आज बंधुता के आधार पर ही संपूर्ण समाज को संगठित किया जा सकता है और स्वतंत्रता की रक्षा की जा सकती है। ‘भगवान बुद्ध और उनका धम्म’ में वे लिखते हैं, ‘‘राष्ट्र के खड़े होने के लिए जैसे दूसरे, वैसा मैं, जैसे हम, वैसे ही दूसरे- इस विचार से दूसरों के साथ समरस हो जाओ।’’
बाबा साहेब डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर राष्ट्रीय चेतना के उन्नायक थे। समाज को खंडित दृष्टि से देखने से राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता नहीं बनी रह सकती, यह वे सिर्फ भाषणों में ही नहीं कहते थे, अपितु उस पर अमल भी करते थे और निरंतर करते रहे। वे जीवनभर राष्ट्र की एकता, स्वतंत्रता और उसके लिए आवश्यक तत्वों के लिए संघर्ष करते रहे। संविधान सभा में दिए अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था कि समता, स्वतंत्रता, बंधुता के आधार पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा हो सकती है। इसमें समता और स्वतंत्रता, दोनों के लिए बंधुता अत्यंत आधारभूत है। आज बंधुता के आधार पर ही संपूर्ण समाज को संगठित किया जा सकता है और स्वतंत्रता की रक्षा की जा सकती है। ‘भगवान बुद्ध और उनका धम्म’ में वे लिखते हैं, ‘‘राष्ट्र के खड़े होने के लिए जैसे दूसरे, वैसा मैं, जैसे हम, वैसे ही दूसरे- इस विचार से दूसरों के साथ समरस हो जाओ।’’
यह मानवीय गरिमा का आग्रह है, मानवाधिकार का आग्रह है जहां बाबासाहेब सभी में समता देखते हैं। उनकी भारतीय दृष्टि में मानवीय गरिमा की बात सर्वोपरि थी। बाबासाहेब राष्ट्र की एकता के लिए संस्कृति के साथ सामाजिक समरसता को महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय में ‘कास्ट इन इंडिया’ शोधपत्र पेश किया जिसमें वे लिखते हैं कि भारत में सर्वव्यापी सांस्कृतिक एकता है। यद्यपि समाज अनगिनत जातियों में बंटा है, फिर भी वह एक संस्कृति से बंधा है। परंतु बाबासाहेब जातिभेद को हिंदू धर्म और राष्ट्र के लिए एक बड़ी अड़चन मानते थे। वे देश की एकता के लिए चातुर्वर्ण्य की समाप्ति के पक्षधर थे। वे मानते थे कि सभी भारतीय एक हैं और शूद्र कोई वर्ण नहीं था।
विचारक विजय सोनकर शास्त्री इसका उदाहरण अपनी पुस्तक ‘हिंदू चर्मकार जाति : एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशी इतिहास’ में देते हैं। श्री शास्त्री बताते हैं कि कैसे सिकंदर लोदी ने संत रैदास को बलपूर्वक चर्म कर्म में नियोजित करते हुए ‘चमार’ शब्द से संबोधित और अपमानित किया था। ‘चमार’ शब्द का प्रचलन वहीं से आरंभ हुआ। इसी तरह मैला ढोने की प्रथा हमारे यहां नहीं थी। वह आक्रांताओं के आने के बाद शुरू हुई। उन हिंदुओं ने निम्न कर्म स्वीकार किया, परंतु धर्म नहीं छोड़ा। यह आक्रांताओं के अत्याचार, इस्लाम में जबरदस्ती कन्वर्जन और इसका विरोध करने वाले हिंदू ब्राह्मणों व क्षत्रिय को निम्न कर्म में धकेलने की ओर संकेत है। आगे निम्न कर्म के आधार पर भेदभाव शुरू हुआ। यहां से एक फांस पड़नी शुरू हुई। अंग्रेजों ने इस फांस का दोहन किया। बाबासाहेब ने इसे ठीक करने के लिए संघर्ष किया।
डॉ. आंबेडकर भारतीय संस्कृति में अगाध विश्वास रखते थे। इसीलिए उनके हिंदू धर्म को छोड़ते वक्त पोप और निजाम की ओर से बहुत प्रलोभन आए परंतु उन्होंने उन्हें नकारते हुए भारतीय संस्कृति से निकले बौद्ध पंथ को अपनाया। उन्होंने कहा कि ‘मैं हिंदू धर्म का शत्रु हूं। विध्वंसक हूं, इस प्रकार मुझे लेकर टिप्पणी होती है, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा कि मैं हिंदू समाज का उपकारकर्ता हूं, इन्हीं शब्दों में हिंदू लोग मुझे धन्यवाद देंगे।’
