पर्यावरण की सुरक्षा के साथ जैव विविधता का संरक्षण भी जरूरी है। इसलिए वृक्षारोपण में केवल नीम या अशोक, अमलतास, कचनार, शीशम आदि की सीमित प्रजातियों पर ही जोर न देकर, फूल व फलदार पेड़ों-पौधों के अलावा मौलसिरी, रायण, पीपल, बरगद, कीकर, भारतीय बबूल, जामुन, शहतूत, पलाश, बेर, शमी, सेमल जैसे सभी प्रकार के पेड़, क्षुप, लताओं, तृण, घासों पर भी समान रूप से जोर दिया जाना चाहिए
पर्यावरण की रक्षा के लिए कुछ सीमित प्रजाति के पौधे लगाना ही पर्याप्त नहीं है। फसल, जल संरक्षण, वायु परिशोधन, भूमि सुपोषण और सृष्टि चक्र में आवश्यक विविध जीवों की प्रजातियों के संरक्षण के लिए पौधरोपण में विविधता जरूरी है। फसलों की उत्पादकता कृषि मित्र कीटों के परागण पर निर्भर करती है। इन्हें वर्ष भर आहार (पराग) और आवास मिले, इसके लिए हर मौसम में फल-फूल देने वाले पेड़-पौधे होने चाहिए। सिर्फ नीम, शीशम, अशोक, अमलतास, गुलमोहर आदि में से एक या सीमित प्रजातियों के पौधे लगाने से खाद्य सुरक्षा, जल संरक्षण, वायु परिशोधन, भूमि सुपोषण एवं जीव सृष्टि के संधारण का अहित हो रहा है। इसलिए प्रचुर संख्या में विविध वनस्पतियों, पेड़-पौधों, लता, गुल्म व तृण-घास की प्रजातियों, झाड़ियों आदि का सुनियोजित रोपण करना चाहिए।
वन, वर्षा और तापमान नियंत्रण
वर्षा के लिए आवश्यक 40 प्रतिशत नमी वनों से मिलती है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज के शोधों के अनुसार, वर्षा कराने में महासागरों के बाद दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान वनों का होता है। शास्त्रों में वृक्ष लगाने और उनके संरक्षण का उल्लेख है। बेतरतीब फैले पेड़-पौधों से वर्षाकारक स्वरूप के अनुरूप ऋषियों ने ‘वन’ शब्द की रचना की। वन शब्द के निर्वचन में यास्क ने लिखा है, ‘‘वन्यते याचते वृष्टि प्रदायते इति वना:।’’ अर्थात् प्रकृति से वृष्टि या वर्षा की मांग करने के कारण इन्हें वन कहा जाता है।
वनों की सघनता वायुमंडल को शुद्ध करती है और कार्बन डाईआक्साइड को वायुमंडल में .037 प्रतिशत से नीचे रखे हुए है। भारत में आम के बगीचों ने बीते 40 वर्ष में वायुमंडल से 28.5 करोड़ टन कार्बन डाईआक्साइड को सोख लिया, अन्यथा हम भयानक ग्लोबल वार्मिंग का शिकार होते। शुक्र के वातावरण में 17 प्रतिशत कार्बन डाईआक्साइड होने के कारण उसका तापमान 468 डिग्री सेल्सियस है। विगत 100 वर्षों में पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा 0.02 प्रतिशत से बढ़कर 0.037 प्रतिशत हो गई, जिससे वातावरण का तापमान 1.2 डिग्री बढ़ गया। इसके कारण बर्फ पिघली और समुद्र का जल स्तर 6-8 इंच बढ़ गया। इसी प्रकार ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता रहा, तो तापमान में 3.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि होगी और समुद्र का जल स्तर 3 फीट तक बढ़ने से पृथ्वी का एक बड़ा भाग जलमग्न हो सकता है।
जैव विविधता व खाद्य सुरक्षा
