‘जद्यपि गृहं सेवक सेवकिनी।
बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी॥
निज कर गृह परिचरजा करई।
रामचंद्र आयसु अनुसरई॥’
कहब संदेसु भरत के आएं।
नीति न तजिअ राजपदु पाएं॥
तुलसी अपने इस लोकतांत्रिक समाज में किसी और धर्म का विरोध नहीं करते। उनके यहां सर्वधर्म सद्भाव है। इसलिए राम की जीत जनता की जीत होती थी। राम की मुश्किलें जनता की मुश्किलें होती थीं। तुलसी ने जनता को मरते-मरते जीना सिखाया। राम ने साधारण जन को यही सिखाया कि अन्याय के खिलाफ लड़ो। जीतो। आजादी लो। जनता अगर सक्षम नेतृत्व में लड़ेगी, तो आजादी जरूर मिलेगी।
तुलसी अपने समय के देश को देखते, समझते हैं। उसमें उसकी विषमताएं, अच्छाइयां, बुराइयां, सुख-दुख सब शामिल हैं। रामराज्य उस युग की आशा, आकांक्षा का प्रतीक स्वप्न है। चित्रकूट में पूरी अयोध्या राम की झोंपड़ी के बाहर जमा है।
शोक के अतिरिक्त वहां कुछ नहीं है। भांति-भांति के शोक। पिता की मृत्यु का शोक, वैधव्य का शोक, राम के निर्वासित होने का शोक, भरत के भीतर ग्लानि का शोक। इस शोक-संतप्त माहौल में सब चाहते हैं राम वापस लौटे चलें। राम जनमत के इस आग्रह को भरत पर छोड़ देते हैं। पूरी कथा का सबसे रोमांचक प्रसंग यही है। भरत का मोह यहां टूटता है। राजनीति की समझ जगती है। तुलसी लिखते हैं,
‘सोक कनकलोचन मति छोनी।
हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥
भरत बिबेक बराहं बिसाला।
अनायास उधरी तेहि काला॥’
भरत का विवेक वाराह की तरह प्रकट होता है। इसके बाद भरत अपना आग्रह छोड़ देते हैं। यह तुलसी के लोकतंत्र का अनोखा पर्व है।
रात हो गयी है। पूरी अयोध्या चित्रकूट में जुटती है। सभी लोग टकटकी लगाए राम, सीता, लक्ष्मण और भरत की ओर देख रहे हैं। यहां से तुलसी के लोकतंत्र की लोकमंगल यात्रा शुरू होती है। उस रात वहां जो हुआ, वह दुनिया के किसी लोकतंत्र के पास नहीं है। राम पिता के वचन का मान रखने के लिए संकल्पबद्ध हैं। सुमंत को वापस भेजते हुए वह कहते हैं, ‘कहब संदेसु भरत के आएं। नीति न तजिअ राजपदु पाएं॥’ पर भरत की लोकतांत्रिक अवधारणा अलग है जो सिंहासन से हुए अन्याय को नामंजूर करती है।
भरत के इस रवैये से राजभवन के षड्यंत्रकारी भी अपनी भूल स्वीकार करते हैं। महत्वाकांक्षाओं और कुटिलता का षड्यंत्र भरत के संकल्प से हारता है। जिसे राजा होना था, वह राजा बनने से मना कर देता है। भरत को यह राज्य पूरी वैधता से मिला था। उनका सत्ता हस्तांतरण उसी वचन का हिस्सा था, जिसका मान रखने के लिए राम वन गए थे। ऐसा कहीं होता है? जिसे राज्य मिले, वह उसे नकार दे। तुलसी लिखते हैं- आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई।।’
भरत का लोकतंत्र
दशरथ सत्ता के शिखर का प्रतीक हैं। इंद्र भी अपने सिंहासन से उतरकर दशरथ का स्वागत करते हैं। वे मनु के वंश के हैं। इक्ष्वाकु, मांधाता की परंपरा के हैं। ऐसा सर्वशक्तिमान दशरथ भी अगर अनीति का निर्णय लेता है तो भरत उस वचन को तोड़ देगा, जिसका एक सिरा पकड़कर राम वन चले गए। भरत का यह लोकतंत्र, न्यायतंत्र है। भरत इससे भी आगे जाते हैं। वे अपनी उस भूल का प्रायश्चित करते हैं, जो उन्होंने किया ही नहीं है। ‘साकेत’ में मैथिलीशरण गुप्त उसे अभिव्यक्ति देते हैं-
‘हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना;’
सब सजग हो गये, भंग हुआ ज्यों सपना।
‘हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी?
मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी?
पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा,
रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा?
तनु तड़प तड़प कर तप्त तात ने त्यागा,
क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा?
हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा,
निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा।’
राम का लोकतंत्र
यहां से राम का लोकतंत्र शुरू होता है। जो राजा की पूरी अवधारणा को बदल देता है। अयोध्या कैकेयी को अपराधिनी मानती है। भरत भी उन्हें अपराधी मानते हैं। यहां तक कि राम के परम मित्र निषादराज भी कहते हैं, ‘कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपन कीन्ह।’ इसे देख लगता है कि अगर भरत का लोकतंत्र न्यायतंत्र है, तो राम का लोकतंत्र क्षमातंत्र है। ग्लानि से भरी कैकेयी भी उसी रात्रिसभा में बैठी है। सभा में उसका अपना पुत्र अपनी मां को अभागिनी, अपराधी कह रहा है। अपने लोकतंत्र में सबसे पहले तुलसी राम के जरिए कैकेयी को षड्यंत्र के अपराध से मुक्त करते हैं। राम को पता है कि अगर कैकेयी को वे भरत के सामने अपराधमुक्त नहीं करते, तो कैकेयी जीते जी मृतप्राय हो जाएगी। कैकेयी को समाज कभी क्षमा नहीं करेगा।
राम के लोकतंत्र का अगला दृश्य। गुरु वशिष्ठ और राजा जनक सहित पूरी अयोध्या का बहुमत राम को वापस लाने के पक्ष में था। यही उस वक्त के जनमत का आदेश था। तो क्या इसे न मान राम ने जनमत की उपेक्षा की? तुलसी के लोकतंत्र का स्वर्णिम पक्ष यही है। इसीलिए राम राजनीति के पुरुषोत्तम हैं। तुलसी के राम यह सिद्ध करते हैं। मोह व्यक्ति को नहीं, पूरे समाज को ग्रस सकता है। समूह (भीड़) के फैसले हमेशा सही नहीं होते। तुलसी ने इस स्थिति के लिए ‘स्नेह जड़ता’ शब्द का प्रयोग किया है। राम पूरे धैर्य से भरत और अयोध्या की भावना सुनते हैं। लेकिन विनम्रता के साथ जनमत को उसका दायित्व बताते हैं। यह अयोध्या के लिए विकट समय था। पर इस कठिन समय में भी राम का विवेक जाग्रत था। वह जानते थे, लोकतंत्र में जनमत के निर्णय गलत हो सकते हैं। यदि नेतृत्व चेतन है तो समूह की भूल भी सुधार देता है। वे समाज को उचित निर्णय लेना सिखाते हैं। वे लोकमत के विरुद्ध जाकर लोकतंत्र का अनोखा आदर्श पेश करते हैं।
भरत का लोकतंत्र यदि परिवार की भूल के लिए राजा का सार्वजनिक प्रायश्चित है। तो राम का लोकतंत्र समूह को उचित-अनुचित का विवेक सिखाता है। वह यह बताता है कि भीड़ हमेशा सही निर्णय नहीं देती। राम समाज से कहते हैं, ‘राजा से वही कराएं जो उचित है।’ ‘सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू॥ साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥’
अनोखा राज्य
