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जल गाथा ज़रूरी !

कैसे सदियों पुराने अपने जलाशयों को हमने भुला दिया? क्या कमी रह गई कि आज़ादी के कुछ दशकों बाद जलाशयों की गाथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचते पहुंचते बेढाल हो गई?

WEB DESK by WEB DESK
Apr 2, 2023, 03:58 pm IST
in भारत, विश्लेषण, मत अभिमत
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डॉ मीना जांगिड़

इंदौर के स्नेह नगर में बेलेश्वर महादेव मंदिर के हादसे ने देश के जनमानस को झकझोर कर रख दिया। कैसे हादसा हुआ? इसके पीछे क्या वजह थी? कौन ज़िम्मेदार था? इन सब सवालों के सैकड़ों उत्तर ढूँढे जाएंगे और उनकी तह तक पहुंचने की विफल कोशिशें भी की जाएंगी। लेकिन कुछ दिनों बाद हादसे को भुला दिया जाएगा और कोई भी हादसे से कुछ नहीं सीखने वाला। ऐसी घटनाओं को लेकर सवाल प्रशासन से नहीं, सवाल समाज के स्व से है कि कैसे सदियों पुराने अपने जलाशयों को हमने भुला दिया ? क्या कमी रह गई कि आज़ादी के कुछ दशकों बाद जलाशयों की गाथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचते पहुंचते बेढाल हो गई?

यहाँ तक कि पुरखों की कही इस बात को भी भुला दिया कि पानी और इसके बहाव को रोकने का काम करेगा वो पाप का भागी होगा। उसकी वंशवृद्धि नहीं होगी। पढ़े लिखे समाज के लिए आज ये सब बातें ज़रूर ढकोसला होगी, लेकिन उस तथाकथित अनपढ़ समाज का अपने जलाशयों के साथ भावनात्मक जुड़ाव क़ायम रखने का यह उनका अपना अनोखा ढंग था। जो उनके जीवन का मुख्य संस्कार भी था। तभी तो वो अकाल में भी प्यासा नहीं रहा और नदियों के बीच में रहकर भी कभी डूबा नहीं।

समाज ने न केवल जल के प्रति अपने अनेक अलिखित क़ानून बना ही रखे थे बल्कि जहां ज़रूरत पड़ी वहाँ कठोर दंड का विधान भी रचा गया। समाज की अपनी ज़िम्मेदारी थी कि वर्षभर जलापूर्ति करने वाले जलाशय की और उसके आगोर की देखरेख प्रत्येक वर्ष समय पर हो, उसकी मरम्मत हो। लेकिन विडंबना है कि सदियों से जो अपने जल से हमारी प्यास बुझाते रहे आज उन्हीं जलाशयों को न केवल बिसरा दिया, बल्कि उनकी ज़मीन को क़ब्ज़ा भी लिया। और वहाँ बड़े-बड़े भवन और शहर भी खड़े कर दिए गए। ये कैसा विकास जो अपने इतिहास को भुलाने की होड़ में लगा है? जहां जलाशय क्या किसी की भी ज़मीन को क़ब्ज़ाना समाज की नज़र से गिर जाना होता था, वहीं आज ज़मीन हथियाना समाज में रौबदार होना समझा जाता है। ये कोई व्यंग्य नहीं, बल्कि समाज के बदलते मूल्य, संस्कारों और आदर्शों की बात है।

राजस्थान जिसे आज का आधुनिक साहित्य हो या फ़िल्म सभी में बड़े बड़े रेत के धोरों से उड़ती हुई धूल भरी आंधी और निराशमय होकर पानी के लिए भटकते प्राणीजन के रूप में दिखाया जाता है। लेकिन हकीकत तो बिल्कुल इसके उल्ट है। मरुभूमि के इतिहास में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिसमें पानी की कमी से कोई मौत हुई हो। आपको उत्तर पूर्व का पन्ना पन्ना इतिहास खगालने से भी ऐसी जानकारी नहीं मिलेगी कि बाढ़ से कोई मौत हुई या किसी ने पलायन किया। बूँद-बूँद को सहेजना जानता था तो उसका निर्बाध प्रबंधन भी। ये सब किसी एक पीढ़ी का कुछ सालों का अनुभव नहीं था बल्कि सदियों का सहेजा हुआ ज्ञान था। जिसने देशभर में भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप सैकड़ों अनोखी जल प्रणालियों को स्थापित किया, जो अनदेखी के इस दौर में भी अडिग खड़ी है।

इंदौर का हादसा केवल हादसा नहीं, बल्कि हमे अपने आपको और समाज किस ओर अग्रसर हो रहा है इस पर ठहर कर विचार करने का इशारा है। मंदिर बावड़ी पर निर्मित था… उसके निर्माण के समय कैसे समाज ने आँख मूँद ली ? क्यों किसी को बावड़ी की गाथा याद नहीं रही? क्यों किसी को बावड़ी की व्यथा, घुटन महसूस नहीं हुई? समय रहते ऐसे अनेकों काल ग्रसित जल गाथाएँ ढूँढी नहीं गई, कही नहीं गई तो न जाने कितने मकान, कितने शहर यूँही दरकते हुए देखने सुनने को मिलेंगे।

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