भारत का अतीत गौरवशाली है। यहां की सांस्कृतिक धरोहरों ने पूरे विश्व को वैज्ञानिकता, सहृदयता और करुणा की प्रेरणा दी है। हिंदू नव वर्ष यानी नव संवत्सर भी वैज्ञानिकता से परिपूर्ण है। विक्रम नवसंवत्सर 2080 का नाम पिंगल है। इस संवत्सर के राजा बुध हैं और मंत्री शुक्र हैं।
इस समय विश्व में 70 से अधिक कालगणनाएं प्रचलित हैं, उनसे संबंधित देशों में उनके नववर्ष अपनी-अपनी परम्पराओं के अनुसार आते हैं और अपने-अपने देश के सांस्कृतिक और धार्मिक रीति-रिवाजों और मान्यताओं के अनुसार मनाए जाते हैं। परन्तु इन सभी कालगणनाओं का आधार सारे ब्रह्मांड को व्याप्त करने वाला कालतत्व न होकर व्यक्ति विशेष, घटना विशेष, वर्ग विशेष, सम्प्रदाय विशेष अथवा देश विशेष है।
ईस्वी सन् ईसा की मृत्यु पर आधारित
ईस्वी सन् का प्रारम्भ ईसा की मृत्यु पर आधारित है। परन्तु उनका जन्म और मृत्यु अभी भी अज्ञात है। ईस्वी सन् का मूल रोमन सम्वत् है। यह 753 ईसा पूर्व रोमन साम्राज्य के समय शुरू किया गया था। उस समय उस सम्वत में 304 दिन और 10 मास होते थे। जनवरी और फरवरी के मास नहीं थे। ईसा पूर्व 56 वर्ष में रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने वर्ष 455 दिन का माना। बाद में इसे 365 दिन का कर दिया गया।
जूलियस सीजर ने अपने नाम पर जुलाई मास भी बना दिया और उसके पोते अगस्तस ने अपने नाम पर अगस्त का मास बना दिया। उसने महीनों के बाद दिन संख्या भी तय कर दी। इस प्रकार ईस्वी सन् में 365 दिन और 12 मास होने लगे। फिर भी इसमें अंतर बढ़ता चला गया। क्योंकि पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने के लिए 365 दिन 6 घंटे 9 मिनट और 11 सेकेंड लगते हैं। इस तरह ईस्वी सन् 1583 में इसमें 18 दिन का अंतर आ गया।
तब ईसाईयों के गुरु पोप ग्रेगरी ने 4 अक्टूबर को 15 अक्टूबर बना दिया और आगे के लिए आदेश दिया कि 4 की संख्या में विभाजित होने वाले वर्ष में फरवरी मास 29 दिन का होगा। 400 वर्ष बाद इसमें एक दिन और जोड़कर इसे 30 दिन का बना दिया गया। इसी को ग्रेगरियन कैलेंडर कहा जाता है। जिसे सारे ईसाई जगत ने स्वीकार कर लिया।
ईसाई सम्वत 25 मार्च को होता था
ईसाई सम्वत के बारे में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पहले इसका आरम्भ 25 मार्च को होता था। परन्तु 18वीं शताब्दी से इसका आरम्भ 1 जनवरी से होने लगा। इस कैलेंडर में जनवरी से जून तक के नाम रोमन देवी-देवताओं के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त का सम्बन्ध जूलियस सीजर और उसके पोते अगस्तस से है। इसी तरह सितम्बर से दिसम्बर तक के मासों के नाम रोमन सम्वत के मासों की संख्या के आधार पर हैं, जिसका क्रमशः अर्थ है 7, 8, 9 और 10, इससे ही ईस्वी सन् के खोखलेपन की पोल और ईसाई जगत की अवैज्ञानिकता प्रकट हो जाती है।
भारत में मासों का नामकरण
भारत में मासों का नामकरण प्रकृति पर आधारित है। चित्रा नक्षत्र वाली पूर्णिमा के मास का नाम चैत्र है। विशाखा का वैखाख है। ज्येष्ठा का ज्येष्ठ है। श्रवण का श्रावण है। उत्तराभद्रपद का भाद्रपद है। अश्विनी का अश्विन है। कृतिका का कार्तिक है। मृगशिरा का मार्गशीर्ष। पुष्य का पौष। मघा का माघ और उत्तरा फाल्गुनी का फाल्गुन मास होता है।
ये है भारतीय गणना
इसी तरह भारत में 354 दिन के बाद वर्ष और 365 दिन 6 घंटे 9 मिनट 11 सेकेंड के अंतर को दूर करने के लिए हमारे वैज्ञानिकों ने 2 वर्ष 8 मास 16 दिन के उपरांत एक अधिक मास या पुरुषोत्तम अथवा मलमास की व्यवस्था करके कालगणना की प्राकृतिक शुद्धता और वैज्ञानिकता बरकरार रखी है। उपरोक्त तथ्यों के संदर्भ में यही उचित होगा कि हम सभी भारतवासी पूर्णतः वैज्ञानिकता और प्रकृति के नियमों पर आधारित अपनी युगों की वैज्ञानिक एवं वैश्विक भारतीय कालगणना का प्रयोग करें। इस कालगणना का प्रथम दिवस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा श्री ब्रह्म जी द्वारा सृष्टि रचना का दिन होने के कारण यह वर्ष प्रतिपदा केवल हम भारतवासियों के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के लिए पूजनीय है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का महत्व
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के साथ कुछ ऐसी विशेष घटनाएं सम्बंधित हैं जिनके कारण इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। प्रभु श्रीरामचन्द्र का राज्याभिषेक, धर्मराज युधिष्ठिर का राजतिलक, विक्रमादित्य के विक्रम सम्वत का शुभारम्भ, सम्राट शालिवाहन का शक सम्वत, स्वामी दयानन्द द्वारा आर्यसमाज की स्थापना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिन।
विक्रम संवत और शक संवत में इतने वर्षों का अंतर
विक्रम संवत और शक संवत में 135 वर्ष का अंतर है। शक संवत कुषाण साशक कनिष्क ने शुरू किया था। कनिष्क को शालिवाहन भी कहते हैं। विक्रम संवत महाराजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने शुरू किया था। अंग्रेजी तारीख के हिसाब से 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत शुरू हुआ था और 78 ईसवी को शक संवत शुरू हुआ था।
भारतीय नव वर्ष का स्वागत देवी पूजन और व्रत से होता है
यूरोपीय ईसाई सम्राज्य के प्रभावकाल में यह ईसाई कालगणना हम पर थोपी गई थी। उस समय की मानसिक दासता के कारण हम ईसाई वर्ष को मनाते चले आ रहे हैं। यह हमारे लिए लज्जा का विषय नहीं है क्या? आइये हम इसका परित्याग कर अपना भारतीय नववर्ष हषोल्लास से मनायें। यह भी ध्यान रखें कि इस ईसाई नववर्ष के आगमन का स्वागत नाच-गाने, उच्छंखलता, रात-रात भर होटलों में शराब के नशे में मौज मस्ती करना इत्यादि के साथ होता है। परन्तु भारतीय नववर्ष का स्वागत नवरात्र पूजन, देवी पूजन और व्रत इत्यादि के साथ प्रारम्भ होता है।
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