‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाते नहीं, श्री माधवराव गोलवलकर के नाते श्री गुरुजी के व्यक्तित्व के प्रति मुझे श्रद्धा है।’ एक बार एक संघ विरोधी सज्जन ने कहा था। इसी प्रकार एक समय (1948 में) था जबकि बड़े-बड़े कहते थे,’ संघ और संघ के स्वयंसेवक तो अच्छे हैं, किन्तु उनके नेता उन्हें गलत दिशा की ओर ले जा रहे हैं।
उक्त दोनों प्रकार के व्यक्तियों की भावनाओं में अन्तर हो सकता है किन्तु दोनों की विचार-भूमिका एक ही है अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक तथा श्री माधवराव गोलवलकर दो व्यक्ति हैं। मेरे अनुसार ऐसे सज्जन न तो संघ को समझ पाए हैं और न ही गुरु जी को।
महानता का रहस्य
जब मैं कहता हूं कि संघ के सरसंघचालकत्व से पृथक श्री गुरुजी का व्यक्तित्व कुछ भी नहीं, मेरा अभिप्राय यह नहीं कि उनमें महान विभूतिमत्ता का अभाव है। सरसंघचालक बनने पर उन्होंने कहा था; ‘यह तो विक्रमादित्य का आसन है। इस पर बैठकर गड़रिये का पुत्र भी न्याय करेगा।’ विनयवश उन्होंने अपनी तुलना गड़रिये के लड़के से की, किन्तु कोई यह समझने की भूल नहीं कर सकता कि उनकी अप्रतिम महत्ता सिंहासन के कारण न होकर उनके स्व-विक्रम के कारण है। हां, उन्होंने अपने संपूर्ण सामर्थ्य और विक्रम को संघ के साथ एकाकार कर दिया है। यही है उनके जीवन का लक्ष्य और उनकी महानता का रहस्य।
सन् 1938 ई. के शारीरिक शिक्षण शिविर में आद्य सरसंघचालक परम पूज्य डॉ. हेडगवार की सेवा में श्रद्धा-निधि भेंट की जाने वाली थी। प्रत्येक ने अपनी श्रद्धा के अनुसार निधि में कुछ न कुछ दिया, किन्तु यह किसी को ज्ञात न हो सका कि किसने क्यादिया है। एक स्वयंसेवक ने अन्य कुछ न देते हुए, श्रद्धा स्वरूप घड़ी की स्वर्ण-चेन डाक्टर जी की सेवा में भेंट की। बस, चेन भेंट करने वाला स्वयंसेवक हमारी प्रशंसा का पात्र तथा उस दिन का हीरो बन गया। सर्वाधिकारी के नाते समारोप भाषण करते हुए श्री गुरुजी ने उक्त चेन का उल्लेख किया और कहा, ‘मैं मानता हूं, चेन भेंट करने वाले स्वयंसेवक के अन्तर में डॉक्टर जी के प्रति अत्यन्त प्रेम, श्रद्धा एवं आदर है, किन्तु वह भी पूरा स्वयंसेवक नहीं। उसमें कहीं न कहीं अहं छिपा हुआ है। जो निधि दी गई है, उसमें किसी का व्यक्तित्व पृथक नहीं। उस निधि में साथ न देते हुए अलग से देने की वृत्ति के मूल में स्व व्यक्तित्व पृथकता और अहंकार का भाव छिपा है।’ श्री गुरुजी के ये शब्द सुनकर हम लोगों को एकदम भारी धक्का लगा, किन्तु संघ का स्वयंसेवक बनने के लिए निज व्यक्तित्व संघ में कितना विलीन करना पड़ता है, इसका एक ऐसा पाठ मिला, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
आत्म प्रेरणा
अपने संपूर्ण जीवन को संघ के साथ एकरूप करने का यदि कहीं आदर्श मिल सकता है तो वह परमपूजनीय श्री गुरुजी के जीवन में। किसी ध्येय तथा कार्य के साथ तादात्म्य सरल नहीं और विशेषकर उस व्यक्ति के लिए जो उस संस्था का सर्वप्रमुख नेता हो। यदि किसी अन्य व्यक्ति के सम्मुख व्यष्टि और समष्टि के बीच संघर्ष आ जाए या दिशा का संभ्रम उपस्थित हो जाए तो वह समष्टि की भावनाओं, इच्छाओं और आकांक्षाओं के प्रतीक अपने नेता की आशा को सर्वमान्य करके चल सकता है, उसका मार्ग सरल है। किन्तु जिस व्यक्ति के ऊपर सम्पूर्ण कार्य के नेतृत्व की जिम्मेदारी हो, वह अपनी अन्तरात्मा को छोड़कर और किससे प्रेरणा ले सकता है! जनतंत्र की प्रचलित पद्धतियां वहां निरुपयोगी सिद्ध होंगी। उनसे समष्टि की भावना और उसके हिता हित का पता नहीं चलता। सत्य न तो अनेक असत्यों अथवा अर्धसत्यों का औसत है और न उनका योग, फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही तो सम्पूर्ण समष्टि नहीं। वह तो समष्टि का एक बिन्दु-मात्र है। उन्हें तो सम्पूर्ण समाज का विचार करना होता है।
