पिछले वर्ष पूरे देश को आंदोलित एवं उद्वेलित करने वाले मामले जिसमें आफताब ने अपनी लिव इन पार्टनर श्रद्धा वॉकर की 35 टुकड़ों में काटकर हत्या कर दी थी और साथ ही उसने श्रद्धा की हड्डियों को पीसकर पाउडर बनाया था एवं आँतों को डस्टबिन में डाल दिया था।
इस हत्याकांड से पूरा देश हिल गया था और एक बार फिर से वही बहस आरम्भ हो गयी थी, जो इन दिनों चल रही है और जैसे आज लव-जिहाद की घटनाओं को नकारा जा रहा है, उस समय भी आफताब द्वारा की गयी हत्या को “प्रेम प्रसंग में की गयी हत्या” बताया था।
उस समय कई बहसें हुई थीं और उनमें कई कथित इस्लामी स्कॉलर्स ने यहाँ तक कहा था कि इसे मजहबी रंग न दिया जाए क्योंकि यह अपराध है और आफताब को कानून के अनुसार सजा दी जाए। मगर बाद में यह सामने आया था कि आफताब को श्रद्धा की हत्या का कोई अफ़सोस नहीं है। दैनिक जागरण की रिपोर्ट के अनुसार उसने यह कहा था कि श्रद्धा की हत्या के चलते अगर उसे फांसी भी हो जाती है तो अफ़सोस नहीं होगा क्योंकि जन्नत में उसे हूरे मिलेंगी और यह भी सबने देखा था कि कैसे श्रद्धा के रिश्ते के दौरान भी उसके कई और हिन्दू लड़कियों के साथ सम्बन्ध रहे थे।
जब ऐसी कोई घटना होती है तो कथित लिबरल फेमिनिस्ट वर्ग की चुप्पी बहुत हैरान करती है। विशेषकर फेमिनिस्ट लेखिकाओं का एक बड़ा वर्ग इस बात के लिए सहमत ही नहीं होता कि लड़कियों का धर्म के आधार पर शोषण होता भी है। श्रद्धा और आफताब के मामले में भी बहुत ही मुश्किल से किसी भी फेमिनिस्ट लेखिका की आवाज आई थी और जो आई थी वह उसी प्रकार आई थी कि पितृसत्ता के चलते लड़कियों के टुकड़े हो जाते हैं।
आज जब आफताब को लेकर आरोप तय हुए हैं, उस समय भी केरल स्टोरी की आलोचना करने वाले तमाम प्रगतिशील आलोचक चुप हैं। बल्कि वह यह प्रमाणित करना चाहते हैं कि दरअसल केरल स्टोरी घृणा ही फैला रही है और एकतरफा कहानी कह रही है।
आफताब को लेकर उसके नाम पर बात न हो, केरल स्टोरी में उस षड्यंत्र पर बात न हो, बल्कि झारखंड में अंकिता को ज़िंदा जलाकर मारने वाले शाहरुख की निर्लज्ज हंसी सभी को याद होगी, जिसमें वह हँसते हुए पुलिस के साथ जा रहा था, मगर उसे भी लेकर न ही फेमिनिस्ट लेखिकाओं की ओर से विरोध आया था और न ही प्रगतिशीलों की ओर से।
महिलाओं के लिए कार्य करने वाली कई वेबसाइट्स ने तो अंकिता के हत्यारे का नाम तक अपनी हेडलाइन में नहीं दिखाया था। वहीं आज जब श्रद्धा वॉकर के हत्यारे आफताब पर आरोप तय हुए हैं तो ऐसे में उन तमाम फेमिनिस्ट पोर्टल्स की रिपोर्टिंग पर ध्यान देना चाहिए, जो युवाओं को आजादी, क्रान्ति आदि शब्दों की आड़ में भ्रमित करते हैं।
फेमिनिज्म इन इंडिया ने 7 दिसंबर 2002 को प्रकाशित अपने लेख में श्रद्धा वॉकर की हत्या के मामले को लक्षित करके लिखा था कि क्या मीडिया भारत में एक धार्मिक राष्ट्र बनाने के लिए मार्ग प्रशस्त कर रहा है? तमाम तरह के प्रश्न इस पोर्टल ने उठाए थे और यहाँ तक लिखा था कि दरअसल लव जिहाद जैसी कोई बात नहीं होती है यह मात्र वर्चस्ववादी मर्दानगी की बात है, जिसके चलते श्रद्धा की हत्या हुई थी।
