कश्मीर का आंदोलन केवल राष्ट्रीयत्व के आधार, भारत की एकता की रक्षा के लिए ही नहीं, अपितु लोकतंत्र की आत्मा नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए भी था। उनके बलिदान ने स्पष्ट करा दिया कि भारत के नागरिक के मौलिक अधिकार कितने सुरक्षित हैं!
यह संयोग की बात नहीं कि डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु कश्मीर में भारतीय अखण्डता की रक्षा करते हुए नजरबंद की अवस्था में हुई। उनका बलिदान उन दोनों सिद्धांतों की रक्षा के लिए हुआ जो उनके जीवन कार्य में ताने-बाने के रूप में दिखाई देता है। वे सिद्धांत हैं राष्ट्रीयता और लोकतंत्र।
कश्मीर का आंदोलन केवल राष्ट्रीयत्व के आधार, भारत की एकता की रक्षा के लिए ही नहीं, अपितु लोकतंत्र की आत्मा नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए भी था। उनके बलिदान ने स्पष्ट करा दिया कि भारत के नागरिक के मौलिक अधिकार कितने सुरक्षित हैं! जहां संसद में विरोधी दल के नेता को भी नजरबंद किया जा सकता हो तथा जेलखाने में उनकी मृत्यु होने पर भी जांच न की जाए, वहां नागरिक अधिकार केवल संविधान की शोभा की वस्तु मात्र रह जाते हैं।
नेहरू की धमकी का प्रत्युत्तर
डॉक्टर मुखर्जी की जहां राष्ट्र की एकता में अटूट श्रद्धा थी, वहीं वे लोकतंत्र के भी अनन्य पुजारी भी थे। उनका मत था कि भारत का ही नहीं, अपितु विश्व का भविष्य लोकतंत्र के द्वारा ही सुरक्षित रह सकता है तथा विश्व की अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को वे मानवता के लिए सबसे बड़े संकट का कारण समझते थे। जब संसद में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें कुचलने की धमकी दी तो उन्होंने प्रत्युत्तर दिया कि वे इस कुचलने वाली मनोवृत्ति को ही कुचलना चाहते हैं। यह उनकी केवल हाजिरजवाबी नहीं, बल्कि उनके जीवन की श्रद्धा का प्रकटीकरण है। कुचलने की प्रवृत्ति अधिनायकवाद का मूल है। यदि यह भाव बढ़ा तो जनतंत्र चुनावों का ढकोसला मात्र रह जाएगा। आत्मा के नष्ट होने पर बाह्य आवरण से क्या लाभ?
जब संसद में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. मुखर्जी को कुचलने की धमकी दी तो उन्होंने प्रत्युत्तर दिया कि वे इस कुचलने वाली मनोवृत्ति को ही कुचलना चाहते हैं। यह उनकी केवल हाजिरजवाबी नहीं, बल्कि उनके जीवन की श्रद्धा का प्रकटीकरण है। कुचलने की प्रवृत्ति अधिनायकवाद का मूल है
प्रजापरिषद की मांगों का समर्थन भी उन्होंने केवल राष्ट्रीय आधार पर नहीं, अपितु जनतंत्रीय आधार पर भी किया। वे बारम्बार आग्रह करते रहे कि एक बार पंडित नेहरू प्रजा परिषद के नेताओं को बुलाकर उनके दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करें। किंतु नेहरू जी तो बात करने को भी तैयार नहीं थे। जिस राज्य का प्रधानमंत्री एक नागरिक से, और वह भी जिसके पीछे प्रबल जनमत हो, बात करने से इनकार कर दे, कैसे जनतंत्रीय कहा जा सकता है?