संघ के साथ तादात्म्य
परम पूजनीय गुरुजी ने सदैव समष्टि का हित अपने सम्मुख रखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संचालन किया है। कई बार वे लोग, जो यातो उन्हें समझ नहीं पाते अथवा समष्टि-हित की अपेक्षा किसी छोटे हित को सम्मुख रखकर संघ की गतिविधि का संचालन चाहते हैं, वे श्री गुरुजी की दृढ़ता और अपने सिद्धान्तों के प्रति उनका आग्रह देखकर उन्हें अधिनायकवादी कह देते हैं। किन्तु वे इस मनोवृत्ति से कोसों दूर हैं। उनका अपना मत कुछ नहीं। संघ का मत ही उनका मत है और उनका मत ही संघ का मत होता है, क्योंकि उन्होंने पूर्णता दात्म्य का अनुभव किया है।
सबके प्रति आत्मीयता
ऐसे अनेक अवसर आए हैं जबव्यक्ति और संस्था की प्रतिष्ठा की चिन्ता न करते हुए, उन्होंने राष्ट्र के हितों को सर्वोपरि महत्व दिया है। सन 1948 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगा, उस समय यदि वे चाहते तो शासन की खुली अवज्ञा करके अपनी शक्ति का परिचय दे सकते थे, किन्तु उन्होंने संघ के कार्य का विसर्जन करके अपनी देश भक्ति का परिचय दिया। प्रतिबन्ध उठने के पश्चात स्थान-स्थान पर उनका भव्य स्वागत हुआ। दिल्ली में रामलीला मैदान पर जो सभा हुई, उसका आदि और अन्त नहीं दिखता था। बड़े से बड़े सन्त के अहंकार को जगा देने के लिए भी वह दृश्य पर्याप्त था। जब गुरुजी बोलने को खड़े हुए, उन्होंने कहा ‘यदि अपना दांत जीभ काट ले तो मुक्का मारकर अपना दांत तो तोड़ा नहीं जाता।’ लोग चकित रह गये। उन्होंने आशा की थी कि गुरुजी सरकार के अत्याचारों और अन्याय की निन्दा करते हुए उसे खूब खरी-खोटी सुनाएंगे। किन्तु उस महापुरुष की गहराई को वे नाप नहीं पाए। वहां तो सबके लिए आत्मीयता ही आत्मीयता है।
मैं नहीं तू ही
यह आत्मीयता ही उनकी महानता और उनके प्रति व्यापक श्रद्धा का कारण है। और उनकी महानता इसी में है कि वे इस आत्मीयता को लेकर चल सके हैं। गत वर्ष धर्मयुग साप्ताहिक ने भारत के अनेक महापुरुषों के जीवन के ध्येय-वाक्य छापे थे। परम पूजनीय गुरुजी का ध्येय वाक्य सबसे छोटा किन्तु सार्थक था-‘मैं नहीं तू ही’। इन चार शब्दों में ही गुरुजी का सम्पूर्ण जीवन समाया हुआ है। यह ‘तू’ कौन! संघ,समाज, ईश्वर। वे तीनों को एक रूप करके चलते हैं। तीनों की सेवा में विरोध नहीं, विसंगति नहीं। ‘एकै साधे सब सधे’ के अनुसार वे संघ की साधना करके सबकी साधना में लगे हुए हैं। और उनका जीवन ही साधना बन गया है।
अचूक दृष्टि
एक बार हम लोग समाचार-पत्रपढ़ रहे थे। आदि से अन्त तक करीब-करीब सभी पत्र पढ़ डाला। इतने में परम पूजनीय गुरुजी ने कमरे में प्रवेशकिया और सहज भाव से पत्र उठाकर इधर-उधर निगाह डाली, सुर्खियां देखीं, पन्ने उलटे और पत्र रख दिया। बातचीत शुरू हो गई। उस दौरान संघ संबंधी एक समाचार का, जो उसी पत्र में छपा था, जिक्र आ गया।
‘परन्तु वह समाचार है कहां!’,
मैंने पूछा।
‘इसी अखबार में तो है।’ परम पूजनीय गुरुजी ने कहा।
मैंने पूरा अखबार पढ़ा था, मुझे वह समाचार कहीं नहीं दिखाई दिया। अखबार लेकर फिर पन्ने उलटे, पर संघ का वहां कहीं नाम भी नहीं मिला। गुरुजी ने मेरी हैरानी देखकर अखबार हाथ में लिया और बताया, ‘यह है वह समाचार’?
