कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और ‘अयोग्य’ सांसद राहुल गांधी ने एक बार फिर वीर सावरकर का अपमान करने की घृष्टता की है। इसलिए सावरकर पर बात करना आवश्यक है। वैसे भी, बड़ी मुश्किल से और लाखों के रक्त की आहुति देकर आजादी पाने वाले इस देश-समाज को सावरकर जैसे राष्ट्रभक्त वीरों की बात समय-समय पर जरूर करनी चाहिए ताकि लोगों को वे बलिदान याद रहें और उन गलतियों को दोहराने से बचें जिनके कारण मुट्ठी भर गोरों ने हमें गुलाम बना लिया।
कांग्रेसी नेता सावरकर पर आरोप लगाते रहे हैं कि उन्होंने अंग्रेजी हुकुमत से माफी मांगने से गुरेज नहीं किया। पर सावरकर की जीवन यात्रा, उनके राष्ट्रदर्शन और राष्ट्र के प्रति समर्पण के भाव पर नजर डालें तो उनका एक अनोखा पहलू सामने आता है। इसके लिए 1920 के दशक के दौर में जाना होगा। विनायक दामोदर सावरकर उसी जेल में सजा काट रहे थे। नासिक जिले के कलक्टर जैकरसन की हत्या का षड्यंत्र रचने के मामले में 1911 में सावरकर को काले पानी की सजा हुई। वहां उन्होंने पाया कि राजनीतिक बंदियों से शारीरिक श्रम कराया जा रहा है, जिसके खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई और अपने साथ-साथ सभी राजनीतिक बंदियों से शारीरक श्रम कराने को नियमों के विरुद्ध बताया। उन्होंने अपने साथ ही अन्य राजनीतिक बंदियों की रिहाई की चिट्ठी भी लिखी थी।
3 अक्तूबर, 1914 में अंडमान जेल से सुपरिटेंडेंट लूइस को लिखे एक पत्र में वह साफ संकेत देते हैं कि उनकी प्रार्थना को सिर्फ उन्हें रिहा करने की नजरिए से नहीं देखा जाए, बल्कि वह अपने सभी साथियों के साथ ही रिहा होना चाहेंगे- “अगर सरकार को लगता है कि मेरी असली मंशा अपनी रिहाई सुरक्षित करने की है तो मैं स्वीकार करता हूं कि मैं बिल्कुल भी रिहा नहीं होना चाहता। मैं चाहता हूं कि सभी देशद्रोहियों को मुक्त किया जाए।” यह पत्र उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि कूटनीतिक योजना की ओर इशारा करता है जिसके जरिए वह अपने भाई-बंधुओं को अंडमान की यातना शिविर से बचा ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी नीति अन्यायी और बेईमान अंग्रेजों को अपने चातुर्य से फुसलाकर जेल से बाहर निकलने की दिखाई देती, ताकि वह भूमिगत रहकर देश की बेहतर सेवा कर सकें जो जेल से संभव नहीं।
ब्रिटिश सरकार ने उस पत्र का जवाब देते हुए कहा कि सावरकर का पत्र मौजूदा समय (युद्ध) का फायदा उठाकर आजादी के संघर्ष को और तेज करना है – “भारत सरकार के सचिव, गृह विभाग शिमला का जवाब है कि “सावरकर का पत्र अराजकतावादी गतिविधियों को और बढ़ाने के लिए वर्तमान स्थिति (यानी युद्ध) का लाभ उठाने की प्रवृत्ति को इंगित करता है” । इस दलील के साथ सरकार ने उन्हें रिहा करने से मना कर दिया था।
विवादों का घेरा
विडंबना है कि सावरकर जैसे ओजस्वी और राष्ट्र के प्रति समर्पित व्यक्ति की अंग्रेजों से माफी मांगने पर निंदा होती रही और आजाद भारत में राष्ट्रपिता की हत्या के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया गया। विशेष न्यायाधीश, लाल किला दिल्ली के फैसले में विनायक दामोदर सावरकर को महात्मा गांधी हत्याकांड में निर्दोष पाया गया था। उसके बावजूद उस आरोप की स्याह परछाईं जीवन पर्यंत उनका पीछा करती रही जबकि गांधी हत्या मामले की अदालती कार्यवाही में जिस रामचंद्र बडगे को “सच्चा गवाह“ माना गया, वह गांधी जी की हत्या के पहले 17 जनवरी, 1948 को सावरकर सदन पहुंचे गोडसे और आप्टे के साथ अंदर तक नहीं जाता और सावरकर के किसी कथन का सीधे तौर पर साक्षी भी नहीं था। सावरकर सदन में सिर्फ सावरकर नहीं रहते थे, बल्कि ए.एस. शिंदे और गजानन दामले भी रहते थे। सावरकर सदन के निचले हिस्से में हिंदू संगठन का कार्यालय था जहां हिंदू महासभा का काम होता था और स्थानीय सभा कार्यकर्ताओं के अलावा कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों का आना-जाना लगा रहता था- “विभिन्न दलों के अखिल भारतीय नेता, सनातनी, समाजवादी, हिंदू सभा के सदस्य, कांग्रेसी… दिनभर सावरकर सदन में आते-जाते रहते थे।” भारत के विभाजन और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिए गांधी को जिम्मेवार मानने वाले गोडसे ने गांधीजी की हत्या का अपराध स्वीकार करते हुए कहा था, “यह उसने खुद किया है”।
