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होम भारत महाराष्ट्र

टिप्पणियों में ठाकरे जीते, फैसले में शिंदे

सुप्रीम कोर्ट ने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे सहित पूर्व शिवसेना के 16 विधायकों को अयोग्य ठहराने के मूल मसले पर फैसला बड़ी पीठ के लिए छोड़ दिया है। एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बने रहेंगे। लेकिन फैसले से भी अधिक राजनीतिक सनसनी अदालत की टिप्पणियों के कारण पैदा हुई

by सुमित मेहता
May 16, 2023, 01:05 pm IST
in महाराष्ट्र
कथावाचक देवकीनंदन की ओर से आगरा की जामा मस्जिद की सीढ़ियों की खुदाई कराकर वहां दबीं केशवदेव की मूर्तियां निकलवाने को अहम सबूत कोर्ट में दिए गए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय

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सर्वोच्च न्यायालय ने एकनाथ शिंदे सरकार को बरकरार रखा है। महाराष्ट्र की राजनीति की दृष्टि से इसका अर्थ यह है कि उद्धव ठाकरे को अपने स्वयं के, अपने समर्थकों के और शायद सबसे महत्वपूर्ण तौर पर अपने पुत्र आदित्य ठाकरे के भविष्य के बारे में नए सिरे से विचार करना पड़ेगा। इसका सीधा कारण यह है कि अभी की स्थितियों में, अगले लोकसभा और विधानसभा चुनाव तक एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने रहेंगे।

उद्धव ठाकरे को सर्वोच्च न्यायालय से सर्वोच्च झटका लगा है। सर्वोच्च न्यायालय ने एकनाथ शिंदे सरकार को बरकरार रखा है। महाराष्ट्र की राजनीति की दृष्टि से इसका अर्थ यह है कि उद्धव ठाकरे को अपने स्वयं के, अपने समर्थकों के और शायद सबसे महत्वपूर्ण तौर पर अपने पुत्र आदित्य ठाकरे के भविष्य के बारे में नए सिरे से विचार करना पड़ेगा। इसका सीधा कारण यह है कि अभी की स्थितियों में, अगले लोकसभा और विधानसभा चुनाव तक एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने रहेंगे।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 141 पृष्ठों के फैसले में कहा है कि वह उद्धव सरकार को बहाल नहीं कर सकता, क्योंकि उद्धव ठाकरे ने विधानसभा का सामना किए बिना ही स्वेच्छा से इस्तीफा दे दिया था। लेकिन ऐसा नहीं है कि ठाकरे पूरी बाजी हार गए हैं, और राजनीतिक तौर पर वह अभी भी भाजपा के लिए चुनौती पैदा करने की स्थिति में हैं। वास्तव में उद्धव ठाकरे के हाथ जो भी कुछ बचा था, वह एक सहानुभूति की लहर या उसकी प्रत्याशा थी। अब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद उनके पास सहानुभूति के पहलू को और तीखा करने का अवसर हाथ लग गया है।

इसके दो कारण हैं। एक तो सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की है कि राज्यपाल ने विधानसभा में बहुमत का फैसला करने का आदेश देकर गलती की और दूसरे, विधानसभा अध्यक्ष ने नए व्हिप की नियुक्ति का आदेश देकर गलती की। इन दो बिंदुओं के आधार पर उद्धव ठाकरे अगर जनता से किसी तरह की सहानुभूति की अपेक्षा रखते हैं तो उनकी उम्मीद पूरी तरह निराधार नहीं होगी। वास्तव में शिवसेना का जो भी जनाधार था, जमीन पर उसका एक हिस्सा आज भी उद्धव ठाकरे के फिर उठ खड़े होने की उम्मीद करता है। हालांकि यह रास्ता भी बहुत आसान नहीं है।

भारतीय जनता पार्टी और एकनाथ शिंदे की सरकार के भविष्य का भी फैसला होना था। जिनका फैसला भविष्य में जाकर होना है, उनमें विद्रोही विधायकों को अयोग्य ठहराने के संबंध में स्पीकर के अधिकारों की सर्वोच्चता का पहलू शामिल है। दूसरा यह भी प्रश्न है कि क्या पार्टियों के अंदरूनी लोकतंत्र का पर ध्यान दिए बिना दलबदल के मामलों का फैसला किया जा सकेगा।

फैसले का बारीकी से अध्ययन करने वाले कानून के जानकार यह प्रश्न कर रहे हैं कि अगर सर्वोच्च न्यायालय को लगता है कि फ्लोर टेस्ट बुलाने के मामले में राज्यपाल गलत हैं, तो जब शिवसेना ने इस मसले पर न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था, तो न्यायालय ने उसे रोकने से इनकार क्यों किया था? एक और तर्क यह दिया जा रहा है कि जब वर्तमान मुख्यमंत्री ने इस्तीफा दे दिया था, तो राज्य के प्रमुख होने के नाते राज्यपाल रिक्त स्थान तो नहीं छोड़ सकते थे। यह एक अभूतपूर्व स्थिति थी और सर्वोच्च न्यायालय का अतीत में फैसला भी था कि बहुमत का फैसला केवल फ्लोर टेस्ट से ही किया जा सकता है। इसके अलावा संविधान में राज्यपाल को फ्लोर टेस्ट के लिए अपने विवेक से निर्णय करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।