बांग्लादेश में हिंदुओं का दमन हुआ, लीसेस्टर और बर्मिंघम में हिंदुओं के विरुद्ध दंगे हुए, पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी का सफाया हुआ, कोई नहीं बोला। भारत विभाजन के समय दो करोड़ लोग कत्ल कर दिए गए, करोड़ों विस्थापित हुए, किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। दो करोड़ हिंदू अपने पुरखों की जमीन की ओर आते हुए मारे गए। उनकी कोई बात नहीं कर रहा है। बाबासाहेब ने जो सोचा था, मानवीय गरिमा के संदर्भ में, उसे वैश्विक स्तर पर सोचने की जरूरत है, उसे हिंदू दृष्टि से ठीक करने की जरूरत है।
बाबासाहेब भारत को भारतीय संस्कृति के अनुरूप एकजुट और अखंड देखना चाहते थे। जाति के साथ वे भाषा विवाद को भी समाज को बांटने का कारण मानते थे। उनका मानना था कि संस्कृत पूरे देश को भाषाई एकता के सूत्र में बांध सकने वाली इकलौती भाषा हो सकती है। उन्होंने इसे देश की आधिकारिक भाषा बनाने का सुझाव दिया। संविधान सभा में डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्रीय भाषा के रूप में संस्कृत का समर्थन किया। वे इस बात से आशंकित थे कि स्वतंत्र भारत कहीं भाषाई झगड़े की भेंट न चढ़ जाए। देश में भाषा को लेकर कोई विवाद न हो, इसलिए जरूरी है कि राजभाषा के रूप में ऐसी भाषा का चुनाव हो, जिसका सभी भाषा-भाषी बराबर आदर करते हों। आंबेडकर जानते थे कि यह संभावना सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत में ही हो सकती है।
डॉ. आंबेडकर की राष्ट्रीय चेतना तब भी दिखती है जब साइमन कमीशन भारत आया। मुस्लिम लीग ने मांग की कि बाम्बे प्रेसिडेंसी से सिंध को अलग कर दो। आंबेडकर कहते हैं कि इस मांग की क्या जरूरत थी? जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, उनको अलग राज्य बना देना, यह आवश्यक है क्या? आंबेडकर जी बॉम्बे प्रेसीडेंसी के सदस्य थे। उन्होंने अपनी अलग रपट दी और इस राय का विरोध किया। बाद में सिंध प्रांत बना और ‘कम्युनल अवार्ड’ आया, बाबासाहेब ने इन दोनों बातों का जमकर विरोध किया।
स्वतंत्रता के पश्चात संपूर्ण भारत के नागरिकों को एक मानते हुए डॉ. आंबेडकर जम्मू एवं कश्मीर के लिए संविधान में अनुच्छेद 370 के प्रावधान के पक्ष में नहीं थे। जब नेहरू के सुझाव पर शेख अब्दुल्ला आंबेडकर के पास गए तो उन्होंने शेख को उलटे पांव लौटा दिया था। आंबेडकर ने कहा कि ‘मैं भारत का विधि मंत्री हूं। मैं उसके राष्ट्रीय हितों से विश्वासघात नहीं करूंगा’। संविधान सभा में यह प्रस्ताव गोपालस्वामी आयंगर को रखना पड़ा था। उन्होंने कश्मीर में जनमत संग्रह और मसला संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का भी विरोध किया।
भेदभाव खत्म करने, समता और बंधुत्व के भाव की बाबासाहेब की वह दृष्टि आज भी प्रासंगिक है। वे जातियों के आधार पर होने वाले जिस भेदभाव को ठीक करने की बात कर रहे थे, उसे हमने काफी हद तक ठीक किया है, और ठीक करेंगे। परंतु आज पूरी दुनिया में हिंदुओं के साथ वैसा ही भेदभाव हो रहा है, लेकिन मानवाधिकार की बात करने वाला कोई इस पर बात नहीं कर रहा है। बांग्लादेश में हिंदुओं का दमन हुआ, लीसेस्टर और बर्मिंघम में हिंदुओं के विरुद्ध दंगे हुए, पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी का सफाया हुआ, कोई नहीं बोला। भारत विभाजन के समय दो करोड़ लोग कत्ल कर दिए गए, करोड़ों विस्थापित हुए, किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। दो करोड़ हिंदू अपने पुरखों की जमीन की ओर आते हुए मारे गए। उनकी कोई बात नहीं कर रहा है। बाबासाहेब ने जो सोचा था, मानवीय गरिमा के संदर्भ में, उसे वैश्विक स्तर पर सोचने की जरूरत है, उसे हिंदू दृष्टि से ठीक करने की जरूरत है।
@hiteshshankar
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