राम और भरत के इस व्यवहार से अनोखा राज्य बनता है। अयोध्या को चौदह वर्ष तक दो राजा चलाते हैं। दोनों ही सिंहासन पर नहीं बैठते। एक सम्राट वन में राक्षसों से मुक्ति का संकल्प पूरा कर रहा है। तो दूसरा सम्राट अयोध्या से बाहर नंदीग्राम की कुटिया से राजधर्म का पालन कर रहा है। नंदीग्राम में जटा-जूट धारी एक संत सम्राट बैठा है। कुटिया में वह वैसे ही रहा, जैसे राम वन में रहते। धनुष-बाण साथ में है। सुरक्षा का दायित्व पूरा है। तो फिर चाहे हनुमान ही क्यों ना हों, यदि वे अयोध्या के ऊपर से जाएंगे तो भरत उन्हें बाण मारकर नीचे उतार लेंगे। भरत भ्रातृप्रेम के आदर्श हैं। इस आदर्श को और मजबूत बनाने के लिए तुलसी चूकते नहीं। उनकी नजर में सुग्रीव और विभीषण खटकते रहते हैं। वे चाहते तो इस पर किसी टिप्पणी से बच भी सकते थे। पर भरत के आदर्श को बड़ा बनाने के लिए उन्होंने एक दोहा रच दिया। भरत ने भाई के लिए मिला राज्य ठुकरा दिया। और सुग्रीव और विभीषण ने राज्य के लिए भाई को मरवा दिया। तुलसी लिखते हैं, राम जब भरत की भ्रातृ भक्ति का बखान करते हैं तो सुग्रीव और विभीषण ऐसे लगते हैं, मानो कोई चोरी किया गया सामान ले जाते हुए पकड़ा जाए।’
‘सघन चोर मग मुदित मन धनी गही ज्यों फेंट।
त्यों सुग्रीव बिभीषनहिं भई भरत की भेंट।।
राम सराहे भरत उठि मिले राम सम जानि।
तदपि बिभीषन कीसपति तुलसी गरत गलानि।।’(दोहावली)
लोक संवाद
उत्तरकाण्ड में राम राज्याभिषेक के बाद जनता से संवाद करते हैं।
‘सुनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउं न कछु ममता उर आनी॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई॥’
‘सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥’
इस भाषण में तीन शब्द मूल्यवान हैं ‘ममता’, ‘अनीति’ और ‘भय’। राम कहते हैं, ‘मैं राजा तो हूं। पर बेलाग कहता हूं। हे अयोध्याजन आप अपने विवेक से सुनने और करने के लिए स्वतंत्र हैं। अगर मैं अनीति करूं तो रोक देना मुझे।’ आज कौन-सा शासन प्रमुख यह कहेगा कि अगर अनीति करूं तो हमे रोक दिया जाए। यह ‘राईट टू रिकॉल’ से मिलती जुलती अवधारणा है। लोकतंत्र असंख्य स्वाधीनताएं देता है ताकि लोग भय रहित होकर सत्ता से सवाल कर सकें। तभी राम कहते हैं, ‘डरना मत मुझसे।’ ‘तौं मोहि बरजहु भय बिसराई।’ तभी धोबी ने भी बिना डरे अपनी बात रखी और राम ने सुनी।
लोकतंत्र में सभी संस्थाएं अनीति और नीति बताने का आयोजन हैं। तुलसी के लोकतंत्र में इनकी स्वाधीनताएं सुरक्षित हैं। उनका आदर्श नेतृत्व बहुमत को सही फैसला लेना सिखाता है। राजपथ को उनकी सीमाएं बताता है। राजा गड़बड़ करे तो तुलसी पूरे होशोहवास में उसके पतन की भविष्यवाणी करते हैं,
राज करत बिनु काजहीं करहिं कुचालि कुसाज।
तुलसी ते दसकंध ज्यों जइहैं सहित समाज।।
राज करत बिनु काजहीं ठजहिं जे कूर कुठाट।
तुलसी ते कुरूराज ज्यों जइहैं बारह बाट।। (दोहावली)
लोकोन्मुखी राज्य
कुचाली, दुर्नीति वाला राजा कितना भी ताकतवर क्यों न हो, वह पूरे समाज को ले डूबता है। राम के वनवास पर लोग (जनता) कैकेयी और दशरथ को अपशब्द कहते हैं। तुलसी के लोकमंगल में प्रजा निडर थी। दशरथ की खुली आलोचना हुई। कोई कह रहा है कि राजा दशरथ इतने स्त्री वशीभूत हैं कि उनका सारा ज्ञान, गुण और विवेक समाप्त हो गया है।
‘एक कहहिं भल भूपति कीन्हा।
लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥
तब निषादपति उर अनुमाना।
तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥’