जम्मू के बलिदानियों की अस्थियों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने पर प्रतिबंध लगाने पर जब डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बैरिस्टर निर्मलचंद्र चटर्जी और श्री नंदलाल शास्त्री बंदी बनाये जा चुके थे, तब मैं एक दिन जेल में डॉक्टर मुखर्जी से मिलने गया। उन्हें कानून के अनुसार 24 घंटे के अंदर मजिस्ट्रेट के सम्मुख उपस्थित नहीं किया गया था। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में व्यक्ति-स्वातंत्र्य का आवेदन पत्र देना चाहिए। मेरे सम्मुख कश्मीर का प्रश्न प्रमुख था।
अत: मैंने कहा कि अब तो सत्याग्रह छिड़ गया है, आपका स्थान जेल में है, बाहर नहीं। वे बोले, जेल तो हमारे लिए रिजर्व है ही। किंतु हम यह गैरकानूनी धांधली नहीं चलने देंगे। भारत के नागरिक अधिकारों का मूल्य है। कश्मीर की रक्षा उनके साथ ही होगी। मुझे उनकी बात माननी पड़ी और उस दिन से हमारे सत्याग्रह के दोनों पक्ष हो गये। सरकार के लगाये प्रतिबंधों को तोड़ना तथा कचहरी में न्याय के लिए लड़ना। अर्थात हमारी मंशा जेल भरना नहीं, बल्कि सरकार के अन्याय और अधिनायकवादी मनोवृत्ति का पर्दाफाश करते हुए कश्मीर के प्रश्न की वास्तविकता की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट करना थी।
जनतंत्रीय पद्धति में अमिट विश्वास
उनका जनतंत्रीय पद्धति में अमिट विश्वास होने के कारण ही वे संसद में अग्रणी हो गये। उनके लिए संसद की सदस्यता रुपया या नाम कमाने की चीज नहीं, बल्कि अपने जीवन की श्रद्धा की अनुभूति का एक साधन थी। संसद लोकतंत्र की आधारभूत संस्था है और इसलिए वे संसद में कभी अनमने ढंग से नहीं गये। संसद के प्रत्येक कार्य को उन्होंने महत्व दिया और भारी अल्पमत में होते हुए भी हर विषय पर अपने मत का बलपूर्वक प्रतिपादन किया। यद्यपि किसी भी विषय पर आशु वक्तृत्व उनके लिए संभव था किंतु वे संसद में सदैव तैयारी करके जाते थे।
मुझे मालूम है कि कभी-कभी तो उनकी यह तैयारी महीनों पहले से होती रहती थी तथा कई बार तो विदेशी राजनीतिकों के मत भी वे इस दृष्टि से पत्र लिखकर मंगवाते थे। साथ ही संसद में एक भी शब्द उन्होंने निराधार नहीं बोला। शेख अब्दुल्ला की शिक्षा नीति के संबंध में जब उन्हें बताया गया तो उन्होंने उसके प्रमाण मांगे और जब तक कश्मीर की पाठशालाओं की पाठ्यपुस्तकें उनके हाथ में नहीं आ गयीं, उन्होंने एक शब्द भी इस विषय पर नहीं बोला। उन्होंने सदैव ही संसद का मान किया और इसलिए संसद ने भी उन्हें जीवन में बहुत बड़ा मान दिया। वे राष्ट्रमंडल में विन्सटन चर्चिल की जोड़ के संसदीय वक्ता समझे जाते थे।
संसद में वैसे तो वे सदैव ही प्रभावी रहे किंतु वहां भी जब कभी किसी राष्ट्रीय महत्व अथवा जनतंत्रीय अधिकारों के रक्षण के प्रश्न पर बोले तो वे अपने श्रेष्ठरूप में प्रकट हुए। उनके एतद्विषयक भाषण अत्यंत ही ओजस्वी होते थे। निवारक नजरबंदी अधिनियम तथा प्रेस एक्ट पर उनका भाषण संसदीय इतिहास में अमर रहेगा। पूर्वी बंगाल के हिंदुओं की स्थिति पर अथवा कश्मीर के प्रश्न पर उनका भाषण ऐसा लगता था, मानो एक-एक शब्द उनके अंतर को भेदकर निकलता था।
जीवन की इन दोनों श्रद्धाओं पर जब आघात हुआ, तो उनकी रक्षा के लिए वे खड़े हो गये और अपना बलिदान देकर भारत की एकता और नागरिक अधिकारों की महत्ता की ओर संपूर्ण देश का ध्यान आकृष्ट किया। हम उनका पुण्य स्मरण इन दोनों सिद्धांतों को बल प्रदान करके ही कर सकते हैं। उनके जीवन का अधूरा कार्य तभी पूरा होगा, जब देश में विशुद्ध राष्ट्रीय आधार पर लोकतंत्रीय जीवन पद्धति में अमिट विश्वास लेकर एक सुदृढ़ संगठन का निर्माण होगा। आज भी इन सिद्धांतों की कितनी आवश्यकता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं।
पं. दीनदयाल उपाध्याय
भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य और एकात्म मानववाद के प्रणेता रहे हैं
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