उनकी शख्सियत आलोचनाओं से निस्पृह एक ऐसे व्यक्ति की है जो आत्महारा लगन से स्वतंत्रता का अलख जगाता रहा, कागज-कलम-दवात नहीं होने पर भी जेल की दीवारों पर कविताएं उत्कीर्ण करता रहा और मौखिक वाचन के जरिए उनमें उकेरे आजादी के आह्वान को प्रसारित करता रहा। सराहना हो या निंदा वह शिव सा दोनों को समभाव से आत्मसात करते रहे क्योंकि “सावरकर केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक संपूर्ण विचारधारा हैं। वह एक चिंगारी नहीं, जलता हुआ अंगारा हैं। उनका वर्णन परिभाषाओं तक ही सीमित नहीं, बल्कि अपने जीवनकाल के दौरान अपने भाषण और कार्यों में प्रदर्शित सद्भाव की तरह दिव्य और विशाल विस्तारित हैं।” यह बात 2006 में पुणे में वीर सावरकर की जयंती पर अटल जी ने अपने भाषण में कहे थे।
आरंभिक जीवन
1906 में युवा विनायक दामोदर सावरकर वकालत पढ़ने के लिए दुश्मन की धरती इंगलैंड पर कदम तो रखते हैं पर उनका लक्ष्य वकालत से ज्यादा मातृभूमि को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने के लिए एक ऐसा झंझावात पैदा करने की ओर केंद्रित हो जाता है जो विदेशी शासन की नींव हिला दे।
1857 की 50वीं वर्षगांठ पर लंदन का प्रमुख दैनिक ’डेली टेलीग्राफ’ जहां ब्रिटिश साम्राज्य को महिमामंडित कर रहा था, वहीं हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को अपमानित। लंदन में मंचित एक नाटक में रानी लक्ष्मीबाई और नाना साहेब जैसे पराक्रमियों को हत्यारा और उपद्रवी बताया गया। बेचैन सावरकर की लेखनी आजादी के प्रणेताओं के स्वाभिमान की रक्षा के लिए तत्पर हो उठी। वह सन सत्तावन के सिपाही विद्रोह की मशाल के कूट संकेतों और संदेशों के अर्थ को पढ़ने में जुट गए। इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी और ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी में 1857 संबधी तमाम दस्तावेजों को खंगालने के बाद जैसे ही सावरकर के सामने पहले स्वतंता संग्राम के जरिए भावी पीढ़ी को दिए गए कूट संदेश स्पष्ट हुए, उन्होंने संपूर्ण भारत में स्वतत्रंता की अलख जगाने के लिए उसका सार लिपिबद्ध करना शुरू कर दिया। 1908 में मूलतः मराठी में लिखी गई यह पुस्तक पूर्ण हुई जो वास्तव में आजादी का सशक्त प्रेरक बल बनी। भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस इस किताब से बेहद प्रभावित हुए। आजाद हिंद फौज के गठन में इस ग्रन्थ ने अहम भूमिका निभाई है। इसी बहुचर्चित ग्रन्थ के नाम पर प्रसिद्ध शिक्षाविद्, लेखक, कवि, पत्रकार और नाटककार प्रह्लाद केशव अत्रे ने सावरकर को ‘वीर‘ की उपाधि दी और तभी से वह वीर सावरकर कहलाने लगे। 1957 के पहले स्वतंत्रता संग्राम पर अपनी शोधपूर्ण किताब ’1857 का स्वातंत्र्य समर’ में उन्होंने ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत किए कि घबराई ब्रिटिश सरकार ने प्रकाशन के पहले ही उसपर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बावजूद 1909 में उस पुस्तक का पहला गुप्त संस्करण प्रकाशित हुआ और 1947 तक के 38 वर्षों के दौरान यह कई भाषाओं में छपी और इसने अतंरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय होकर देश-विदेश के पाठकों को भारत में अंग्रेजों के ढाए अत्याचार और अन्याय से अवगत कराया। यह ग्रन्थ वास्तव में आजादी का शंखनाद था-
“ओ हुतात्माओं
स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हो एक बार
पिता से पुत्र को पहुंचे बार-बार
भले हो पराजय यदा-कदा
पर मिले विजय हर बार।”
