आज का इतिहास : बिरसा मुंडा का नाम सुनकर कांप जाती थी ब्रितानी हुकूमत

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देश-दुनिया के इतिहास में 9 जून की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। यह तारीख भारत के वनवासियों के लिए अमर है। भारत में जल, जंगल और जमीन को लेकर वनवासियों का संघर्ष सदियों पुराना है। ऐसे ही एक विद्रोह के जनक की 9 को पुण्यतिथि होती है। यह जनक बिरसा मुंडा हैं। उनका 9 जून, 1900 को रांची की जेल में निधन हो गया था।

बिरसा मुंडा की उम्र जरूर छोटी थी, लेकिन कम उम्र में ही वो वनवासियों के भगवान बन गए थे। 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों द्वारा लागू की गई जमींदारी और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई छेड़ी। बिरसा ने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी बगावत की। ये महाजन कर्ज के बदले वनवासियों की जमीन पर कब्जा कर लेते थे। बिरसा मुंडा के निधन तक चला ये विद्रोह ‘उलगुलान’ नाम से जाना जाता है।
औपनिवेशिक शक्तियों की संसाधनों से भरपूर जंगलों पर हमेशा से नजर थी और वनवासी जंगलों को अपनी जननी मानते हैं। इसी वजह से जब अंग्रेजों ने इन जंगलों को हथियाने की कोशिशें शुरू कीं तो वनवासियों में असंतोष पनपने लगा। अंग्रेजों ने वनवासी कबीलों के सरदारों को महाजन का दर्जा दिया और लगान के नए नियम लागू किए। नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे वनवासी कर्ज के जाल में फंसने लगे। उनकी जमीन भी उनके हाथों से जाने लगी। दूसरी ओर, अंग्रेजों ने इंडियन फॉरेस्ट एक्ट पास कर जंगलों पर कब्जा कर लिया। खेती करने के तरीकों पर बंदिशें लगाई जाने लगीं।

वनवासियों का धैर्य जवाब देने लगा। तभी उन्हें बिरसा मुंडा के रूप में अपना नायक मिला। 1895 तक बिरसा मुंडा वनवासियों के बीच बड़ा नाम बन गए। लोग उन्हें ‘धरती बाबा’ नाम से पुकारने लगे। बिरसा मुंडा ने वनवासियों को दमनकारी शक्तियों के खिलाफ संगठित किया। अंग्रेजों और वनवासियों में हिंसक झड़प होने लगीं। अगस्त 1897 में बिरसा ने अपने साथ करीब 400 वनवासियों को लेकर एक थाने पर हमला बोल दिया। जनवरी 1900 में मुंडा और अंग्रेजों के बीच आखिरी लड़ाई हुई। रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई इस लड़ाई में हजारों वनवासियों ने अंग्रेजों का सामना किया, लेकिन तोप और बंदूकों के सामने तीर-कमान जवाब देने लगे। बहुत से लोग मारे गए और कई लोगों को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया।

बिरसा पर अंग्रेजों ने 500 रुपये का इनाम रखा था। उस समय के हिसाब से यह रकम काफी ज्यादा थी। कहा जाता है कि बिरसा की ही पहचान के लोगों ने 500 रुपये के लालच में उनके छुपे होने की सूचना पुलिस को दे दी। आखिरकार बिरसा चक्रधरपुर से गिरफ्तार कर लिए गए। अंग्रेजों ने उन्हें रांची की जेल में कैद कर दिया। कहा जाता है कि यहां उनको धीमा जहर दिया गया। इसके चलते 9 जून 1900 को वे बलिदान हो गए।

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