ तो माताजी ने मेरे चचेरे भाई दिग्विजय सिंह से पूछा था कि राजनाथ कब छूटकर आएंगे। उन्होंने कहा कि अभी लगभग एक साल और नहीं। यह सुनते ही उनको मस्तिष्क आघात हो गया और उनका स्वर्गवास हो गया था।
मैं मानता हूं कि इस पीड़ा को शब्दों में बताना बड़ा मुश्किल है। उस समय सारी गतिविधियां अप्रत्यक्ष रूप से चलायी जाती थीं। जनजागरण का अभियान लगातार चलता था। मैं मानता हूं कि इंदिरा गांधी तो अब इस दुनिया में नहीं रहीं, पर उस समय उन्होंने सिर्फ अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए आपातकाल लगाया था। निस्संदेह यह बहुत ही गलत फैसला था। राजनीति सत्ता-सुख भोगने के लिए नहीं की जानी चाहिए। राजनीति समाज बनाने के लिए की जानी चाहिए। देश के लिए की जानी चाहिए। यही राष्ट्र धर्म है।
मुझे याद है कि जब मुझे प्रयागराज के केंद्रीय काराकार में ले जाया जा रहा था, उस वक्त मेरी मां मुझे मिलने आई थीं। इस दौरान उन्होंने एक शब्द कहा था, जिसे सुनकर पुलिस वाले भी रोने लगे। उन्होंने कहा था कि बेटा चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन झुकना मत। मेरी माता जी के कहे शब्द आज भी मेरे मन-मस्तिष्क पर अंकित हैं। इन शब्दों ने मुझे बहुत शक्ति दी।
कुल मिलाकर आपातकाल को परिभाषित करने के लिए तीन शब्द काफी हैं। हार्डशिप, सेंसरशिप और डिक्टेटरशिप। मतलब तानाशाही चरम पर थी। लोगों के ऊपर फर्जी आरोप लगाकर जेल में डाला जा रहा था। इस तरह के जुल्म से जनता के अंदर दहशत का माहौल था। आज बात-बात पर कुछ लोग ‘लोकतंत्र की हत्या हो गई’, जैसी निरर्थक बातें कहते हैं। ऐसे लोग आपातकाल की पीड़ा से परिचित नहीं हैं। नागरिक अधिकारों का हनन कैसे किया जाता है, आपातकाल उसका उदाहरण है।
मैं मानता हूं कि इस पीड़ा को शब्दों में बताना बड़ा मुश्किल है। उस समय सारी गतिविधियां अप्रत्यक्ष रूप से चलायी जाती थीं। जनजागरण का अभियान लगातार चलता था। मैं मानता हूं कि इंदिरा गांधी तो अब इस दुनिया में नहीं रहीं, पर उस समय उन्होंने सिर्फ अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए आपातकाल लगाया था। निस्संदेह यह बहुत ही गलत फैसला था। राजनीति सत्ता-सुख भोगने के लिए नहीं की जानी चाहिए। राजनीति समाज बनाने के लिए की जानी चाहिए। देश के लिए की जानी चाहिए। यही राष्ट्र धर्म है।
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