अंदमान की सेल्यूलर जेल हर भारत भक्त के लिए एक स्वातंत्र्य तीर्थ है। इस जेल का हर कोना जैसे आज भी भारत माता की जय, वंदे मातरम जैसे नारों से गुंजायमान है। जेल की तीसरी मंजिल की वह काल कोठरी आज भी सावरकर के तप की साक्षी के रूप में मौजूद है जो प्रत्येक व्यक्ति को देश प्रेम का मर्म बताती प्रतीत होती है। पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने सेल्यूलर जेल से लौटकर लिखा था यह आंखों देखा हाल, जो 19 मई, 2002 के अंक में प्रकाशित हुआ था
अंदमान एक पौराणिक तीर्थ है और स्वातंत्र्य तीर्थ भी। पौराणिक कथा के अनुसार श्रीराम की सेना ने लंका पर चढ़ाई के लिए इसी द्वीप का चयन किया था। लेकिन बाद में योजना में परिवर्तन हुआ और धनुषकोटि से लंका पर धावा बोला गया। कहते हैं, इस द्वीप समूह का नाम हनुमान ही पहले हण्डुमान हुआ और कालान्तर में अंदमान हो गया।
दूसरी शताब्दी में प्रसिद्ध रोमन भूगोलशास्त्री टोलेबी ने भी इन टापुओं का उल्लेख किया था और दुनिया के सबसे पहले मानचित्र पर उन्हें स्थान दिया था। टोलेबी ने इन टापुओं का नाम दिया था- आदमाते यानी सौभाग्य के टापू। और धीरे-धीरे इन टापुओं की ओर लोग आकर्षित हुए, सभी तरह के लोग आने लगे, पंथ-प्रचारक आए, भटके हुए मल्लाह और भाग्य आजमाने वाले जहाजी आए, लुटेरे भी आए।
कोलकाता से लगभग 1400 किमी. और चेन्नई से लगभग 1300 किमी. दूर बंगाल की खाड़ी में स्थित इस द्वीप समूह का सौन्दर्य वाकई अनूठा है। इन टापुओं का दर्शन मात्र इनके प्रति अनुराग पैदा कर देता है। यही कारण था कि 18वीं सदी के अंत में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ यानी गोरों ने इस ओर रुख किया। उन्होंने योजना बनाई कि मुख्य धरती से जघन्य अपराध में बंद कैदियों को यहां लाकर एक बस्ती बसाई जाए। सैकड़ों की संख्या में जहाजों में भरकर कैदी पहुंचाए जाने लगे।
इधर भारत में स्वतंत्रता संग्राम में तेजी आने लगी थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ने ब्रिटिश राज की जड़ें हिला दी थीं। इसी के बाद 15 जनवरी, 1858 को गोरों ने योजना बनाई कि स्वतंत्रता संग्राम में पकड़े जाने वाले क्रांतिकारियों को भी मुख्य धरती से दूर इन टापुओं पर लाकर कैद किया जाए। और वीरान कैदखाने में उनके मानसिक संबल को चूर-चूर किया जाए और तब अंदमान की पुरानी पहाड़ी पर बसे टापू का नाम पोर्ट ब्लेयर रखकर मुजरिमों की बस्ती के अलावा कारागार की योजना आकार लेने लगी।
अंदमान में बंद कैदियों में उस समय वहाबी आंदोलन में शामिल रहा सरहदी सूबे का एक पठान शेर अली भी था। शेर अली ने 1872 में भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड मेयो की हत्या की थी। वाइपर टापू पर शेर अली को फांसी दे दी गई।
मुख्य आयुक्त केविन और अभियंता डब्ल्यू. जी. मैक्विलेन की निगरानी में पोर्ट ब्लेयर में 1896 में सेल्यूलर जेल बनाने का काम शुरू हुआ। सागर तट पर एक खड़ी पहाड़ी को ऊपर की ओर से काटकर सागर से 60 फुट ऊंचाई तक समतल किया जाने लगा। जंगल के जंगल काटे गए, मलबा ढोने और सागरतट को समतल करने में सैकड़ों कैदियों को दिन-रात काम में झोंक दिया गया। ईंट-दर-ईंट जेल बनने लगी। जेल के मुख्य सात लम्बे खंडों में कुल 696 काल कोठरियों का निर्माण हुआ। 7७7 फुट की एक कोठरी, जिसमें हवा और रोशनी के लिए ऊपर एक छोटा रोशनदान। सात में से (अब बचे) चार खंडों की कोठरियों के सामने बीच में तेल निकालने के कोल्हू लगाए गए।
