धर्मरक्षक धर्मराज्य संस्थापक शिवाजी भोंसले ने हिन्दू पदपादशाही की स्थापना कर हिन्दू शास्त्रोक्त विधि से अपना राजतिलक करवाया और एक स्वतंत्र, सार्वभौम, स्वत्वपूर्ण हिन्दू साम्राज्य के अधिपति ‘‘छत्रपति शिवाजी महाराज’’ कहलाये।
भारतीय इतिहास में ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी अत्यंत महत्व का दिन है जब करीब पांच सौ वर्ष के सतत संघर्ष की अंधकारमयी कालरात्रि को चीर कर विक्रम संवत् 1731 (ईस्वी सन् 1674) में गो, ब्राह्मण प्रतिपालक, धर्मरक्षक धर्मराज्य संस्थापक शिवाजी भोंसले ने हिन्दू पदपादशाही की स्थापना कर हिन्दू शास्त्रोक्त विधि से अपना राजतिलक करवाया और एक स्वतंत्र, सार्वभौम, स्वत्वपूर्ण हिन्दू साम्राज्य के अधिपति ‘‘छत्रपति शिवाजी महाराज’’ कहलाये।
तत्कालीन विकट परिस्थितियां
तेरहवीं शताब्दी में इस्लामी आक्रांताओं ने भारत के अनेक क्षेत्रों में अपने मुस्लिम राज्य स्थापित कर लिए थे। मेवाड़ के हिन्दू राज्य को छोड़ कर अधिकांश उत्तर भारत में मुगलों का शासन हो गया था। दक्षिण में विजयनगर के हिन्दू साम्राज्य का 1565 में पतन हो जाने के बाद महाराष्ट्र, कर्नाटक और तेलंगाना के क्षेत्र में जिहादी मुस्लिमों का बीदर, गुलबर्गा, बीजापुर गोलकुण्डा आदि स्थानों पर निजामशाही-आदिलशाही शासन कायम हो गया। हिन्दू जागीरदार छोटे थे, परन्तु उनके आपस में संगठित न होने से एक-एक कर इन क्रूर आंक्राताओं द्वारा अपने अधीन कर लिया गए। महाराणा प्रताप को दबाने के लिए आमेर के मानसिंह अपनी शक्ति लगा रहे थे तो आदिलशाही के लिए शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर जनता की गाढ़ी कमाई कर के रूप में वसूल रहे थे।
शिवाजी की माता जीजाबाई को यह सब बहुत बुरा लगता था। वे पूना की अपनी जागीर में ही रह कर अपने पुत्र का लालन-पालन एक आदर्श माता की तरह कर रही थीं जिससे वह आगे चल कर विधर्मियों का नाश कर एक स्वतंत्र धर्मराज्य की स्थापना कर सके। शाहजी के विश्वस्त साथी दादा कौण्डदेव ने जागीर की देखभाल के साथ ही शिवाजी को सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और घुड़सवारी में पारंगत किया। उनकी देखरेख में ही बाल शिवाजी राजे अपनी जागीर के गांवों, वनों, पर्वतों में रहने वाली जनता से मिलते।
गांव-गांव जाकर उनकी आर्थिक हालत जान कर उनके दु:ख-दर्द में शामिल होकर प्रजा का अपनत्व प्राप्त करने लगे। मराठी जनता में वे एक न्यायप्रिय, सबका हित करने वाले अपने ‘शिवाजी राजे’ के रूप में लोकप्रिय हो गये। कठिन परिस्थितियों में भी जीवट के साथ जीवनयापन करने वाले स्वातंत्र्य प्रिय, साहसी मावले युवकों की एक सुन्दर टोली शिवाजी के नेतृत्त्व में उनके लिए प्राण देने वाली सेना के रूप में एकत्रित हो गई। विधर्मी शासन को उखाड़ कर ‘स्वराज्य’ की स्थापना के लिए उन्हें शिवाजी राजे जैसा आदर्श नायक प्राप्त हो गया जिसके लिए वे मर मिटने को तैयार थे।
शिवाजी की माता जीजाबाई को यह सब बहुत बुरा लगता था। वे पूना की अपनी जागीर में ही रह कर अपने पुत्र का लालन-पालन एक आदर्श माता की तरह कर रही थीं जिससे वह आगे चल कर विधर्मियों का नाश कर एक स्वतंत्र धर्मराज्य की स्थापना कर सके। शाहजी के विश्वस्त साथी दादा कौण्डदेव ने जागीर की देखभाल के साथ ही शिवाजी को सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और घुड़सवारी में पारंगत किया। उनकी देखरेख में ही बाल शिवाजी राजे अपनी जागीर के गांवों, वनों, पर्वतों में रहने वाली जनता से मिलते।