पेड़-पौधों की विविधता और उन पर विविध कीट प्रजातियों के पारस्परिक सहजीवन पर विचार करें, तो कृषि फसलों का 18 प्रतिशत तथा फल-सब्जियों की 50 प्रतिशत उत्पादकता इन फसलों के पुष्पों में परागण करने वाले कीटों के कारण है। बादाम जैसी कई पादप प्रजातियों में शत-प्रतिशत परागण इन्हीं कीटों द्वारा किया जाता है। इसी प्रकार, असंख्य कीट प्रजातियों का जीवन विविध फूलों के पराग या फल, पौधों की छाल आदि पर निर्भर करता है। विविध फसलों एवं फलों के बगीचों की उत्पादकता मधुमक्खियों, तितलियों, पतंगों, भ्रमरों, शलभ आदि द्वारा किए जाने वाले परागण पर निर्भर होने से इन कीटों की विविधता एवं सघनता खाद्य सुरक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है।
इसलिए विविध फसलों, फलों के बगीचों और कीट-पतंगों के जीवन चक्र के परस्पर अवलंबन को देखते हुए आहार चक्र के संरक्षण और खाद्य सुरक्षा हेतु जैव विविधता का संरक्षण बहुत जरूरी है, क्योंकि मधुमक्खियां, तितलियां व अन्य कीट-पतंगे अपने आहार और आवास के लिए आधा किलोमीटर से आगे जा ही नहीं पाते। इसलिए छोटी परिधि में भ्रमण करने वाले कीटों के अस्तित्व की रक्षा के लिए इसी छोटी परिधि में सभी ऋतुओं और महीनों में फल-फूल देने वाले पेड़-पौधों का होना बहुत आवश्यक हो जाता है। प्रकृति में पाए जाने वाले 3 लाख प्रजाति के पुष्पित होने वाले एंजियोस्पर्म श्रेणी के पेड़-पौधे और 1.5 लाख प्रजाति के कीट-पतंग परस्पर निर्भर हैं। इसलिए पौधरोपण में अधिकतम विविधता लानी चाहिए।
प्रकृति में अनादिकाल से पारंपरिक रूप से ऐसी जैव विविधता सभी क्षेत्रों में पाई जाती रही है, जिससे कीट-पतंगों और पक्षियों को प्रतिदिन, प्रति माह और वर्ष भर के लिए फूल-फल सुलभ हों। लेकिन विगत 5-6 दशकों में हुए वन विनाश के कारण प्रकृति प्रेमवश हमारे द्वारा किए जाने वाले पौधरोपण में प्राय: ऐसी वांछित जैव विविधता का अभाव देखा जाता है। गुलमोहर, कचनार, शीशम, नीम, अशोक और अमलतास आदि में से एक या सीमित प्रजातियों वाले पेड़ों पर मौसम के अनुसार वर्ष में एक बार लगभग 15-20 दिनों के लिए फूल और फल लगते हैं।
पक्षी विनाश और सृष्टि चक्र में विकृति
इसी प्रकार, अनेक फल भक्षी पक्षी भी 2-3 या 5 किलोमीटर से दूर नहीं जा पाते। उनके लिए भी इसी तरह छोटी परिधि में ऋतु चक्र, हर मौसम और हर माह में फल देने वाले पेड़-पौधे होने चाहिए। प्रकृति में अनादिकाल से पारंपरिक रूप से ऐसी जैव विविधता सभी क्षेत्रों में पाई जाती रही है, जिससे कीट-पतंगों और पक्षियों को प्रतिदिन, प्रति माह और वर्ष भर के लिए फूल-फल सुलभ हों। लेकिन विगत 5-6 दशकों में हुए वन विनाश के कारण प्रकृति प्रेमवश हमारे द्वारा किए जाने वाले पौधरोपण में प्राय: ऐसी वांछित जैव विविधता का अभाव देखा जाता है।
गुलमोहर, कचनार, शीशम, नीम, अशोक और अमलतास आदि में से एक या सीमित प्रजातियों वाले पेड़ों पर मौसम के अनुसार वर्ष में एक बार लगभग 15-20 दिनों के लिए फूल और फल लगते हैं। इसलिए उस अवधि के बाद किसी भी स्थान विशेष पर मधुमक्खियों, तितलियों, पतंगों, भृंगों, बीटल्स आदि परागणकर्ता कृषि मित्र कीटों अथवा फल भक्षी पक्षियों को फूलों का पराग और फलों से आहार मिल जाता है। लेकिन उसके बाद में कई किलोमीटर तक अन्य वांछित प्रजाति के पेड़-पौधे नहीं होने से आहार के अभाव में विविध कीट और पक्षी बड़ी संख्या में विलुप्त हो रहे हैं।