बाजार-भावों के पन्नो पर एक ओर छोटा सा समाचार छपा था। ‘कहां छाप दिया है। हम लोग क्या व्यापारी हैं जो इस पन्ने? पर निगाह जाती’, मैंने मन ही
मन सोचा।
दूसरे ही क्षण विचार आया, ‘परम पूजनीय गुरुजी भी तो व्यापारी नहीं, कोसों दूर हैं-मोल-तोल और भाव-तावसे। उनकी निगाह कैसे गई! और फिर अखबार कोई मेरी तरह प्रारम्भ से अन्त तक पूरा पढ़ा भी नहीं था। सुर्खियां ही इतनी थीं कि जितनी देर वह पत्र उनके हाथ में रहा, पूरी नहीं पढ़ी जा सकती थीं।’ मैंने अपनी शंका रखी भी नहीं, पर शायद वे समझ गए। उन्होंने सहज ही कहा, ‘भीड़ में भी मां को अपना बच्चा दिख जाता है, कोलाहल में भी आत्मीयजनों के शब्द साफ समझ में आते हैं।’
मेरी समझ में आ गया। उनकी यह आत्मीयता है, जिसके कारण वे उस समाचार को देख सके। और देश के ऐसे कितने ही समाचार उनकी निगाह में आ जाते हैं, जबकि हम लोग उस नेता के वक्तव्य पढ़ते-पढ़ते ही समाचार-पत्रों को पी जाने की कोशिश करते हैं। अनेक महत्वपूर्ण समाचारों को छोड़ जाते हैं। वे अक्सर कहते हैं, ‘मैं तो समाचार-पत्र नहीं पढ़ता।’ पर मैं कहूंगा कि वे ही सच में समाचार-पत्र पढ़ते हैं। हम लोग तो उन्हें देखते हैं और बहुत देर तक देखते रहते हैं।
भविष्य-द्रष्टा
एक बार उन्हें एक पुस्तक, जो हाल ही छपकर आई थी, दिखाई। पुस्तक उन्होंने हाथ में ली। इधर-उधर देखा और सहज ही एक जगह से खोला। एक वाक्य पढ़ते हुए पूछा, ‘यह क्या लिखा है? वहां गलती थी, मैंने उसे स्वीकार किया। उन्होंने फिर पृष्ठ उलटा और वहां भी ऐसी ही एक अशुद्धि निकल आई। पुस्तक मैंने ले ली। बाद में गौर से उसे आदि से अन्त तक देखा। वही दो अशुद्धियां थीं। परम पूजनीय गुरुजी की निगाह बिना किसी प्रयास के उन अशुद्धियों पर ही कैसे गई! उन्हें कोई सिद्धि प्राप्त नहीं और वह कोई तुक्का ही था, जो लग गया हो।
ऐसे और भी अनुभव आए हैं। यही कहना होगा कि यह उनकी कार्य की लगन ओर एकात्मता ही है जिसने उन्हें वह अचूक दृष्टि प्रदान की है। उसी दृष्टि के कारण व प्रत्येक परिस्थिति में सत्य का दर्शन कर लेते हैं तथा भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, उसका भी आभास पा जाते हैं। भविष्य की बात होने के कारण यदि गंभीरता पूर्वक विचार नहीं किया जाए तो उनकी बातें बड़ी अटपटी सी लगती हैं, किन्तु थोड़े ही दिनों में उनकी सत्यता प्रमाणित हो जाती है। सन 1947 में उन्होंने भावात्मक राष्ट्रीयता पर बल दिया, एकात्मता की बात कही, राष्ट्रीय-चरित्र की आवश्यकता बताई, राजनीति की मयार्दाओं का उल्लेख करते हुए सांस्कृतिक अधिष्ठान पर समाज-संघटन का संदेश दिया। पिछले आठ वर्षों ने उनके प्रत्येक कथन को सत्य सिद्ध किया है, तथा प्रत्येक नई घटना उसे अधिकाधिक पुष्ट करती जा रही है।
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