जिन्दगी भर को हमें भेजके कालेपानी,
कोई माता की उम्मीदों पे न डाले पानी।
या
सरफरोशी की तमन्ना…
सेल्यूलर जेल गवाह है उस जेलर डेविड बेरी की पाशविकता की, जो भूखे और निढाल स्वातंत्र्य-वीरों को खुली धूप में चाबुक लगवाता हुआ अट्टहास करता था। जेलखाना धन्य हुआ विनायक दामोदर सावरकर की चरणधूलि का स्पर्श करके। गोरों ने उन्हें दो उम्र कैद की सजा दी थी। 24 दिसम्बर, 1910 से 23 दिसम्बर, 1960 तक। जुलाई, 1911 से मई, 1921 तक तीसरी मंजिल की सबसे अंतिम कोठरी में वीर सावरकर कैद रहे।
आज, उस कोठरी के भीतर जाकर जो अनुभूति होती है, उसे शब्दों में बांधना संभव नहीं। एक देवालय। अंदमान की उष्ण कटिबंधीय जलवायु में, जहां 44-45 डिग्री तापमान रहता है, उस छोटी-सी कोठरी में वीर सावरकर ने 10 वर्ष बिताए, बिना पथ से डिगे, एक चिरंतन लौ जलाए रखी। आजादी की लौ। बर्बर बैरी ने तो उन्हें फांसीघर के ठीक ऊपर वाली कोठरी में रखा ही इसलिए था कि शायद फांसी के फंदे उनके प्रण को डिगा देंगे। पर नहीं, सावरकर ने न केवल अपनी तपस्या को साधा बल्कि काल कोठरियों में कैद अन्य साथियों को भी मानसिक संबल प्रदान किया।
जापानी सेना का वर्चस्व बढ़ने लगा। 1942 से 1945 तक कुल 3 साल 6 महीने 15 दिन जापानियों का अंदमान पर कब्जा रहा। इस दौरान जापानी सेना ने लोगों पर बहुत जुल्म किए, सैकड़ों को मौत के घाट उतारा, न जाने कितने समुद्र में फेंक दिए गए। इसी कालखण्ड में नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंदमान यात्रा पर आए। उन्होंने जेल का मुआयना किया और इसी जेल के अहाते में आजाद भारत की धरती पर पहली बार तिरंगा झंडा फहराया। इतिहास के उस काले दौर की यादें संजोए सेल्यूलर जेल का अधिकांश भाग आज भी यथावत है। धन्य हैं उस जेल की दीवारें और वह कोल्हू घर, जिन्होंने वीर सावरकर का स्पर्श अनुभव किया।
आजादी मिली और सेल्यूलर जेल के फाटक खुल गए। सभी स्वतंत्रता सेनानियों को आजाद कर दिया गया। 30 अप्रैल, 1969 को भारत सरकार ने सेल्यूलर जेल को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा देकर उसे लोगों के दर्शनार्थ खोल दिया।
गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी अपनी दो दिवसीय पोर्ट ब्लेयर यात्रा की शुरुआत में ही सेल्यूलर जेल गए। वहां उन्होंने आंगन में बने ‘शहीद स्तम्भ’ पर पुष्प अर्पित किए और बलिदानियों की स्मृति में मौन धारण कर अपनी श्रद्धांजलि दी।
सेल्यूलर जेल के सामने एक छोटा, परन्तु सुन्दर वीर सावरकर उद्यान है। इसमें एक ओर वीर सावरकर की पूर्णकाय प्रतिमा स्थापित है। 26 फरवरी, 1983 को यह प्रतिमा स्थापित की गई थी। टोपी पहने, हाथ में छतरी लिए सावरकर जी की अनूठी छवि। उद्यान में कुछ प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों की प्रतिमाएं भी लगी हैं और सबके साथ उनका परिचय दिया गया है।
सेल्यूलर जेल में प्रतिदिन शाम को होने वाला ध्वनि एवं प्रकाश प्रदर्शन तो अद्भुत है। 4 मई,2002 को श्री आडवाणी इस प्रदर्शन को देखने पहुंचे। प्रकाश एवं ध्वनि के माध्यम से सेल्यूलर जेल और उसमें यातना भोगने वाले कैदियों का विवरण रोमांच पैदा कर देता है। पृष्ठभूमि में सागर की उत्ताल तरंगों का शोर और पक्षियों का कलरव प्रदर्शन को और जीवंत बना देता है। स्वातंत्र्य-तीर्थ की यात्रा सौभाग्य से ही सुलभ हो पाती है। राष्ट्र के प्रति निष्ठावान हर भारतीय को यह तीर्थयात्रा करनी चाहिए।
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