इन बातों से परे, ठाकरे को मिली दूसरी बड़ी राहत की बात उस सोशल मीडिया से है, जिस पर अदालत की टिप्पणियों को आधार बनाकर दिन भर ट्वीट और संदेश चलते रहे। इन टिप्पणियों से उद्धव ठाकरे के लिए अपने पक्ष में वातावरण बनाने का एक बड़ा अवसर जरूर हाथ लगा है, हालांकि देखना यह है कि जब न सत्ता उनके पास है, और न महाराष्ट्र विकास अघाड़ी उनके साथ है, तब वह सहानुभूति की लहर को किस सीमा तक आगे ले जा सकते हैं। जहां तक महाराष्ट्र विकास अघाड़ी, माने उद्धव ठाकरे, कांग्रेस और राकांपा के गठजोड़ का प्रश्न है, वह लगभग पूरी तरह समाप्त हो चुका है।

उद्धव ठाकरे के सबसे भरोसेमंद माने जाने वाले सांसद संजय राउत ने हाल ही में शरद पवार की आलोचना करने वाला एक बेहद कटु लेख शिवसेना (यूबीटी) के मुखपत्र सामना के संपादकीय में प्रकाशित किया। हालत यहां तक हो गई कि शरद पवार को इसका जवाब सार्वजनिक तौर पर देना पड़ा। अपने उत्तर में पवार ने कहा- ह्यउन्होंने जो लिखा है, हम उसे महत्व नहीं देते हैं। हम अपना काम जारी रखेंगे, उन्हें जो कुछ भी लिखना है, लिखते रहें।ह्ण ऐसे में माना जा सकता है कि अब उद्धव ठाकरे और शरद पवार का नए सिरे से मेलमिलाप होने के रास्ते बंद हो चुके हैं।

जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, मुंबई के राजनीतिक गलियारों में माना जाता है कि कांग्रेस कभी भी उद्धव ठाकरे से हाथ मिलाने के लिए तैयार नहीं थी और इसके लिए महाराष्ट्र के दो उद्योगपतियों ने किसी तरह कांग्रेस आलाकमान को मनाया था। नई परिस्थितियों में कांग्रेस के पास भी अब किसी गठबंधन की कोशिश करने का कोई कारण नहीं रह गया है। आज के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद से महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा विरोधी हिस्सा लगभग पूरी तरह शरद पवार के इर्दगिर्द रह गया है।

हालांकि अगर टिप्पणियों के और मीडिया या सोशल मीडिया के पहलू को अलग छोड़ दिया जाए, तो अदालत का फैसला पूरी तरह एकनाथ शिंदे के पक्ष में है। औपचारिक तौर पर इसे सुभाष देसाई बनाम महाराष्ट्र सरकार एवं अन्य मामला कहकर पुकारा जाता है। मूल मामला 16 विधायकों को सदस्यता के अयोग्य ठहराने के मसले पर केंद्रित था, जिसके निर्णय का राज्य की राजनीति पर न केवल गहरा असर पड़ना था, बल्कि इससे राज्य में भारतीय जनता पार्टी और एकनाथ शिंदे की सरकार के भविष्य का भी फैसला होना था। जिनका फैसला भविष्य में जाकर होना है, उनमें विद्रोही विधायकों को अयोग्य ठहराने के संबंध में स्पीकर के अधिकारों की सर्वोच्चता का पहलू शामिल है। दूसरा यह भी प्रश्न है कि क्या पार्टियों के अंदरूनी लोकतंत्र का पर ध्यान दिए बिना दलबदल के मामलों का फैसला किया जा सकेगा।

सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में भी एक परंपरा यह स्थापित कर चुका था कि वह किसी विधायिका की (माने सदन की) कार्यवाही के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा और उसे हर हालत में स्पीकर के फैसले की प्रतीक्षा करनी होगी। लेकिन जैसा कि अतीत में हरियाणा के संदर्भ में हुआ था, जब स्पीकर ने कोई फैसला लेने में ही पूरे कार्यकाल के बराबर का समय निकाल दिया था, तब उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा था।

उद्धव ठाकरे ने फैसला आते ही सहानुभूति कार्ड पर काम करना शुरू कर दिया है। हालांकि इसकी काट में भाजपा के अपने तर्क हैं। भाजपा के एक नेता का कहना है कि जब चुनाव हुए थे, तो शिवसेना भाजपा के साथ थी और लोगों ने उसे इसीलिए वोट दिया था। बाद में वह राकांपा और कांग्रेस के साथ चली गई। क्या यह जनता के साथ धोखा नहीं है? भाजपा के पास अपने पक्ष में सहानुभूति लहर पैदा करने के लिए अपने तर्क हैं। हो सकता है कि महाराष्ट्र की भविष्य की राजनीति कुछ समय तक अतीत की बातों पर चले।

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