सीमित प्रजाति के वृक्षों के रोपण के कारण सभी जगह बीते 2-3 दशकों में फल भक्षी पक्षियों की संख्या घट कर मात्र 10-15 प्रतिशत रह गई है। इसके अलावा, विविध कीटों का जीवन चक्र भी इन विविध प्रजातियों के पेड़-पौधों पर निर्भर करता है। आज सजावटी और सीमित प्रकार के पेड़-पौधों व लताओं की बहुलता के कारण ये भी खत्म हो रहे हैं और इसके कारण कीट भक्षी पक्षी भी तेजी से घट रहे हैं। कृषि में कीटनाशी रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से कृषि मित्र कीटों का तेजी से विलोपन हुआ है, जिससे मोर और बगुले से लेकर टिटहरी तक सभी कीट भक्षी पक्षियों की संख्या घट रही है।
इसी प्रकार, फसलों पर निओनिकोटिनाइड जैसे कीटनाशकों के छिड़काव से उन फसलों से पराग ग्रहण करने वाली मधुमक्खियों में स्मृतिलोप हो जाने से वे अपने छत्तों पर नहीं लौट पाती हैं। इससे यूरोप में तो भारी मात्रा में मधुमक्खियों का लोप हुआ है। मधुमक्खियों के विलोपन से जब वहां कीट परागण में कमी आई और उपज घटने लगी तो निओनिकॉटिनाइड श्रेणी के कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। भारत में भी इन कीटनाशकों के प्रयोग पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए। जैव रूपांतरित (जी.एम.) फसलें भी इन परागणकर्ता कीटों को नुकसान पहुंचाने वाली बताई जाती हैं।
जैविक कीट नियंत्रण का अंत
पेरासाइटॉइड कहे जाने वाले परजीवी कीटों, जिनका जीवन चक्र फसलों को नष्ट करने वाले कीटों व कृमियों पर निर्भर होता है, के विलोपन से हमारी निर्भरता अत्यंत घातक कीटनाशी रसायनों पर बढ़ती जा रही है। इन कीटनाशी रसायनों से चर्म रोग, यकृत विकार, गुर्दों में विकृति, पार्किनसॉनिज्म और कैंसर जैसी अनगिनत असाध्य बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। पेरासाइटॉइड श्रेणी के कीटों के कई दर्जन संकुल हैं, जो फसलों को घातक कीटों से बचाने में सक्षम हैं। इनका जीवन-चक्र फसलों पर लगने वाले कीटों पर ही निर्भर होता है। इन पेरासाइटॉइड श्रेणी के मित्र कीटों से हमारी फसलें बिना कीटनाशी रसायनों के ही अनादिकाल से सुरक्षित रहती आई हैं।
यदि किसी फसल या फल को नुकसान पहुंचाने वाले किसी कीट का प्रकोप होने की दशा में उस फसल या फलों के वृक्षों में प्रकृति-जन्य ऐसे सुगंधित जैव रसायनों का संश्लेषण होता है, जिसकी सुगंध से आकृष्ट होकर पेरासाइॅटाइड श्रेणी के परजीवी कीट आ जाते थे और फसल या फल नाशक कीटों को समाप्त कर देते थे। इस तरह श्रेणी के मित्र कीट उन फसलों या फलों के बगीचे कीट प्रकोप से बच जाते थे। इन मित्रवत् कीटों को आश्रय देने वाले वृक्ष भी आसपास ही होते थे, इसलिए जैविक कीट नियंत्रण भी संभव होता था। पहले वन क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि हर गांव या बस्ती में भी सैकड़ों-हजारों प्रकार के पादप, झाड़ियों, लताओं और वृक्षों का सम्मिश्रण पाया जाता था, जो हजारों प्रकार के कीट, पतंगों, फसल मित्र कीटों व पक्षियों को आवास व आहार सुलभ कराते थे।