पूना की जागीर आदिलशाही राज्य का हिस्सा थी। इसके जागीरदार शाहजी भोंसले थे। मुहम्मद आदिल शाह ने 1637 में यह जागीर प्रदान की थी, उन्हें वहां से कर एकत्र कर बीजापुर शासन को पहुंचाना होता था। किलों पर आदिलशाही सत्ता अपने किलेदार नियुक्त कर उन्हें सीधे अपने अधिकार में रखती थी। शाहजी को बीजापुर राज्य के विस्तार और सुरक्षा के लिए दूर-दूर तक सैन्य अभियानों पर भेजा जाता था। दादाजी कौण्डदेव, माता जीजा बाई के साथ-साथ पूना जागीर की देखभाल धीरे-धीरे बाल राजे शिवाजी भी करने लगे थे। शिवाजी का व्यवहार, प्रशासनिक क्षमता, न्यायप्रियता, जनता के हृदय में अपना स्थान बना रही थी।
स्वराज्य की ओर बढ़ते कदम
तब किले राज्य की शक्ति का आधार माने जाते थे। जागीर हमारी पर किले सब आदिलशाह के कब्जे में, यह बात शिवाजी और जीजामाता को स्वीकार नहीं थी। स्वराज्य की ओर पहले कदम के रूप में शिवाजी ने अपने चुनिन्दा साथियों के साथ तोरण दुर्ग पर अचानक त्वरित हमला कर उसके , र को सैनिकों सहित भगा कर किले पर कब्जा कर लिया।
यहां से शिवाजी को पांच लाख की धन राशि प्राप्त हुई। पास ही के पहाड़ों और घाटों की नाकाबन्दी कर शिवाजी ने उस धन राशि से राजगढ़ के सुदृढ़ किले का निर्माण कराया जिससे उन्होंने लम्बे समय तक अपनी राजधानी के रूप में काम लिया। शीघ्र ही चाकण और कोण्ढाणा का किला भी चतुराई से हस्तगत कर लिया।
आदिलशाही दरबार में शिवाजी की इन गतिविधियों की खबर फैली हुई थी। जुलाई 1648 में शाहजी को गोलकुण्डा के कुतुबशाही शासकों के साथ गुप्त समझौतों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। इस समाचार ने शिवाजी को सावधान कर दिया। बीजापुर की सेना को उन्होंने पुरन्दर के पास दिसम्बर 1648 में परास्त कर दिया और बड़ी कूटनीतिक चतुराई से दक्षिण के मुगल सूबेदार के पास सन्देश भेजा कि वे शाहजी की मुक्ति के लिए बीजापुर की आदिलशाही पर दबाव डालें, बदले में हम आपका दक्षिण में सहयोग करेंगे।
मुहम्मद आदिलशाह की बीमारी, उसकी बड़ी बेगम द्वारा भेजी गई सेना की शिवाजी के हाथों बुरी तरह हार और मुगल दबाव के कारण आदिलशाही दरबार को शाहजी को मुक्त करना पड़ा। बदले में संधि की शर्तों के अनुसार शिवाजी को कोण्ढाणा का किला आदिलशाह को सौंपना पड़ा। यह शिवाजी की बड़ी कूटनीतिक सफलता थी जिसमें उन्होंने बिना सैन्य कार्रवाई के अपने पिता को मुक्त करवा लिया और अपने आपको दक्षिण में एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित किया।
पेशवा मोरोपंत पिंगले
मोरोपंत त्र्यंबक पिंगले मराठा साम्राज्य के प्रथम पेशवा थे और शिवाजी महाराज के अष्टप्रधान (आठ मंत्रियों की परिषद) के पंतप्रधान थे। निमगांव में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में जन्मे मोरोपंत उन योद्धाओं में थे जिन्होंने 1659 में बीजापुर के आदिलशाह की सेना एवं मुगल सेना के विरुद्ध त्र्यंबकेश्वर किले और वानी-डिंडोरी के युद्ध में भी हिस्सा लिया था। साल्हेर की लड़ाई और सूरत पर धावे में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मोरोपंत ने सुदृढ़ राजस्व प्रशासन की शुरुआत की और रणनीतिक किलों की रक्षा और रखरखाव से संबंधित संसाधन योजना में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
प्रतापराव गुर्जर
प्रतापराव गुर्जर छत्रपति शिवाजी की सेना के सरसेनापति थे। उन्होंने साल्हेर की लड़ाई में विशाल मुगल सेना को हराया था। मुगलों की संधि के अनुरूप संभाजी राजा के औरंगाबाद जाने पर प्रतापराव भी उनके साथ थे। प्रतापराव ने आदिलशाही सरदार बहलोल खां को युद्ध में पराजित कर बंदी बना लिया और फिर उसे संरक्षण देते हुए रिहा कर दिया। परंतु बाद में बहलोल खां मुकर गया। फरवरी, 1674 में प्रतापराव को अपने छह सरदारों के साथ बहलोल खां की सेना से युद्ध करना पड़ा। उन्होंने उसकी सेना के छक्के छुड़ा दिये। इस युद्ध में अंतत: प्रतापराव और उनके छह सरदार बलिदान हो गये।
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