10 जनवरी 1947 को ’1857 का स्वातंत्र्य समर’ का पहला अधिकृत कानूनी संस्करण प्रकाशित हुआ था। वीर सावरकर के शौर्य की पहली मुखर अभिव्यक्ति किशोरावस्था में अष्टभुजा देवी के मंदिर में ली गई उनकी पहली कसम से होती है जो भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के जनक दामोदर हरी चापेकर के ब्रिटिश अधिकारी रैंड को मौत की घाट उतारने की घटना से प्रेरित थी- “अपने देश की स्वतंत्रता के लिए की गई सशस्त्र क्रांति में मैं चापेकर की तरह शत्रुओं को मारते हुए मृत्यु का वरण करुंगा या शिवाजी की तरह विजयी बनूंगा और अपनी मातृभूमि के सिर पर स्वतंत्रता का मुकुट चढ़ाउंगा। मैं सशस्त्र क्रांति का परचम बुलंद करुंगा और अपनी अंतिम सांस तक लड़ता रहूंगा।“ युवावस्था में कदम रखने के बाद भी सावरकर ने कहा था कि उस दिन ली गई कसम की लौ हमेशा उनके अंदर प्रज्जवलित रही।
हिंदू राष्ट्रवाद का सिद्धान्त
सावरकर जीवन भर हिंदू, हिंदी और हिंदुस्तान के प्रति समर्पित रहे। अपनी अंतिम कविता ‘आइका भविष्यला’ में उन्होंने कहा है कि “हिंदू आजाद हो जाएंगे और विश्व को समानता, दया और सदाचारी लोगों की रक्षा के लिए स्वतंत्र कर देंगे।“ उनका मानना था कि राजनीति का अंतिम लक्ष्य विश्व राज्य का गठन है। राष्ट्रवाद की उनकी परिभाषा में मानवतावाद एक अहम मानक है। हिंदू राष्ट्र का दर्शन विकसित करने में उन्होंने महती योगदान किया है। उन्हें 6 बार अखिल भारत हिंदू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया था। 1937 में कमजोर पड़ती हिंदू महासभा की बागडोर सावरकर के हाथों में आई और अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने जोर देकर कहा कि हिंदू ही इस देश के राष्ट्रीय नागरिक हैं और आज भी अंग्रेजों को अपनी मातृभूमि से उखाड़ बाहर करने में सक्षम हैं जैसे उनके पूर्वजों ने अतीत में शकों, हुणों, मुगलों, तुर्कों आदि को भगाया था। उनके सशक्त नेतृत्व में 1938 में हिंदू महासभा एक राजनीतिक दल के तौर पर स्थापित हो गई थी।
समाज सुधारक
सावरकर सामाजिक और सार्वजनिक बराबरी के पक्षधर थे। उन्होंने छुआछूत दूर करने के लिए आंदोलन चलाया। सभी वर्गों के लोग एक साथ पूजा कर सकें, इसके लिए उन्होंने पतितपावन मंदिर की स्थापना का निश्चय किया। 1930 में पतितपावन मंदिर में शिवू भंगी ने गायत्री मंत्र का पाठ किया और गणेश जी की प्रतिमा पर पुष्प अर्पित किए। 1931 में स्वयं शंकराचार्य श्री कूर्तहरि ने मंदिर का उद्घाटन किया और श्री राज भोज ने उनकी चरण पूजा की। सावरकर ने मांग समुदाय की कन्या का भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी भी उठाई थी जो पहले अछूत माने जाते थे।
दूरदर्शी विश्लेषण
उन्होंने अलगाववादी मुस्लिम राजनीति का सही विश्लेषण करते हुए आगाह किया था कि गांधी की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति देश के अस्तित्व के लिए घातक होगी और यही हुआ भी। गांधी जी ने भी 6 अक्तूबर को 1946 को हरिजन में लिखे लेख में हिंदू -मुस्लिम एकता के संबंध में अपनी हार स्वीकार की है।
सावरकर ने नेहरू-लियाकत संधि के प्रति विरोध जताते हुए भविष्यवाणी की थी कि भारत सरकार तो अपना वादा निभाते हुए मुसलमानों को उचित सम्मान देगी, लेकिन पाकिस्तान में हिंदुओं की आजादी, प्रतिष्ठा और जीवन सुरक्षित नहीं रहेगा।
आजादी के बाद के महीने में सावरकर ने आगाह किया था कि पाकिस्तान कश्मीर पर हमला कर सकता है और निजाम भी विद्रोह कर सकता है, लिहाजा भारतीय सेना को सशक्त और आधुनिक बनाने पर जोर देना होगा, सीमाओं पर सर्तकता बढ़ानी होगी और परमाणु हथियार विकसित करने की दिशा में भी काम करना होगा। लेकिन नेहरु का नजरिया भिन्न था। उनके अनुसार भारत को सेना की आवश्यकता नहीं। इसी दृष्टिकोण के कारण पंचशील का सिद्धांत पेश कर शांतिदूत बने नेहरू को चीन से धोखा मिला जिसका खामियाजा भारत आज भी भुगत रहा है।
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