कथित प्रगतिशील पोर्टल्स अपने लेखों में तथ्यों को अनदेखा करने के लिए बड़े बड़े अवधारणात्मक शब्दों का चयन करते हैं, वह ऐसे नए शब्द गढ़ते हैं, जिनके कारण यह प्रतीत होता है कि विमर्श का स्तर अत्यंत उच्च है एवं कुछ सकारात्मक सामने निकलकर आ रहा है, जिससे समाज की समस्या को हल करने में सहायता प्राप्त होगी।
परन्तु यह पोर्टल्स हमेशा ही उस विमर्श के पक्ष में खड़े पाए जाते हैं, जो कट्टरता को बढ़ाता है। आज जब श्रद्धा वॉकर के मामले में आरोप तय हुए हैं तो भी समस्या पर बात नहीं हो रही है, बल्कि यह कहा जाए कि किसी पर भी बात नहीं हो रही है। कथित फेमिनिस्ट पोर्टल्स उन लड़कियों की पीड़ाओं पर भी बात नहीं कर रहे हैं, जिनके आंकड़े सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं बल्कि केरल स्टोरी की समीक्षा जो फेमिनिज्म इन इंडिया में प्रकाशित हुई है, उसमें तो फिल्म के ट्रेलर के एक दृश्य को लेकर जिसमें बुर्के वाली लड़की यह कहती है कि “देखा बुर्के पहने हुए किसी भी लड़की के साथ बदतमीजी नहीं हुई!” यह आशंका व्यक्त की गयी है कि यह बुर्के को लेकर भेदभाव वाले प्रतिबन्ध को समर्थन है, जो शैक्षणिक संस्थानों में लगातार बढ़ रहा है।
आफताब को लेकर जो आरोप तय हुए हैं, उन्हें लेकर फेमिनिस्ट लेखिकाओं से लेकर पोर्टल्स तक एक अजीब सुनसान चुप्पी दिखाई देती है। वह चुप्पी तभी उभरती है जब कोई एजेंडा ऐसा बनाना होता है या उभारना होता है जो भारत विरोधी हो, जिसे उभारने से ऐसा कोई मामला तय हो जिससे कि भारत की छवि दुनिया में खराब हो।
क्या यह समझा जाए कि श्रद्धा वॉकर, निमिषा फातिमा, सोनिया सेबेस्टियन आदि की पीड़ाओं से कथित रूप से उन महिलाओं का कोई लेनादेना नहीं हैं, जो लगातार दशकों से महिला विमर्श पर कब्जा जमाए हुए बैठी हैं?
या वह तमाम पोर्टल्स जो भारत को तोड़ने वाले, हिन्दुओं को तोड़ने वाले स्त्री विमर्श के अगुआ हैं, वह श्रद्धा वॉकर के मामले को भी यह कहते हुए हिन्दुओं पर थोपने की कोशिश करते हैं कि “भारत में व्याप्त जाति व्यवस्था के चलते ही कहीं न कहीं श्रद्धा वॉकर के साथ यह दुर्घटना हुई, क्योंकि श्रद्धा के पिता ने श्रद्धा के निर्णय का विरोध किया था और वह इस कारण कि वह हिन्दू से कोली जाति के थे और आफताब मुस्लिम था!”
जबकि इसमें यह बात छिपा ले गए कि यह श्रद्धा के पिता ही थे जो आफताब के घर पर अपनी बेटी का रिश्ता लेकर गए थे और वहां पर उन्हें आफताब के घरवालों से अपमानित होना पड़ा था एवं श्रद्धा वॉकर के पिता ने शादी का नहीं बल्कि लिव इन का विरोध किया था।
मगर इन तमाम मामलों में यह देखा गया कि कैसे तथ्यों को अपने एजेंडे के अनुसार तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है एवं श्रद्धा वॉकर, निमिषा फातिमा, सोनिया, अंकिता शर्मा समेत तमाम लड़कियों की पीड़ाओं को विमर्श में अनदेखा कर दिया जाता है, नकार दिया जाता है!
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