औषधीय दृष्टि से जैव विविधता
विविधीकृत वानस्पतिक संपदा सभी प्रकार की आयुर्वेदिक औषधियों का भी स्रोत रही है। आज वनों में भी पहले जैसी सघन और विविधीकृत वानस्पतिक संपदा तो दूर, तृण-घास तक का अभाव हो जाने से वन्य प्राणियों के लिए भी आहार की उपलब्धता नहीं रह गई है। कांग्रेस घास या गाजर घास (पार्थेनियम) और विलायती बबूल (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) के प्रसार के कारण भी अधिकांश क्षेत्रों की जैव विविधता और चारागाह तेजी से खत्म हो रहे हैं। इनका प्रसार जल संकट का कारण बन रहा है। ये दोनों तेजी से फैलने वाले और आक्रामक श्रेणी की खरपतवार कहलाते हैं, क्योंकि ये अन्य वनस्पतियों को नष्ट कर देते हैं। इसलिए कई आयुर्वेदिक वनौषधियां भी विलोपित हो रही हैं।
प्राचीन काल से ही देश में जैव विविधता संरक्षण को पर्वों-त्योहारों से जोड़ा गया है। इस कारण पेड़-पौधों में अर्क व अपामार्ग से लेकर आम, शमी, आंवला, पीपल, बरगद, उदुम्बर, कदम्ब, पारिजात, जामुन, शहतूत, काञ्चनार, पलाश, अगर, अर्जुन आदि सैकड़ों पेड़-पौधों का संरक्षण व संवर्द्धन होता था। उदाहरणार्थ- जब भी शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को बुधवार का संयोग होता था, उसे ‘तानना त्रयोदशी’ के रूप में मनाने के लिए 13 अनाजों के मिश्रित आटे, 13 प्रकार की दलहनों एवं 13 प्रकार की गैर फसली सब्जियों की मिश्रित सब्जी के व्यंजन खाने की परंपरा रही है। 3 मई, 2023 को ऐसा ही (तानना त्रयोदशी का) संयोग बन रहा है। आज 13 अनाज के नाम गिनाना ही कठिन है, क्योंकि अब अधिकांश अनाजों की खेती नहीं होती। इनमें माल, चीणा जैसे अनाज विलुप्त हो रहे हैं। गैर फसली शाक पुष्पादि की सब्जी में पुनर्नवा से अगस्त पुष्प तक अनेक प्रजातियां भी धीरे-धीरे चलन से बाहर हो रही हैं।
इसलिए पौधारोपण में विविधता जरूरी
पर्यावरण की सुरक्षा के साथ जैव विविधता का संरक्षण भी जरूरी है। इसलिए वृक्षारोपण में केवल नीम या अशोक, अमलतास, कचनार, शीशम आदि की सीमित प्रजातियों पर ही जोर न देकर, फूल व फलदार पेड़ों-पौधों के अलावा मौलसिरी, रायण, पीपल, बरगद, कीकर, भारतीय बबूल, जामुन, शहतूत, पलाश, बेर, शमी, सेमल जैसे सभी प्रकार के पेड़, क्षुप, लताओं, तृण, घासों पर भी समान रूप से जोर दिया जाना चाहिए। इस तरह की वनस्पतियों, पेड़-पौधे मिट्टी की जल धारण क्षमता बढ़ाने के साथ भू-जल स्तर भी बढ़ाते हैं।
ग्राउंड नेस्टिंग प्रजाति के कई पक्षी 2 फीट ऊंची झाड़ियों में रहते हैं। तितलियों और पतंगों के लिए ऐसी घास व झाड़ियां अत्यंत उपयोगी होती हैं। पुष्प रहित पौधों की बाड़ में फूल वाले पौधे, खासतौर से तितलियों, भौंरों, भृंगी आदि को आकृष्ट करने वाले पौधे लगाए जाने चाहिए। मोर जिन घास व तृण के बीजों को पसंद करते हैं, उन्हें भी लगाना चाहिए।
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