लोकमंगल, जनमत, सुशासन, सुव्यवस्था, स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुत्व की जड़ें रामराज्य से निकलती हैं। रामराज्य लोकोन्मुखी और जनवादी था। शासन में जन सामान्य की भागीदारी ही लोकतंत्र की रीढ़ होती है। राज्यसत्ता को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। वहां एक सामान्य धोबी की आवाज भी सत्ता के समीकरण बदल देती है। उसे सुनना राज्य की जिम्मेदारी है। राम राज्य के प्रतीक हैं। वह दीनबंधु दीनानाथ, कृपानिधान हैं, राजतंत्र में प्रजातंत्र की ऐसी कल्पना तुलसी के दूरगामी चिंतन की अमूल्य निधि है। एक ऐसे लोकतंत्र की कल्पना जिसमें शासन, प्रकृति, परमात्मा और प्रजा के बीच सेतु है।
‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए।’
या
‘परहित सरिस धर्मनहीं भाई। परपीड़ा सम नहीं अधमाई।।’
लोकतांत्रिक मूल्यों की ऐसी प्रतिष्ठा, राजपाट मिलने के बाद भी भरत को राम का संदेश, ‘कहब संदेसु भरत के आएं। नीति न तजिअ राजपदु पाएं॥‘ भरत राजपद पाने के बावजूद राज्य से मिलने वाली सुख-सुविधाओं से अनासक्त और उदासीन हैं।
समतामूलक लोकतंत्र
स्वस्थ लोकतंत्र और समाजवाद के लिए जरूरी है कि शासक से लेकर प्रशासन तक श्रम के महत्व को समझे। राम की केवट को उतराई देने की पेशकश, इसी मूल्य की स्थापना है। इस राम राज्य में सभी जाति, वर्णों को एक साथ स्नान करते दिखाया गया है। समतामूलक लोकतंत्र का सूत्र- ‘राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहां बरन चारिउ नर॥’ लोकतंत्र में एक जरूरी सूत्र है। राज्य प्रमुख का अपनी प्रजा से सीधा सम्पर्क और देश की भौगोलिक जानकारी। तुलसी ने पूरे देश की राम से परिक्रमा कराई। विश्वामित्र के साथ वे पूर्वी भारत की यात्रा पर गए। नेपाल, बंगाल तक लोगों से जनसम्पर्क किया। दूसरी तरफ विन्ध्य प्रदेश के रास्ते लंका तक गए। उत्तर, दक्षिण के सम्पर्क सूत्र बने। इस दौरान वे मनुष्य, सिद्ध, संतों से ही नहीं, वानर, भालू तक के सम्पर्क में आए।
‘अयोध्या स्टेट’ ने अपने सैन्य बल का इस्तेमाल कभी राज्य विस्तार की भावना से या अपना प्रभुत्व स्थापित करने की भावना से नहीं किया। राम का बाली वध के बाद किष्किंधा को सुग्रीव को सौंपना या लंका को विभीषण को सौंप फिर उधर की तरफ न देखना इसके उदाहरण हैं। तुलसी ने अपने ग्रंथों में सामंती शासन का विरोध और लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन हर जगह किया है। डॉ. रामविलास शर्मा कहते हैं, ‘तुलसी बड़ी कुशलता से समाज में सामंतों के कुशासन पर सवाल उठाते हैं। जनता के क्लेशों और दरिद्रता का वर्णन करते हैं।
‘खेती न किसान को,
भिखारी को न भीख।
बलि, बनिक को बनिज,
न चाकर को चाकरी।।’ (कवितावली)
खास बात देखिए, गांधी सिर्फ इसी रामराज्य को आदर्श लोकतंत्र मानते थे। उनके वैचारिक विरोधी सावरकर भी रामचरितमानस को लोकतंत्र का आदर्शशास्त्र कहते हैं। एक ऐसा शास्त्र जो लोकतंत्र की कहानी ही नहीं, लोकतंत्र का प्रहरी, प्रेरक और निर्माता भी है। सावरकर यह भी कहते हैं कि ‘जब तक हमारे यहां रामायण है कोई डिक्टेटर पनप नहीं सकता।’ लोकतंत्र में शासन, उसका धर्म, उसके कर्त्तव्य कैसे हों, उसकी शासन व्यवस्था, उसका बजट कैसा हो, इस सब पर तुलसी ने विचार किया है। राम लोक के प्रतिनिधि हैं। लोक जैसा व्यवहार करते हैं। लोक जैसा बनना चाहते हैं। चौदह बर्ष जनता के बीच रहकर जनता जैसा आचरण करते हैं। वह न राजा हैं, न भगवान। उनके सारे कार्य मानवीय हैं।
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